अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

मेरे और तेरे के भेद से हुआ महाभारत

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-1

 

श्रीमद् भगवत गीता का प्रबोध-1
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।। 1।।
धृतराष्ट्र बोले-हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने भी क्या किया?
यह हिन्दू संस्कृति की विलक्षणता है कि इसमें प्रत्येक कार्य अपने कल्याण का उद्देश्य सामने रखकर ही करने की प्रेरणा की गयी है। इसलिये युद्ध जैसा घोर कर्म भी ‘धर्मक्षेत्र’ (धर्म भूमि) एवं ‘कुरुक्षेत्र’ (तीर्थभूमि) में किया गया है, जिससे युद्ध में मरने वालों का भी कल्याण हो जाय।
भगवान् की ओर से सृष्टि में कोई भी (मेरे और तेरे का) विभाग नहीं किया गया है। सम्पूर्ण सृष्टि पांच भौतिक है। सभी मनुष्य समान हैं और उन्हें आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी भी समान रूप से मिले हुए हैं। परन्तु मनुष्य मोह के वशीभूत होकर उनमें विभाग कर लेता है कि ये मनुष्य,
घर, गाँव, प्रान्त, देश, आकाश, जल आदि मेरे हैं और ये तेरे हैं। इस ‘मेरे’ और ‘तेरे’ के भेद से ही सम्पूर्ण संघर्ष उत्पन्न होते हैं। महाभारत का युद्ध भी ‘मामकाः’ (मेरे पुत्र) और ‘पाण्डु के पुत्र) इस भेद के कारण आरम्भ
हुआ है।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।। 2।।
उस समय वज्र व्यूह से खड़ी हुई पाण्डव सेना को देखकर और द्रोणाचार्य के पास जाकर राजा दुर्योधन यह वचन बोला।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। 3।।
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूह रचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च दु्रपदश्च महारथः।। 4।।
धृष्टकेतु श्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्ति भोजश्च शैब्यश्च परपुगंवः।। 5।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सोभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।। 6।।
यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, जिनके बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा जो युद्ध मेें भीम और अर्जुन के समान हैं। उनमें युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं। पुरुजित् और कुन्ति भोज-ये (दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र भी हैं। ये सब-के-सब महारथी हैं।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्तिबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीति ते।। 7।।
हे द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में भी जो मुख्य हैं, उन पर भी आप ध्यान दीजिये। आपको याद दिलाने के लिये मेरी सेना के जो नायक हैं, उनको मैं कहता हूँ।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिअंजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च।। 8।।
आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्ध विशारदाः।। 9।।
इनके अतिरिक्त बहुत-से शूरवीर हैं, जिन्होंने मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है, और जो अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने वाले हैं तथा जो सब-के-सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।। 10।।
(द्रोणाचार्य को चुप देखकर दुर्योधन के मन में विचार हुआ कि वास्तव में) हमारी वह सेना पाण्डवों पर विजय करने में अपर्याप्त है, असमर्थ है, क्योंकि उसके संरक्षक (उभय-पक्षपाती) भीष्म हैं। परन्तु इन पाण्डवों की यह सेना हम पर विजय करने में पर्याप्त है, समर्थ है क्योंकि इसके संरक्षक निज सेवा-पक्षपाती भीमसेन हैं।
इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्योधन पाण्डवोें से सन्धि करना चाहता है। परन्तु वास्तव में ऐसी बात है नहीं। दुर्योधन ने कहा है-
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।
मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मुझसे जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।
दुर्योधन हृदय में स्थित जिस देव की बात कहता है? वह वास्तव में कामना ही है। जब वह कामना के वशीभूत होकर उसके अनुसार चलता है तो फिर वह पाण्डवों से सन्धि कैसे कर सकता है? पाण्डव मन के अनुसार नहीं चलते थे, प्रत्युत धर्म के तथा भगवान् की आज्ञा के अनुसार चलते थें इसलिए जब गन्धर्वों ने दुर्योधन को बन्दी बना लिया था, तब युधिष्ठिर के वचन हैं-
परैः परिभवे प्राप्ते वयं पंचोत्तरं शतम्।
परस्पर विरोधे तु वयं पंच शतं तु ते।।
दूसरों के द्वारा पराभव प्राप्त होेने पर उसका सामना करने के लिये हम लोग एक सौ पाँच भाई हैं। आपस में विरोध होेने पर ही हम पाँच भाई अलग हैं और सौ भाई अलग हैं।’
कामना मनुष्यों को पापों में लगाती है परन्तु धर्म मनुष्यों को पुण्य कर्मों मंे लगाता है। (-क्रमशः साभार) (हिफी)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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