अध्यात्म

परिस्थिति के अनुरूप बल का प्रदर्शन (4)

राम के अनन्य भक्त हनुमान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त हैं हनुमान। इनको वर्तमान मंे भी उसी तरह सम्पूजित किया जाता है क्योंकि पौराणिक आख्यानों के अनुसार हनुमान जी, अश्वत्थामा, राजा बलि, परशुराम, विभीषण, वेद व्यास और कृपाचार्य को अजर-अमर होने का वरदान मिला था। त्रेता युग मंे जब राक्षस राज रावण माता सीता का हरण कर लंका ले गया तो उनकी खोज मंे वानरराज सुग्रीव ने अपनी विशाल वानर सेना को चारों तरफ भेजा था। हनुमान जी, अंगद और जाम्बवंत समेत एक दल दक्षिण दिशा मंे खोज के लिए भेजा गया था। इस दल को जटायू के बड़े भाई सम्पाति ने बताया कि सीता जी को रावण ने लंका मंे रखा हुआ है लेकिन सौ योजन समुद्र पार कर जो लंका जा सकता है, वही सीता को खोज पाएगा। अंगद आदि सूर्य वीरों ने असमर्थता जताई तो जाम्बवंत ने हनुमान जी को उनके बल-बुद्धि की याद दिलाई। हनुमान जी लंका पहुंचे माता सीता ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को अजर-अमर होने का वरदान दिया था।
हनुमान जी के आशीर्वचन से ही गोस्वामी तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम का गुणगान रामचरित मानस और अन्य कृतियों मंे किया है। हनुमान चालीसा मंे एक-एक चैपाई और दोहा, महामंत्र के समान है। इसकी विशद् व्याख्या स्वामी जी श्री प्रेम भिक्षु जी महाराज ने की है। इसका सभी लोग पाठन कर सकें, यही हमारा प्रयास है। हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा (हिफी) इस अवसर पर इसका क्रमबद्ध प्रकाशन कर रहा है। -प्रधान सम्पादक

परिस्थिति के अनुरूप बल का प्रदर्शन

हनुमान जी परिस्थिति के अनुरूप अपने बल का प्रदर्शन करते हैं। सुरसा जब परीक्षा लेने आयी तो बुद्धि का बल दिखाया। लंकिनी को ज्ञान का बल और विभीषण को आश्वासन का बल दिखाया। इस प्रकार राम के दूत बनकर हनुमान जी ने बल और बुद्धि दोनों का प्रदर्शन किया। लंकिनी की कुमति का निवारण कर रावण को भी समझाने का प्रयास किया था-

रामदूत अतुलित बलधामा।
अंजनी पुत्र पवन सुत नामा।।

अर्थ- रामजी के दूत, अंजनी के पुत्र तथा पवन-सुत नाम वाले हनुमानजी की जय हो।
भावार्थ– तुलसी के हनुमान तीनों विशेषणों से युक्त हैं। साधारण चरित्र में हनुमान जी कहते हैं-
‘‘दासोऽहं कोशलेन्द्रस्य’’
‘‘मैं अयोध्यापति राम को अपना सर्वस्व अर्पण कर चुका हूँ।’’ अनात्मा जो शरीर है उससे सेवक भाव दर्शाया है और परमात्मा को सर्वस्व अर्पण किया है। उन रामजी के वास्तविक स्वरूप को दर्शाने के लिए ही मैं लंका में आया हूं। भक्त को प्यार, राक्षस को मार और जनक नन्दिनी को आश्वासन, ये तीनों गुण रामजी की प्राप्ति के मुख्य साधन हैं। हनुमानजी का चरित्र रामनाम के आनन्द को अनुभव कराने के लिए ही है। दूत का काम है अपने स्वामी की श्रेष्ठता का प्रदर्शन करना।
लंका जाते समय मैनाक को गले लगाया, ‘‘राम-काज कीन्हें बिना मोहि कहाँ विश्राम।’’ इस प्रकार यहाँ शरणागत से प्यार किया, सुरसा को नमस्कार किया, सिंहका को चीर डाला, लंकिनी को केवल चमाट से ही समझा दिया। विभीषण को अपने कुल की निन्दा करते हुए (कि मैं तो कपि कुल का हूँ। समझाया। यह सब ‘‘बल धामा’’ का अर्थ है। कहीं भक्ति बल, कहीं योगबल, कहीं शरणागत बल दिखाया। जहाँ जिस बल की आवश्यकता हुई वहीं, उस बल से जीव को ईश्वर की अनुभूति कराई।
‘‘अंजनी पुत्र’’-पुत्र शब्द का अर्थ है-कायिक, वाचिक और मानसिक कर्मों से जो पीड़ित है उसके महान कष्टों का निवारण करने की क्षमता रखता हो।
एक बार रावण सैन्य सहित देव लोक में गया। रात्रि में पुंजिकस्थला नाम की अप्सरा ब्रह्मलोक में आकाश मार्ग से जा रही थी। इसके रूप और तेज से मोहित होकर रावण ने उसकी बाँह पकड़ ली। वह उससे बाँह छुड़ाकर ब्रह्माजी के पास पहुँची। ब्रह्मा को उलाहना देते हुए उनसे कहा-‘‘आप दुष्टों को वरदान देते हो जिससे आपकी शरण में रहने वाले दुःख उठाते हैं। ऐसी आधीनता मुझे स्वीकार नहीं।’’ ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर कहा-‘‘आज से यदि रावण किसी स्त्री को उसकी इच्छा के विपरीत छेड़ेगा तो उसके सिर के सौ टुकड़े हो जायेंगे।’’ अप्सरा ने उत्तर दिया-‘‘फिर भी मैं आपके ही आधीन रही, मैं अपना बदला स्वयं लेना चाहती हूँ, आपके आश्रय से नहीं।’’ वही अप्सरा लड़की होकर ‘अंजना नाम से प्रसिद्ध हुई। अंजना का पुत्र हनुमान ही ‘पुत्र’ कहलाने योग्य है। अंजना ने तप करते समय ब्रह्मा, विष्णु और महेश को कहा था कि ‘आपकी शक्ति के बाहर ही मेरा पुत्र होना चाहिए। उस पर आपका शासन न हो।’’ उन्होंने ‘तथास्तु’ कह दिया। भला ऐसी माता का ‘पुत्र’ कहलाने के योग्य कौन हो सकता है? यह है तुलसी के-‘‘अंजनी पुत्र’’।
‘‘पवन सुत’’-पवन ने वरदान देते हुए कहा था-‘‘जैसे मैं अनायास ही इच्छानुसार गमन करता हूँ, पर्वत, वृक्ष, समुद्र और तीनों लोकों को कंपा देता हूँ, वह मैं अपनी बल रूपी शक्ति सब इसे (हनुमानजी को) प्रदान करता हूँ। यह मेरे नाम से प्रसिद्ध होगा।’’
इसलिए ‘‘पवन-सुत’’ कहा गया है।

महावीर विक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।

अर्थ-जो महावीर हैं, जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता और जिनका शरीर वज्र का है, उन अलौकिक बलशाली हनुमानजी का काम है अपने भक्त की कुबुद्धि का निवारण कर सद्बुद्धि प्रदान करना। वे केवल प्रदान ही नहीं करते बल्कि अपना साथी संगी भी बना लेते हैं।
भावार्थ-‘‘महावीर’ का अर्थ है-तीनों लोकांे में जो कार्य असम्भव है उसे बिना परिश्रम के कर सके।
रावण ने कुम्भकर्ण, मेघनाद आदि के मारे जाने पर अपने उद्गार प्रकट किये कि मैंने सुर, असुर, यक्ष, गन्धर्व, नाग, किन्नर आदि के साथ युद्ध कर सबके बल को देख लिया था। बाली के साथ युद्ध होने पर मैंने उससे
मित्रता कर ली थी, परन्तु वानरों के
बल की कभी परीक्षा नहीं ली। आज उसका फल हनुमान द्वारा भोगना पड़ रहा है।
रामजी ने भी यही कहा था-‘‘हे मुनिवर अगस्त्य जी! हनुमान के बल के आगे बाली का बल बाल बराबर भी नहीं था, फिर भी उसने बाली को क्यों नहीं मारा?’’ अगस्त्य जी ने उत्तर दिया-‘‘हनुमानजी त्रिलोक विजयी बाली को क्षण भर में मार सकते थे परन्तु भृगु ऋषि ने हनुमानजी को बालावस्था में श्राप दिया था कि-‘‘तुम अपने बल को भूल जाओगे। जब जानकी जी की खोज में लंका को जाओगे तब वानरों के याद कराने पर तुम्हें अपना बल याद आयेगा। ‘‘केवल जाम्बवंत ही इस श्राप की बात को जानते थे।
जब सुग्रीव को कुम्भकर्ण ने पकड़ लिया था, तब हनुमानजी ने सोचा-‘‘जितना भयंकर यह राक्षस है मैं इससे दुगुना रूप धारण कर इसे एक ही मुक्के में मार डालूँगा। यदि सुग्रीव स्वयं ही उसके फन्दे से छूट जाय, तो उसका मान बना रहेगा। अन्यथा सुग्रीव के बल का भ्रम मिट जायेगा। मैं उसके पीछे-पीछे चलता हूँ।’’
‘‘महानु चासौवीर’’ इसका अर्थ है ‘महावीर’ जिसमें पूर्ण सामथ्र्य भरा हो। संसार में जितने भी शक्तिशाली कहे गये हैं उन सबको ‘महान’ कहा गया है, परन्तु उनके ऊपर भी जिसका सामथ्र्य हो उसे ‘महावीर’ कहते हैं।
‘‘विक्रम‘‘-‘वि’ का अर्थ है, रहित, और ‘क्रम’ का अर्थ है उल्लंघन।
ज्ञान, बल, तेज, शक्ति, वीर्य और पराक्रम ये छः ऐश्वर्य हैं। इन छहों ऐश्वर्यों से सम्पन्न हनुमानजी हैं। इन छह ऐश्वर्यों का उल्लंघन करने वाला (अर्थात् इन ऐश्वर्यों को तुच्छ समझकर हनुमानजी को कमजोर बना देने वाला) संसार में कोई जन्म ही नहीं। इसलिए इनको ‘‘विक्रम’’ से सम्बोधित किया गया है। (हिफी) -क्रमशः
(साभार-स्वामी जी श्री प्रेम भिक्षु महाराज)

 

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