अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

भगवान के सर्वश्रेष्ठ उपासक

गीता-माधुर्य-25

 

गीता-माधुर्य-25
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः।।
बारहवाँ अध्याय
अर्जुन बोले- अभी आपने जैसा कहा है, कई तो निरन्तर आपमें लगे रहकर आप (सगुण-साकार) की उपासना करते हैं और कई आपके अक्षर अव्यक्त रूप (निर्गुण-निराकार) की उपासना करते हैं। उन दोनों प्रकार के उपासकों में कौन-से उपासक श्रेष्ठ हैं ?।। 1।।
भगवान् बोले- मुझमें मन को लगाकर नित्य निरन्तर मुझमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, उनको मैं सर्वश्रेष्ठ उपासक मानता हूँ।। 2।।
परन्तु जो आपके अव्यक्त रूप की उपासना करते हैं, उनको?
सब जगह समबुद्धि वाले और प्राणि मात्र के हित में रत रहने वाले जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों का संयम करके सब जगह परिपूर्ण, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल, अनिर्देश्य, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त की उपासना करते हैं, वे भी मुझे ही प्राप्त होते हैं।। 3-4।।
तो फिर आपकी भक्ति करनेवाले श्रेष्ठ कैसे हुए भगवन्?
अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले जो मनुष्य अव्यक्त स्वरूप की उपासना करते हैं, उनको अपने साधन में कष्ट अधिक होता है; क्योंकि देहाभिमानियों को अव्यक्त की प्राप्ति बड़ी कठिनता से होती है। परन्तु जो सम्पूर्ण कर्मों को मुझ में अर्पण करके मेरे परायण हो गये हैं और अनन्यभाव से मेरा ही ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, हे पार्थ! उन मुझमें लगे हुए चित्त वाले भक्तों का मैं स्वयं मृत्यु रूप संसार सागर से बहुत जल्दी उद्धार करने वाला बन जाता हूँ।। 5-7।।
ऐसा भक्त मैं कैसे बन सकता हूँ भगवन्?
तू मुझमें ही मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा। मुझमें ही मन-बुद्धि लगाने के बाद तू मुझमें ही निवास करेगा- इसमें संशय नहीं है। अगर इस तरह मन-बुद्धि को मुझमें स्थिर करने में तू असमर्थ है तो हे धनंजय! तू अभ्यास योग के द्वारा मेरी प्राप्ति की इच्छा कर। अगर तू अभ्यास योग में भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करने के परायण हो जा। मेरे लिये कर्म करने से भी तू सिद्धि को प्राप्त हो जायगा। अगर तू मेरे लिये कर्म करने में भी असमर्थ है। तो मन, बुद्धि को वश में रखते हुए सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग कर।। 8-11।।
इस क्रमसे तो कर्मों के फलका त्याग करना चैथे नम्बर का (निकृष्ट) साधन हुआ न भगवन्?
नहीं भैया, योग (समता)- रहित अभ्यास से शास्त्रीय ज्ञान श्रेष्ठ है, योगरहित शास्त्रीय ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और योग रहित ध्यान से कर्मों के फलका त्याग करना श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग से तत्काल ही परमशान्ति प्राप्त हो जाती है।। 12।।
भगवन! उपर्युक्त चारों साधनों में से किसी एक साधन से आपको प्राप्त हुए सिद्ध भक्त के क्या लक्षण होते हैं अर्थात् उसमें कौन-कौन से गुण होते हैं?
उसका किसी भी प्राणी के साथ द्वेष नहीं होता। इतना ही नहीं, उसकी सम्पूर्ण प्राणियों के साथ मित्रता (प्रेम) और सबपर करुणा (दयालुता) रहती है। वह अहंता और ममता से रहित, क्षमाशील तथा सुख-दुःख की प्राप्ति में सम रहता है। वह हरेक परिस्थिति में निरन्तर सन्तुष्ट रहता है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि उसके वश में रहते हैं। उसके मन- बुद्धि मेरे ही अर्पित रहते हैं। ऐसा वह दृढ़ निश्चयी भक्त मुझे प्यारा है।। 13-14।।
और कौन आपका प्यारा है?
जिस भक्त से दूसरों को उद्वेग नहीं होता और जिसको खुद भी दूसरों से उद्वेग नहीं होता, ऐसा हर्ष, ईष्र्या, भय और उद्वेग से रहित भक्त मुझे प्यारा है।। 15।।
और कौन आपका प्यारा है भगवन्?
जो अपने लिये किसी भी वस्तु, व्यक्ति आदि की आवश्यकता नहीं रखता, जो बाहर भीतर से पवित्र है, जो दक्ष (चतुर) है अर्थात् जिसके लिये मनुष्य शरीर मिला है, वह काम (भगवान को प्राप्त करना) उसने कर लिया है, जो संसार से उपराम रहता है, जिसके हृदय में हलचल नहीं होती तथा जो भोग और संग्रह के लिए किये जाने वाले सम्पूर्ण कर्मों का सर्वथा त्यागी है, ऐसा भक्त मुझे प्यारा है।। 16।।
और कौन आपका प्यारा है?
जो न तो अनुकूलता के प्राप्त होने पर हर्षित होता है और न प्रतिकूलता के प्राप्त होने पर द्वेष करता है तथा जो न दुःखदायी परिस्थिति के प्राप्त होने पर शोक करता है और न सुखदायी परिस्थिति की इच्छा ही करता है तथा जो शुभ-अशुभ कर्मों में राग-द्वेष का त्यागी है, ऐसा भक्त मुझे प्यारा है।। 17।।
और कौन आपका प्यारा है भगवन्?
जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, अनुकूलता-प्रतिकूलता और सुख-दुःख में समता रखने वाला और संसार की आसक्ति से रहित है, जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला है, जो मननशील है, जो जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सन्तुष्ट है, जो रहने के स्थान तथा शरीर में भी ममता- आसक्ति से रहित है और जो स्थिर बुद्धिवाला है, ऐसा भक्त मुझे प्यारा
है।। 18-19।।
अभी तक तो आपने अपने सिद्ध भक्तों को प्यारा बताया, अब यह बताइये कि आपको अत्यन्त प्यारा कौन है?
जो श्रद्धा-प्रेम पूर्वक मेरे परायण हो गये हैं और अभी कहे हुए सिद्ध भक्तों के लक्षणों का रुचि पूर्वक सेवन करने वाले हैं, ऐसे साधक भक्त मुझे अत्यन्त प्यारे हैं।। 20।। (हिफी) (क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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