तगुमराह करने वाली है वल्र्ड हैप्पिनेस रिपोर्ट
खुशी मापने के वैश्विक पैमाने को लेकर तमाम तरह की विसंगतियों पर व्यापक रूप से चर्चा होती रही है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दुनिया के लोगों की खुशी मापकर एक सूची जोर शोर से जारी की जाती है लेकिन हमारे लिए यह सूची भी निराश करने वाली होती है क्योंकि भारत को जिस इंडेक्स पर दर्शाया जाता है वह बहुत निराश करने वाला है। हाल ही में जारी सूची में भी किंतु परंतु रहे हैं लेकिन फिर भी भारत को 140 देशों के आकलन में 126 वे स्थान पर रखा गया है। हमारे नीति-नियंताओं को इस सवाल पर आत्ममंथन करना चाहिए कि हैप्पिनेस मंे भारत दुनिया के करीब 140 देशों में 126वें नंबर पर क्यों है? खुशी मापने के पश्चिमी पैमाने में काफी विसंगतियां है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। इसके वजूद पर हमेशा से ही सवाल उठते रहे हैं, फिर भारत जैसे विशाल जनसंख्या व सांस्कृतिक विविधता वाले देश को एक पैमाने से मापना अतार्किक ही है। हो सकता है जिस बात पर अमेरिकी नागरिक खुश होते हों, वह एक आम भारतीय की खुशी की वजह न हो। सही मायनों में खुशी का आधार संतोष होता है जो एक सापेक्ष स्थिति है। एक मनःस्थिति है। फिर भारत जैसे देश का दर्शन भौतिक संपदा के बजाय आंतरिक शांति और संतुष्टि में खुशी तलाशता रहा है। फकीरों की मौज को खुशी के पैमाने पर कदापि नहीं आंका जा सकता। वैसे पश्चिमी मापदंड के आधार पर कर्ज में डूबे व अराजकता से जूझते देश पाकिस्तान को भारत के मुकाबले ज्यादा खुशहाल बताने का तर्क गले से नहीं उतरता।
इस बार की वर्ल्ड हैपीनेस रिपोर्ट में एक बार फिर सातवीं दफा फिनलैंड लगातार खुशहाल देश बना है। उसके बाद डेनमार्क व आइसलैंड का नंबर आता है। ये देश विकसित मगर भारत के एक छोटे शहर की जितनी आबादी वाले देश हैं। निस्संदेह, बड़ी जनसंख्या का हमारी नागरिक सेवाओं पर प्रतिकूल असर पड़ता ही है। भले ही हमारे नीति-नियंताओं की नीतियों में खोट रहे हों और भ्रष्टाचार व्यवस्था को लीलता रहा है, लेकिन हम कैसे भूलें कि देश सदियों की गुलामी से निकलकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ है। भले ही देश में घनघोर आर्थिक असमानता हो, लेकिन फिर भी आज देश की आर्थिक विकास की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। जरूरी है कि आर्थिक विकास समतामूलक होना ही चाहिए लेकिन यहां एक सवाल यह भी है कि क्या आर्थिक संपन्नता ही खुशी का आधार है? अगर वाकई आधार है तो क्यों आम भारतीयों के सपनों का अमेरिका पहले दस खुश देशों की सूची से बाहर है? क्यों कोई भी विकसित बड़ा राष्ट्र पहले दस खुश देशों में शामिल नहीं है? बहरहाल, वैश्विक खुशी का सूचकांक हमारे नीति-नियंताओं को आत्ममंथन का मौका देता है। सत्ताधीशों को विचार करना होगा कि आखिर आम भारतीय कैसे खुश हो सकता है। देश में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं और बेहतर शिक्षा व्यवस्था कैसे स्थापित की जा सकती हैं। देश में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, जातीय भेदभाव, निरक्षरता और आर्थिक असमानता को दूर करने की गंभीर पहल तो होनी ही चाहिए। बेरोजगारी की समस्या को प्राथमिकता के आधार पर संबोधित करने की जरूरत है। महिलाओं को सशक्त बनाकर अर्थव्यवस्था में उनकी बड़ी भूमिका निर्धारित की जानी चाहिए। लोगों का देश की कानून व्यवस्था के प्रति भरोसा बने, ऐसी नीतियों को क्रियान्वित करने की जरूरत है। कोशिश होनी चाहिए कि देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़े। सत्ताधीशों की विश्वसनीयता बने और संवैधानिक संस्थाओं को मजबूती प्रदान की जाए। यदि ऐसा होता है तो देश में खुशी के सूचकांक में सुधार संभव है। भारतीय सामाजिक तानेबाने की अपनी विशेषताएं रही हैं। उसे वैश्विक मंच पर मान्यता दिलाने की जरूरत है।
उल्लेखनीय है कि इस रिपोर्ट का एक सकारात्मक पक्ष यह भी है कि भारतीय वृद्धों में जीवन के प्रति संतुष्टि का स्तर ऊंचा है। इसका आधार भारतीय जीवन मूल्यों की मजबूती भी है, जबकि पश्चिमी देशों में वृद्धों की बड़ी आबादी आज भी एकाकी जीवन के त्रास को झेल रही है। भारत में संयुक्त परिवारों में बिखराव के बावजूद बड़ी आबादी फिर भी अपने बुजुगों का ख्याल रखती है। दरअसल, मीडिया में प्रकाशित नकारात्मक समाचारों से आम लोगों में भारतीय पारिवारिक मूल्यों के प्रति भ्रामक धारणा बनती है। इसके बावजूद आम भारतीय के जीवन स्तर को सुधारने के लिए कई मोर्चों पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। देश में सामाजिक समरसता और सांप्रदायिक सद्भाव की दिशा में भी बहुत काम किये जाने की जरूरत है। जीवन की गुणवत्ता में धनात्मक बदलाव के लिए सरकारों, सामाजिक संगठनों व सामुदायिक संस्थाओं को रचनात्मक पहल करने की जरूरत है। यदि ऐसा होता है तो अगली बार खुशी के सूचकांक में उत्साहवर्धक परिणाम हो सकते हैं।
अगर खुशी मापने का आधार सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता है, जो भारत के लोगों को हासिल नहीं है और इसलिए उनकी खुशी अधूरी या अपूर्ण है तो दक्षिण एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देशों के लोगों को कौन सी सामाजिक सुरक्षा हासिल है? अगर सकल घरेलू उत्पाद खुशी को मापने का पैमाना है तो उस आधार पर भी कैसे 125 देश भारत से बेहतर हो सकते हैं? अगर भ्रष्टाचार में कमी या उसकी गैरमौजूदगी खुश होने का आधार है तो अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश कैसे भारत से बेहतर हैं? असल में सस्टेनेबल सॉल्यूशन डेवलपमेंट नेटवर्क यानी एसएसडीएन ने जिन छह पैमानों पर खुशी को मापा है वह अपने आप में अधूरा और बेतुका है। खुशी को मापने के उसके छह पैमाने हैं- सकल घरेलू उत्पाद, सामाजिक सुरक्षा की उपलब्धता, स्वस्थ व लंबी जीवन प्रत्याशा, अपनी पसंद की आजादी, उदारता और भ्रष्टाचार की गैरमौजूदगी।
अगर सूक्ष्म विश्लेषण करें तो इनमें से कोई भी पैमाना ऐसा नहीं है, जो एक औसत व्यक्ति की खुशी मापने का पर्याप्त पैमाना हो। ऐसा लग रहा है कि एसएसडीएन को सुख और खुशी का फर्क नहीं पता है। उसने सुख सुविधाओं की उपलब्धता को ही खुशी मान लिया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हों, सामाजिक सुरक्षा हासिल हो और सरकार की मदद से या अपने प्रयास से सुख सुविधाएं जुटा ली जाएं तो हो सकता है कि उससे खुशी मिले लेकिन ये सारी चीजें अंतिम तौर पर खुश होने या रहने की गारंटी नहीं हैं। दूसरे, इस बात को भी समझने की जरूरत है कि कोई भी व्यक्ति सिर्फ भौतिक सुख सुविधाओं की उपलब्धता से ही खुश नहीं हो सकता है और न निरंतर खुश बना रह सकता है। सबसे सुखी व्यक्ति को भी सौ तरह के दुख होते हैं, निराशा होती है। अगर ऐसा नहीं होता है तो सबसे सुखी, संपन्न और शक्तिशाली लोगों में अवसाद की बीमारी नहीं होती।
हम जानते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा नागरिक आजादी और भौतिक सुख सुविधाएं यूरोप के देशों में हैं, लेकिन यह भी हकीकत है कि अवसाद यानी डिप्रेशन की बीमारी भी सबसे ज्यादा यूरोप के देशों में फैल रही है।
ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के एक आंकड़े के मुताबिक यूरोप में सन 2000 से 2020 के बीच एंटीडिप्रेशेंट यानी डिप्रेशन की दवा की बिक्री ढाई गुना बढ़ी है। डिप्रेशन की दवा लेने वाले लोगों में सबसे ज्यादा औसत आइसलैंड के लोगों का है और उसके बाद स्वीडन और नार्वे का नंबर आता है। सोचें, एसएसडीएन की रिपोर्ट के मुताबिक जो आइसलैंड खुशहाली के सूचकांक में तीसरे स्थान पर है वह डिप्रेशन की दवा के इस्तेमाल के मामले में नंबर एक पर है। इसी तरह खुशहाली सूचकांक में स्वीडन और नॉर्वे क्रमशः छठे और सातवें स्थान पर हैं लेकिन डिप्रेशन की दवा के इस्तेमाल में दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। इसलिए वल्र्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में दिए गए भारत के दर्जे पर अधिक चिंता करने की जरूरत नहीं है। हम जानते हैं कि हमारे देश में खुशी का जो पैमाना है उस को अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को समझने में काफी देर लगेगी। (हिफी)