अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवान शंकर पार्वती जी को रामकथा सुना रहे हैं। राक्षसों और वानर-भालुओं मंे विकट की लड़ाई हो रही है। निसाचरों के जो प्रमुख हैं उनके मारे जाने पर उनके शव प्रभु श्रीराम के पास लाए जाते हैं। प्रभु श्रीराम उनका भी विधिवत अंतिम संस्कार कराकर अपने धाम में भेज देते हैं। शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि ऐसा कोमल स्वभाव किसका हो सकता है? भगवान राम उन निसाचरों को वह गति दे रहे हैं जो ऋषि-मुनि मांगते हैं। प्रभु कहते हैं कि ये निशाचर दुश्मनी के चलते ही सही लेकिन मेरा स्मरण तो करते हैं। यहां पर यही प्रसंग बताया गया है। अभी तो अंगद और हनुमान जी लंका में किले पर चढ़कर उत्पात कर रहे हैं-
जुद्ध विरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बंदर, राम प्रताप सुमिरि उर अंतर।
रावन भवन चढ़े द्वौ धाई, करहिं कोसलाधीस दोहाई।
कलस सहित गहि भवन ढहावा, देखि निसाचर पति भय पावा।
नारि वृन्द कर पीटहिं छाती, अब दुइ कपि आए उतपाती।
कपि लीला करि तिन्हहिं डेरावहिं, रामचन्द्र कर सुजसु सुनावहिं।
पुनि कर गहि कंचन के खंभा, कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा।
गर्जि परे रिपु कटक मझारी, लागे मर्दै भुलबल भारी।
काहुहि लात चपेटन्हि केहू, भजहु न रामहि सो फल लेहू।
एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड।
रावन आगे परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड।
अंगद और हनुमान युद्ध में शत्रुओं के प्रति बहुत क्रोधित हो गये। हृदय में श्रीराम जी के प्रताप का स्मरण करके दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोशल राज श्रीराम जी की दुहाई बोलने लगे। उन्होंने कलश के साथ महल को पकड़ कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षस राज रावण डर गया। सभी स्त्रियां हाथों से छाती पीटने लगीं और कहने लगीं अब की बार तो दो उत्पाती बानर आ गये हैं। दोनों वानर लीला करके डरा रहे हैं श्रीरामचन्द्र जी का सुंदर यश सुनाते हैं, फिर सोने के खंभों को हाथों से पकड़कर अंगद और हनुमान ने आपस में कहा कि अब उत्पात आरंभ किया जाए। ऐसा कहते हुए वे दोनों गर्ज कर शत्रु की सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से निशाचरों का मर्दन करने लगे। वे किसी की लात से तो किसी को थप्पड़ मारकर कहते हैं कि तुम श्रीरामचन्द्र जी का भजन नहीं करते उसका यह फल लो। एक को दूसरे से रगड़कर मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं मानो दही के मटके फूट रहे हों।
महा महा मुखिया जे पावहिं, ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं।
कहइ विभीषनु तिन्ह के नामा, देहिं राम तिन्हहू निज धामा।
खल मनुजाद द्विजामिष भोगी, पावहिं गति जो जाचत जोगी।
उमा राम मृदुचित करुनाकर, बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर।
देहिं परम गति सो जियं जानी, अस कृपाल को कहहु भवानी।
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी, नर मतिमंद ते परम अभागी।
अंगद अरु हनुमंत प्रवेसा, कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा।
लंका द्वौ कपि सोहहिं कैसे, मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसे।
भुजबल रिपुदल दलमलि देखि दिवस कर अंत।
कूदे जुगल विगत श्रम आए जहं भगवंत।
वानर श्रेष्ठ हनुमान जी एवं अंगद बड़े-बड़े मुखिया राक्षस (सेना पतियों) को पकड़ पाते हैं तो उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु श्रीराम के पास फेंक देते हैं। विभीषण जी उनके नाम बतलाते हैं और श्रीराम जी उन्हें भी अपना धाम अर्थात परम पद दे देते हैं। शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभक्षी राक्षस भी वह परम गति प्राप्त कर रहे हैं जिसकी योगी भी प्रार्थना करते रहते हैं लेकिन सहज भाव से नहीं पाते। हे उमा श्री रामजी बहुत ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। वे सोचते हैं कि राक्षस भी मुझे वैर भाव से ही सही, स्मरण तो करते हैं। ऐसा हृदय मंे जानकर वे उन्हें परम गति अर्थात मोक्ष देते हैं। हे भवानी, कहो तो ऐसे कृपालु और कौन हैं। प्रभु श्रीराम का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्यागकर उनका भजन नहीं करते वे अत्यंत मंद बुद्धि और परम भाग्यहीन हैं।
श्रीराम युद्ध की गति विधि पर बराबर नजर रखे हैं। वह कहते हैं देखो अंगद और हनुमान किले में घुस गये हैं। दोनों वानर लंका में विध्वंस करते इस तरह शोभा दे रहे हैं जैसे दो मंदराचल समुद्र को मथ रहे हों। उधर भुजाओं के बल से शत्रु सेना को कुचलकर और मसलकर फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान और अंगद दोनों किले के ऊपर से नीचे आ गये।
प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए, देखि सुभट रघुपति मन भाए।
राम कृपा करि जुगल निहारे, भए विगत श्रम परम सुखारे।
गए जानि अंगद हनुमाना, फिरे भालु मर्कट भट नाना।
जातुधान प्रदोष बल पाई, धाए करि दससीस दोहाई।
निसिचर अनी देखि कपि फिरे, जहं तहं कटकटाइ भट भिरे।
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी, लरत सुभट नहिं मानहिं हारी।
महावीर निसिचर सब कारे, नाना बरन बली मुख भारे।
सबल जुगल दल समबल जोधा, कौतुक करत लरत करि क्रोधा।
प्राविट सरद पयोद घनेरे, लरत मनहु मारुत के प्रेरे।
अनिप अकंपन अरु अति काया, बिचलत सेन कीन्ह इन्ह माया।
भयउ निमिष महं अति अंधियारा, वृष्टि होइ रुधिरोपल छारा।
देखि निबिड़तम दसहुं दिसि, कपि दल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहं तहं करहिं पुकार।
अंगद और हनुमान ने प्रभु श्रीराम के चरण कमलों में सिर नवाया। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथ जी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा जिससे वे थकावट से रहित और परम सुखी हो गये। उधर, अंगद और हनुमान जी को युद्ध से वापस लौटे जानकर बानर और भालू योद्धा भी लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष एवं संध्या समय का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए बानरों पर धावा बोल दिया। राक्षसों की सेना आते हुए देखकर बानर लौट पड़े और वे योद्धा जहां-तहां कट कटाकर भिड़ गये। दोनों ही दल बड़े बलवान हैं। योद्धा ललकार-ललकार कर लड़ रहे हैं, कोई हार नहीं मानते। सभी राक्षस महा बलवान और अत्यंत काले हैं और बानर विशाल काय तथा अनेक रंगों के हैं। दोनों ही दल बलवान हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और अपनी-अपनी वीरता दिखाते हैं। राक्षस और बानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं मानों वर्षा और शरद ऋतु के बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेना पतियों ने अपनी सेना को बिचलित होते देखकर माया (जादू) किया। पल भर में अत्यंत अंधकार हो गया। खून-पत्थर और राख की बारिश होने लगी दशों दिशाओं में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली मच गयी। एक को दूसरा दिखाई नहीं पड़ रहा था, सभी जहां-तहां पुकार रहे थे। -क्रमशः (हिफी)

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