श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-12
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संडांगत्सञजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।। 62।।
क्रोधा˜वति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।। 63।।
विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से (बाधा लगने पर) क्रोध पैदा हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि (विवेक) का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
व्याख्या-विषय भोगों को भोगना तो दूर रहा, उनका रागपूर्वक चिन्तन करने मात्र से साधक पतन की ओर चला जाता है, कारण कि भोगों का चिन्तन भी भोग भोगने से कम नहीं है।
इसलिये हे महाबाहो! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सर्वथा वश में की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्चतो मुनेः।। 69।।
सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मा से विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रह में लगे रहते हैं) वह तत्त्व को जानने वाले मुनि की दृष्टि में रात है।
व्याख्या-अब भगवान् सांख्य योग की दृष्टि से कहते हैं क्योंकि परिणाम में कर्मयोग तथा सांख्य योग एक ही हैं। लोग जिस परमात्मा की तरफ से सोये हुए हैं, वह तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकों की दृष्टि में दिन के प्रकाश के समान है। सांसारिक लोगों का तो पारमार्थिक साधक के साथ विरोध होता है, पर पारमार्थिक साधक का सांसारिक लोगों के साथ विरोध नहीं होता।
‘निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।
सांसारिक लोगों ने तो केवल संसार को ही देखा है, पर पारमार्थिक साधक संसार को भी जानता है और परमात्मा को भी। संसार में रचे-पचे लोग सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही अपनी उन्नति मानते हैं, परन्तु तत्त्वज्ञ महापुरुष और सच्चे साधकों की दृष्टि रात के अन्धकार की तरह है, उसका किंचिन्मात्र भी महत्त्व नहीं है।
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं-
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।। 70।।
जैसे (सम्पूर्ण नदियों का) जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर (समुद्र अपनी मर्यादा मंे) अचल स्थित रहता है, ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को (विकार उत्पन्न किये बिना ही़) प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं।
व्याख्या-जब मनुष्य सर्वथा निष्काम हो जाता है, तब आवश्यक वस्तुएँ उसके पास स्वाभाविक आती हैं, वे उसके हृदय में हर्ष आदि कोई विकार उत्पन्न नहीं करतीं। प्रारब्ध के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल जो भी परिस्थिति प्राप्त होती है, उससे उस तत्त्वज्ञ महापुरुष के अन्तःकरण में किंचिन्मात्र भी राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि विकार उत्पन्न नहीं होते, वह सर्वथा सम रहता है। परन्तु जिसके भीतर सांसारिक कामनाएँ हैं, उसे वस्तुएँ प्राप्त हों या न हों, वह सदा अशान्त ही रहता है।
विह्यय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरित निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।। 71।।
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहारहित, ममता रहित और अहंता रहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।
व्याख्या-जब मनुष्य कामना, स्पृहा, ममता और अहंता से छूट जाता है, तब उसे अपने भीतर नित्य-निरन्तर स्थित रहने वाली शान्ति का अनुभव हो जाता है। मूल में अहंता ही मुख्य है। सबका त्याग करने पर भी अहंता शेष रह जाती है, पर अहंता का त्याग होने पर सबका त्याग हो जाता है। अहंता से राग, राग से आसक्ति, आसक्ति से ममता और ममता से कामना तथा कामना से फिर अनेक प्रकार के विकारों की उत्पत्ति होती है। साधक के लिए पहले ममता का त्याग करना सुगम पड़ता है। ममता का त्याग होने पर कामना, स्पृहा और अहंता का त्याग करने की सामथ्र्य आ जाती है। वास्तव में हम कामना, स्पृहा, ममता और अहंता से रहित है। यदि हम इनसे रहित न होते तो कभी इनका त्याग न कर पाते और भगवान भी इनके त्याग की बात नहीं कहते। सुषुप्ति में अहंता आदि के अभाव का अनुभव सबको होता है, पर अपने अभाव का अनुभव कभी किसी को नहीं होता।
मूल में कामना, स्पृहा, ममता और अहंता की सत्ता है ही नहीं-‘नासतो विद्यते भावः’ हमारा स्वरूप चिन्मय सत्ता मात्र है। चिन्मय सत्ता मात्र में कामना, स्पृहा, ममता और अहंता होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। ये कामना आदि जड़ में ही रहते हैं, चेतन तक पहुँचते ही नहीं। चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। कामना, स्पृहा आदि निरन्तर नहीं रहते, प्रत्युत बदलते रहते हैं-यह सबका अनुभव है। प्रत्येक जन्म में कामना, स्पृहा आदि अलग-अलग थे। इस जन्म में भी बचपन में कामना, स्पृहा आदि अलग थे, अब अलग हैं। हम इन्हें छोड़ते और पकड़ते रहते हैं पहले खिलौनों की कामना थी, फिर रुपयों की कामना हो गयी। पहले माँ में ममता थी, फिर पत्नी में ममता हो गयी। इस प्रकार कामना, स्पृहा, ममता आदि का आना-जाना, उत्पत्ति-विनाश, संयोग-वियोग, आरम्भ-अन्त आदि होता रहता है, पर सत्ता मात्र स्वरूप का आना-जाना आदि होता ही नहीं। जो वस्तु है ही नहीं, उसे हमने पकड़ लिया अर्थात् उसे सत्ता और महत्ता दे दी-यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। इस भूल को मिटाने की जिम्मेवारी हम पर ही है, तभी भगवान् इनका त्याग करने की बात कहते हैं, अन्यथा जो है ही नहीं, उसका त्याग स्वतः सिद्ध है। जो स्वतः सिद्ध है उसे ही प्राप्त करना है। नया निर्माण कुछ नहीं करना है। नया निर्माण ही हमारे बन्धन का, दुःखों का कारण बनता है।(-क्रमशः साभार) (हिफी)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)