राजनीति

न्यायपालिका की दिक्कतें

 

हाल ही में सामने आई इस रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में जिला अदालतों में जहां 5 हजार से अधिक जज के पद खाली हैं, वहीं, 4500 कोर्ट रूम और 75 हजार से अधिक सहायक कर्मियों के पद भी खाली हैं। इसमें कहा गया कि न्यायिक अधिकारियों के रहने के लिए 6 हजार से अधिक आवास की कमी है। रिपोर्ट में बताया गया कि 42 प्रतिशत कोर्ट रूम का निर्माण कार्य पिछले तीन सालों से चल रहा है जो कि तय की गयी समय सीमा से पीछे है।

आपको यह जानकारी कुछ अटपटी मालूम पड़ सकती है लेकिन यह हकीकत है कि देश की न्यायिक व्यवस्था की आधार न्यायपालिका खुद संसाधन की कमी से जूझ रही है। अदालत है तो जज नहीं है जज हैं तो अदालत कक्ष मौजूद नहीं हैं। न्याय में विलम्ब का यह भी एक कारण है।

हाल ही में एक रिपोर्ट ने इस सारी अव्यवस्था को उजागर कर दिया है देश की अदालतों में सिर्फ जजों की कमी नहीं है बल्कि बड़े पैमाने पर कोर्ट रूम जज को रहने के लिए आवास और सहायक कर्मचारियों के साथ-साथ अन्य संसाधनों की भी कमी है। यह स्थिति सिर्फ जिला अदालतों में ही नहीं बल्कि विभिन्न उच्च न्यायालयों में भी है। महाराष्ट्र को छोड़कर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, सहित सभी राज्यों में अदालत कक्षों और संसाधनों की कमी है, जबकि देश की अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। सुप्रीम कोर्ट के शोध एवं योजना विभाग द्वारा तैयार रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है।

हाल ही में सामने आई इस रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में जिला अदालतों में जहां 5 हजार से अधिक जज के पद खाली हैं, वहीं, 4500 कोर्ट रूम और 75 हजार से अधिक सहायक कर्मियों के पद भी खाली हैं। इसमें कहा गया कि न्यायिक अधिकारियों के रहने के लिए 6 हजार से अधिक आवास की कमी है। रिपोर्ट में बताया गया कि 42 प्रतिशत कोर्ट रूम का निर्माण कार्य पिछले तीन सालों से चल रहा है जो कि तय की गयी समय सीमा से पीछे है।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी इस रिपोर्ट में बढ़ते मुकदमों के बोझ के मद्देनजर बुनियादी ढांचे के विस्तार के लिए सक्रिय और अच्छी तरह से निगरानी वाले कदम उठाए जाने की जरूरत पर बल दिया। साथ ही, 2026 तक यह सुनिश्चित करने को कहा कि देश में कुल तय क्षमता के अनुसार कोर्ट रूम, हॉल सहित सभी तरह के ढंचागत बुनियादी सुविधा बहाल हो।
देशभर में 5300 जज के पद खाली है, सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश में है। रिपोर्ट के मुताबिक देशभर में जिला अदालतों में 5300 जज के पद रिक्त हैं। इनमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में 1204 और बिहार में 460 जज के पद रिक्त हैं। इसमें कहा गया कि 5,300 रिक्तियों में से 1,788 रिक्तियां यानी 21 फीसदी जिला जज संवर्ग में हैं, जबकि 8,387 जिला जज के पद स्वीकृत हैं। इसी तरह 3,512 रिक्तियां यानी 21 फीसदी सिविल जज संवर्ग में हैं, जबकि 16,694 सिविल जज के पद स्वीकृत है। रिपोर्ट में कहा गया कि यह न्यायाधीशों की नियमित भर्ती की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। उच्च न्यायालयों में भी जज के पद खाली हैं।

दिल्ली में 61 फीसदी जज के लिए आवास उपलब्ध नहीं है। इस रिपोर्ट में कहा गया कि दिल्ली, जम्मू कश्मीर और लद्दाख में जिला अदालतों में काम करने वाले जज को रहने के लिए पर्याप्त सरकारी आवास नहीं है। इसमें कहा गया कि इन तीनों राज्यों में जज के लिए 61 फीसदी आवास की कमी है।

वहीं आपको बता दें कि जिला न्यायपालिका में महज 36 फीसदी महिला जज तैनात हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि देश की जिला अदालत में महज 36.3 फीसदी ही महिला जज कार्यरत है। हालांकि रिपोर्ट में कहा गया कि देश के जिला न्यायपालिका में अब महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है। इसमें कहा गया कि 16 राज्यों में सिविल जज के लिए आयोजित प्रतियोगिता परीक्षा में से 14 राज्यों में 50 फीसदी से अधिक महिला प्रतिभागी चयनित हुईं। इस रिपोर्ट के मुताबिक हाईकोर्ट में 13.4 फीसदी और सुप्रीम कोर्ट में महज 9.3 फीसदी महिला जज हैं।

यही नहीं, अदालतों में शौचालयों की स्थिति भी बेहद खराब है। देशभर में जिला अदालतों में 88 फीसदी पुरुषों के लिए और 80 फीसदी महिलाओं के लिए शौचालय हैं। हालांकि, सिर्फ 6.7 फीसदी शौचालयों में ही सैनिटरी नैपकिन वेंडिंग मशीन की सुविधा है। इसके अतिरिक्त सिर्फ 30.4 फीसदी जिला न्यायालय परिसरों में दिव्यांगजनों के लिए अलग शौचालय हैं। इसके अलावा केवल 13.1 फीसदी जिला न्यायालय परिसरों में चाइल्ड केयर सुविधा है। 50 फीसदी जिला न्यायालय परिसरों में दिव्यांगजनों के लिए रैंप हैं। 40 जिला न्यायालय परिसरों में दिव्यांगजनों के लिए पार्किंग स्थल निर्धारित हैं।

हालांकि मौजूदा सरकार दावा करती है कि वह न्यायिक व्यवस्था में लगातार सुधार के लिए प्रयत्नशील है लेकिन इसके बावजूद अदालतों में जजों की नियुक्ति न किया जाना तथा बुनियादी ढांचे को सुधारने के लिए पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाना घोर चिंता का विषय है। यह भी चिंताजनक विषय है कि आमतौर पर हर मुद्दे पर सरकार को गाइडलाइन देने का प्रयास करने वाला सुप्रीम कोर्ट भी अपने न्याय तंत्र की व्यवस्था सुधारने के लिए कोई आदेश जारी करने से क्यों ग्रेस कर रहा है और इस मामले को लेकर हमारा सुप्रीम कोर्ट गंभीर क्यों नहीं है। ऐसी स्थिति में जब देश में अधिकांश अदालतों में अगली पेशी अगले साल की स्थिति बनी है मुकदमा जितना अधिक है कि आए दिन फरियादी अदालतों के चक्कर काटते हैं और अपनी उम्र पूरी होने पर भी न्याय नहीं मिल पाता पर न्याय पाने की आस में अपनी पूरी जिंदगी लगा देते हैं ऐसी स्थिति में माननीय शीर्ष अदालत का कर्तव्य है कि वह सरकार को न्याय तंत्र की बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने के लिए मजबूर करें लेकिन सिर्फ सूचनात्मक जानकारी देना इस मामले का हल नहीं है कानून बनाने से क्या होगा जब तक उन कानून पर अमल न हो और उनका उल्लंघन करने वालों को समय रहते अदालतों से दंडित न किया जाए। यह सबसे पहली जरूरत है। सरकार को इस पर तत्काल ध्यान देना चाहिए ताकि देश में न्यायपालिका की व्यवस्था दुरुस्त रह सके और लोगों को समय पर न्याय मिल सके।

आए दिन हम समय पर न्याय नहीं मिलने के लिए अदालतों को दोषी बताते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट की मौजूदा रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि इसके लिए मौजूदा सिस्टम भी पर्याप्त जिम्मेदार है जिसने समय रहते अदालत के संसाधनों को बढ़ाने की बात तो दूर मौजूदा संसाधनों को भी बनाए रखने में जबरदस्त लापरवाही बना रखी है। न्यायिक अधिकारियों के जो पद मौजूद है वह भी खाली पड़े हैं जबकि और अधिक पद बढ़ाने की जरूरत है। यह स्थिति घोर चिंता जनक है और इसका तत्काल समाधान निकालना जरूरी है ताकि देश में न्याय की गरिमा बनी रहे और लोगों को न्याय पाने में सुविधा हो। (हिफी)

(मनोज अग्रवाल-हिफी फीचर)

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