सम-सामयिक

पहाड़ का विनाश करती वनों की आग!

 

इस बार भी गर्मी बढ़ने के साथ ही पहाड़ के वन क्षेत्र से आग की घटनाएं सामने आ रही है। यह कोई नया नहीं है। हर साल पहाड़ पर आग की घटनाएं लगातार घटने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही हैं। ऐसी स्थिति में सबसे पहले उन कारणों पर गौर करना जरूरी है जिनके कारण जंगल जल रहे हैं। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में इन दिनों जंगल आग की चपेट में हैं। इस फायर सीजन में जंगल की आग की 886 घटनाएं हो चुकी हैं। जिसकी चपेट में आकर अब तक पांच की मौत और पांच लोग घायल हो चुके हैं वहीं, 1107 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है। उत्तरकाशी जिले की बाड़ाहाट रेंज से लेकर धरासू रेंज के जंगल अधिक जल रहे हैं। उत्तराखंड में जंगल की आग भयावह हो गई है। शुष्क मौसम के चलते तेजी से फैल रही आग काल बन रही है। लगातार बढ़ रही आग की घटनाओं में बीते रोज ही तीन व्यक्तियों की मौत हो गई जबकि, एक व्यक्ति बुरी तरह झुलस गया। बताते हैं 24 घंटे के भीतर प्रदेश में आग की 64 घटनाएं हुईं, जिनमें कुल 75 हेक्टेयर वन क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचा है। विभाग के रिकॉर्ड पर नजर डालें तो अब तक 19.55 हेक्टेयर वन क्षेत्र जल गए हैं।

उत्तराखंड में जंगलों के झुलसने का सिलसिला जारी है। वन विभाग सेना के सहयोग से लगातार आग पर काबू पाने का प्रयास कर रहा है। शरारती तत्व भी वन विभाग की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। अब तक इस सीजन में जंगल में आग लगाने पर वन संरक्षण अधिनियम और वन अपराध के तहत 350 मुकदमे दर्ज कराए जा चुके हैं जिनमें 290 मुकदमे अज्ञात और 60 मुकदमे ज्ञात व्यक्तियों के विरुद्ध कराए गए हैं।साथ ही अब तक कुल 58 व्यक्तियों को जंगल में आग लगाने पर गिरफ्तार किया जा चुका है। वन विभाग की ओर से मुख्यालय में कंट्रोल रूम स्थापित किया गया है।

जंगलों की इस आग को बुझाने के लिए सेना की मदद ली जा रही है। संभवतः यह कदम भी इसलिए उठाना पड़ रहा है क्योंकि नैनीताल में दावानल रिहायशी क्षेत्रों तक आ पहुंची है, पिछले दिनों नैनीताल की हाईकोर्ट कॉलोनी के घरों तक इसकी लपटें पहुंच गई। जंगलों में इस तरह की आग न पहली बार है और न ही आखिरी बार। हर साल लाखों पेड़ इसी तरह अग्नि की भेंट चढ़ जाते हैं। इससे निपटने के लिए सरकार क्या कर रही है? हर बार की तरह लकीर पीटी जा रही है। आग लगने से पहले बचाव कदम उठाने के बड़े-बड़े दावे कागजों पर किए जाते हैं, फिर जब आग लग जाती है तो पूरा अमला उसे बुझाने में जुटता है। हर बार की यही कहानी।

हर बार मीडिया में किसी कोने में छोटी-मोटी खबरों में दब जाने वाली जंगलों की आग का असर कितना है, पहले यह समझते हैं।एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में जंगलों पर नजर रखने वाले ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच डेटा से पता चलता है कि भारत में 2000 के बाद से 23.3 लाख हेक्टेयर वृक्ष क्षेत्र नष्ट हो गया। इसके पीछे प्राकृतिक गड़बड़ी और मानव-प्रेरित दोनों कारकों को कारण माना गया है। कुल वृक्ष आवरण की बात करें तो पिछले 23 वर्ष में देश के वृक्ष आवरण में 6 प्रतिशत की कमी आ गई है। साल 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बनने के बाद से अब तक देशभर में लगभग 10 लाख 26 हजार हेक्टेयर वन भूमि का गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्जन हुआ है। यह क्षेत्र कितना बड़ा है, इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह भूमि दिल्ली के क्षेत्रफल से लगभग 7 गुना अधिक है। उदारीकरण से ठीक पहले साल 1990 में सर्वाधिक 1 लाख 27 हजार से अधिक वन भूमि का डायवर्जन हुआ है। दूसरा सबसे बड़ा डायवर्जन साल 2000 में हुआ। इस साल 1 लाख 16 हजार से अधिक वन भूमि गैर वनीय उपयोग के लिए डायवर्ट की गई। सबसे अधिक डायवर्जन सड़कें बनाने और खनन के लिए किया जाता है। इसके अलावा ट्रांसमिशन लाइनों, सिंचाई परियोजनाओं, रक्षा परियोजनाओं, रेलवे, नहरों, वनग्रामों के कन्वर्जन, उद्योग, पाइपलाइन आदि के लिए भी बड़े पैमाने पर वनभूमि का डायवर्जन हुआ है।

साल दर साल ऐसी घटनाएं होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि कोई भी सरकार इसे गंभीरता से नहीं ले रही है । ताजा घटनाओं को ही ले लीजिए। वन जल रहा है 24 घंटे में वन में आग लगने की 31 घटनाएं हुई, 4 हैक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ लेकिन इतनी व्यापक आर्थिक क्षति मात्र 39,440 रुपये की बताई जा रही है। नेपाल सीमा पर स्थित जंगलों में लगी आग से जहां वन संपदा नष्ट हो रही है वहीं आग की चपेट में आकर वन्य जीव संकट में आ चुके हैं। आग से बचने के लिए वन्य जीव गांवो की तरफ आ रहे हैं उनके शिकार के लिए गुलदार दिनदहाड़े गांव में पहुंच रहे हैं।

सरकार की एजेंसियां ही सरकार को गलत रिपोर्टिंग कर गुमराह कर रही है और कागज पर आग लगा-बुझाकर अपनी पीठ थपथपा रहीं हैं और सरकारी फंड को उदरस्थ कर रहीं हैं। जंगल जलने के दो सबसे बड़े कारण हैं पहला चीड़ के जाने वाला गोंद लीसा (रेजिन)। यह चीड़ के पेड़ में भारी मात्रा है, इसी से तारपीन का तेल निकलता है जो अत्यंत ज्वलनशील होता है। इस कारण गर्मी में हल्की-सी रगड़ से ही ये दहक उठते हैं। दूसरा है भेड़-बकरी पालने वाले चरवाहों की लापरवाही।इनको पशुओं के लिए ताजी घास की जरूरत होती है, इसलिए ये आग लगा देते हैं ताकि सूखे पत्ते जलें और बारिश आते ही नया घास उग आए।

चीड़ से निकला रेजिन सरकार को भारी राजस्व दिलाता है, फिर भी हर साल जंगल जलते हैं। सरकार को राजस्व हानि तो होती ही है, किन्तु सबसे बड़ा नुकसान है पर्यावरण को। यदि जंगल इसी तरह जलते रहे तो कुछ ही दशकों में गर्मी असहनीय हो जाएगी। इसलिए सरकार को इन जंगलों को इस तरह स्वाहा होने से बचाने के लिए हरसंभव कदम उठाने चाहिए। लोगों को जागरुक करने से लेकर आग फैलने से रोकने वाले आधुनिक यंत्रों तक, किसी भी मामले में सरकार की ओर से की गई कंजूसी भविष्य में बहुत महंगी पड़ेगी। चिंताजनक यह है कि अभी कोई इस दिशा में गंभीरता से योजना नहीं बनायी गयी है । एक ओर ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनिया गर्मी से धधक रही है और वन संपदा की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर वन सम्पदा जलकर राख हो रही है और इस स तपिश और प्रदूषण और अधिक बढ़ रहा है। हमें वन की आग की घटनाओं पर नियंत्रण के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए ताकि आक्सीजन का अपार उत्सर्जन के स्रोत हमारे जीवन को मंगलमय बनाने का साधन बने रहें। (हिफी)

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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