तीज-त्योहार

उत्तराखण्ड की रामलीला

 

शारदीय नवरात्र के समापन पर विजयदशमी के दिन रावण के पुतले का दहन किया जाता है। प्रभु श्रीराम के चरित्र का चित्रण करने के लिए देश ही नहीं कंबोडिया जैसे विदेश मंे भी रामलीला का मंचन होता है। हमारे देश के उत्तराखण्ड मंे रामलीला का विशेष मंचन देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। यहां के मंदिर भी दर्शनीय हैं।
पूरे देश में नवरात्र की धूम के साथ ही पहाड़ों में भी इन दिनों रामलीला का दौर भी शुरू हो गया है, जो यहां सदियों से पहाड़ के लोगों का मुख्य मनोरंजन के साथ ही धार्मिक आस्था का केंद्र बनी हुई है। पिथौरागढ़ के साथ ही कुमाऊं के अन्य जिलों में भी शारदीय नवरात्र के साथ जगह-जगह रामलीला का आयोजन भी शुरू हो जाता है, जो नवंबर महीने के अंत तक रहता है। कुमाऊं में रामलीला की शुरुआत अल्मोड़ा जिले से मानी जाती है। उत्तराखंड में 125 साल से आयोजित हो रही रामलीला यूनेस्को की धरोहर है। पौड़ी में होने वाली इस रामलीला का प्रदेश में शीर्ष स्थान है। रामलीला वर्ष 1897 में सबसे पहले पौड़ी के स्थानीय लोगों के प्रयास से कांडई गांव में आयोजित हुई थी।यह राम लीला कई मायनों में खास है। कई धर्मों के लोग मिलकर इसके आयोजन में अहम भूमिका निभाते हैं। वहीं इसमें सभी महिला पात्रों को महिलाओं द्वारा ही अभिनीत किया जाता है।

1897 से शुरू हुई इस रामलीला को 1908 में वृहद स्वरूप दिया गया। जिसमें भोलादत्त काला, अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी, क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने अहम भूमिका निभाई। इस रामलीला ने आजादी के बाद समाज में जागरुकता लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्ष 1943 तक रामलीला का मंचन सात दिन तक होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा भी शुरू की गई। इस रामलीला में नौटंकी शैली के अनुसार मंचन किया जाता था लेकिन वर्ष 1945 के बाद इस शैली का स्थान रंगमंच की पारसी शैली ने ले लिया। वर्ष 1957 में पौड़ी का विद्युतीकरण होने के बाद रामलीला मंचन का स्वरूप भी निखरा। इसके संगीत को शास्त्रीयता से जोड़ा गया। स्क्रिप्ट में बागेश्री, विहाग, देश, दरबारी, मालकोस, जैजवंती, जौनपुरी जैसे प्रसिद्ध रागों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया। गीतों के पद हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, अवधी, ब्रज के अलावा अन्य देशज शब्दों की चैपाइयों में तैयार किए गए। कुछ प्रसंग की चैपाइयां ठेठ गढ़वाली में भी प्रस्तुत की गईं।

पिथौरागढ़ में रामलीला की शुरुआत की बात करें, तो 1887 में उस समय के डिप्टी कलेक्टर देवीदत्त मकड़ियां के प्रयासों से शुरू हुई थी। पिथौरागढ़ शहर में दो जगह रामलीला का मंचन होता है, एक रामलीला फील्ड नगरपालिका के पास और दूसरा टकाना रामलीला। जहां भगवान राम के जन्म से लेकर विजयादशमी रावण के मरण तक रामलीला का मंचन होता है। वहीं अन्य जगहों पर दशहरे के बाद तक रामलीला होती रहती है। पहाड़ की रामलीला इस मायने में भी खास हैं, इसमें कलाकार रामायण की घटनाओं को हारमोनियम, तबले और अन्य वाद्ययंत्रों की धुन पर गायन के साथ-साथ अभिनय करते हैं, जिसके लिए एक महीने पहले से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। तालीम के लिए दूर-दूर से कलाकार आते हैं।
पिथौरागढ़ की टकाना रामलीला की बात करें तो यहां कमेटी के अध्यक्ष चन्द्र शेखर महर ने बताया कि 1963 से सरकारी कर्मचारियों द्वारा टकाना में रामलीला का मंचन शुरू हुआ था, जो एभी तक चला आ रहा है। वहीं कमेटी के ही सचिव जीवन लाल वर्मा ने कहा कि रामलीला का आयोजन उनकी संस्कृति का हिस्सा है, जिससे वह 30 साल से जुड़े हैं और इसे आगे बढ़ाने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। पिथौरागढ़ से लगे ग्रामीण इलाकों में विजयादशमी के बाद भी रामलीला का मंचन जारी रहता है, जो यहां पहाड़ों में रामलीला की लोकप्रियता को भी दर्शाता है।

वहीं पौड़ी की रामलीला की खास बात यह है कि इसमें हिंदुओं के साथ मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोग भी हिस्सा लेते हैं। इस रामलीला में दृश्य के अनुरूप सेट लगाए जाते हैं। यहीं कारण है कि हनुमान का संजीवनी बूटी लाते समय हिमालय आकाश मार्ग से उड़ते हुए दिखाया जाना काफी लोकप्रिय है। पूरे उत्तराखंड में पौड़ी की रामलीला में ही सर्वप्रथम महिला पात्रों को रामलीला मंचन में शामिल किया। 2002 से शुरू हुआ यह सिलसिला वर्तमान में भी जारी है।पौड़ी की इस रामलीला ने उत्तराखंड का नाम अंतरराष्ट्रीय पटल पर रोशन किया है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देशभर में रामलीलाओं पर शोध किया। जिसमें फरवरी 2008 में केंद्र ने पौड़ी की रामलीला ऐतिहासिक धरोहर घोषित है। यूनेस्को ने उसे यह मान्यता प्रदान की है। (हिफी)

(पं. आरएस द्विवेदी-हिफी फीचर)

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