अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू, भरत भूमिसुर तेर हुति राजूू।
भल दिन आजु जानि मन माहीं, रामु कृपाल कहत सकुचाहीं।
गुर नृप भरत सभा अवलोकी, सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी।
सील सराहि सभा सब सोची, कहुं न राम सम स्वामि संकोची।
भरत सुजान राम रूख देखी, उठि सप्रेम धरि धीर विसेषी।
करि दंडवत कहत कर जोरी, राखीं नाथ सकल रूचि मोरी।
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू, बहुत भांति दुखु पावा आपू।
अब गोसाइं मोहि देउ रजाई, सेवौं अवध अवधि भरि जाई।
जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीन दयाल
सोसिख देइअ अवधि लगि, कोसल पाल कृपाल।
अगले दिन अर्थात छठवें दिन सबेरे स्नान करके भरत जी, ब्रह्म समाज और राजा जनक आदि सभी एकत्रित हुए। श्रीराम ने सोचा कि आज सभी को विदा करने का अच्छा दिन है लेकिन प्रभु यह कहने में सकुचा रहे हैं। श्रीराम ने गुरू वशिष्ठ, जनक जी और भरत समेत सभी की तरफ देखा लेकिन फिर सकुचाकर दृष्टि फेर ली और पृथ्वी की तरफ देखने लगे। वहां एकत्र लागों ने उनके शील की सराहना करके सोचा कि श्रीरामचन्द्र जी की तरफ संकोची स्वामी और कोई नहीं है। इस समय सुजान भरत जी ने श्रीरामचन्द्र जी का रूख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेष रूप से धीरज धारण कर दण्डवत करके, हाथ जोड़कर कहने लगे कि हे नाथ, आपने मेरी सभी रूचियां रखी हैं मेरे लिए सब लोगों ने संताप सहन किया और आपने भी बहुत प्रकार से दुख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें, मैं 14 वर्ष की अवधि तक अयोध्या की सेवा करूं। हे दीन दयालु जिस उपाय से यह दास फिर चरणों का दर्शन करे-हे कोशलाधीश, हे कृपालु अवधि भर के लिए मुझे वही शिक्षा दीजिए।
पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं, सब सुचि सरस सनेह सगाई।
राउर बदिभल भव दुख दाहू, प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू।
स्वामि सुजानु जानि सबहीं की, रूचि लालसा रहनि जन जीकी।
प्रनत पाल पालिहि सब काहू, देउ दुहू दिसि ओर निवाहू।
अस मोहि सब विधि भूरि भरोसो, किए विचारू न सोचु खरो सो।
आरित मोर नाथ कर छोहू, दुहुं मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू।
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी, तजि सकोच सिखअइ अनुगामी।
भरत विनय सुनि सबहि प्रसंसी, खीर नीर विवरन गति हंसी।
भरत जी कहते हैं कि हे गोसाईं, आपके प्रेम और संबंध से अवधपुर वासी, कुटुंबी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनंद) से युक्त हैं। आपके लिए जन्म-मरण के दुख की ज्वाला में जलना भी अच्छा है और प्रभु आपके बिना परम पद (मोक्ष) भी व्यर्थ है। हे स्वामी आप सुजान हैं। सभी के हृदय की और मुझ सेवक के मन की रूचि, लालसा और रहनि जानकर हे प्रणतपात आप सबका पालन करेंगे और हे देव, दोनों तरफ का ओर-अंत निबाहेंगे। मुझे सब प्रकार से ऐसा बड़ा भरोसा है विचार करने पर तिनके के बराबर भी सोच नहीं रह गयी है। मेरी दीनता और स्वामी के स्नेह मुझे जबर्दस्ती ढीठ बना दिया है। हे स्वामी इस बड़े दोष को दूर करके संकोच त्याग कर मुझ सेवक को शिक्षा दीजिए। दूध और जन को अलग-अलग करने में हंसिनी की गति के समान भरत की विनय सुनकर सभी ने उनकी प्रशंसा की। -क्रमशः (हिफी)

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