जेहि समान अतिसय नहिं कोई, ता कर सील कस न अस होई।
हरि अनंत हरि कथा अनंता(251) पुनि आए जहं मुनि सरभंगा

प्रभु श्रीराम भाई लक्ष्मण और सीता जी के साथ चित्रकूट का वन छोड़कर जा रहे हैं। महामुनि अत्रि उनकी तारीफ करते हैं रास्ते में विराध असुर मिलता है जिसका प्रभु श्रीराम ने वध किया। श्राप वश वह राक्षस बना था, इसलिए उसे दुखी देखकर अपने परम धाम को भेज दिया। इसके बाद प्रभु श्रीराम शरभंग ऋषि के आश्रम में पहुंचते हैं। शरभंग मुनि अपनी तपस्या और व्रत आदि प्रभु को समर्पित करके आत्मदाह कर लेते हैं। इस प्रसंग में यही कथा बतायी गयी है। अभी तो अत्रि मुनि श्रीराम को विदा कर रहे हैं-
अब जानी मैं श्री चतुराई, भजी तुम्हहि सब देव बिहाई।
जेहि समान अतिसय नहिं कोई, ता कर सील कस न अस होई।
केहि विधि कहौं जाहु अब स्वामी, कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी।
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि
धीरा, लोचन जल बह पुलक सरीरा।
तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए।
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावईं।
रघुवीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावईं।
कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल।
कठिन कालमल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर।
महामुनि अत्रि कहते हैं कि अब मैंने लक्ष्मी जी की चतुराई को समझा, जिन्होंने सब देवताओं को छोड़कर आपको ही क्यों भजा अर्थात् पूजा की। इसका कारण है कि आपके समान सब बातों में अत्यन्त बड़ा और कोई नहीं है और उस व्यक्ति का शील भला ऐसा क्यों न होगा। अत्रि जी कहते हैं कि मैं किस प्रकार कहंू कि हे स्वामी आप अब जाइए। हे नाथ, आप अन्तरयामी हैं, आप ही यह कह सकते हैं। ऐसा कहकर धैर्यवान मुनि श्रीराम की तरफ देखने लगे। मुनि के नेत्रों से जल बह रहा है और शरीर पुलकित हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि अत्रि मुनि प्रेम से अत्यन्त पूर्ण हैं उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों को श्रीराम जी के मुख कमल की ओर लगाये हुए हैं। वे मन में विचार रहे हैं कि मैंने ऐसे कौन से जप-तप किये थे, जिसके कारण मन, ज्ञान और युग व इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाये। जप-जोग और
धर्म समूह से मनुष्य अनुपम भक्ति को पाता है। श्री रघुवीर के पवित्र चरित्र को तुलसीदास रात दिन गाता है।
श्री रामचन्द्र जी का सुन्दर यश कलियुग के पापों का नाश करने वाला, मन को दमित करने वाला ओर सुखों का मूल है, जो लोग आदरपूर्वक सुनते हैं उन पर श्रीरामजी प्रसन्न रहते हैं। यह कठिन कलिकाल पापों का खजाना है। इसमें न धर्म है, न ज्ञान है और न योग तथा जप है। इसमें तो जो लोग सभी भरोसों को छोड़कर श्रीरामजी को ही भजते हैं, वे ही चतुर हैं।