अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

भगवान ने बतायीं दिव्य विभूतियां

 

गीता-माधुर्य-22
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

आपकी वे दिव्य विभूतियाँ कौन-सी हैं भगवन्?
हे गुडाकेश! सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में भी मैं ही हूँ और प्राणियों के अन्तःकरण में आत्मरूप से भी मैं ही स्थित हूँ। अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) और प्रकाशमान चीजों में किरणों वाला सूर्य मैं हूँ। मरुतों का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा मैं हूँ। वेदों में सामवेद, देवताओं में इन्द्र, इन्द्रियों में मन और प्राणियों की चेतना (प्राणशक्ति) मैं हूँ। रुद्रों में शंकर, यक्ष-राक्षसों में कुबेर, वसुओं में अग्नि और शिखर वाले पर्वतों में मेरु मैं हूँ। हे पार्थ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझ।
और आपकी कौन-सी विभूतियाँ हैं?
सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ। महर्षियों में भृगु, वाणियों (शब्दों) में एक अक्षर (प्रणव), सम्पूर्ण यज्ञों में जपयज्ञ और स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ। सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि मैं हूँ। घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मान।। 20-27।।
और किनको आपकी विभूतियाँ मानूँ भगवन्?
अस्त्र-शस्त्रों में और धेनुओं में कामधेनु मैं हूँ । धर्मके अनुकूल सन्तानोत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पों में वासुकि मैं हूँ। नागों में शेषनाग, जल- जन्तुओं का अधिपति वरुण, पितरों में अर्यमा और शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ। दैत्यों में प्रह्लाद, गणना करने वालों में काल, पशुओं में सिंह और पक्षियों में गरुड़ मैं हूँ। पवित्र करने वालों में वायु शस्त्रधारियों में राम, जल-जन्तुओं में मगर और बहने वाले स्रोतों में गंगाजी मैं हूँ।। 28-31।।
और आप किन किन में हैं ?
हे अर्जुन! सम्पूर्ण सर्गों के आदि, मध्य और अन्त में मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्म विद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करने वालों का तत्त्व निर्णय के लिये किया जाने वाला वाद मैं हूँ। अक्षरों में अकार और समासों में द्वन्द्व समास मैं हूँ। अक्षय काल अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला धाता भी मैं
हूँ।। 32-33।।
और आप किन-किन रूपों में हो ?
सबका हरण करने वाली मृत्यु और उत्पन्न होने वालों की उत्पत्ति का हेतु मैं हूँ । स्त्री जाति में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति और क्षमा मैं हूँ। गायी जाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम और वैदिक छन्दों में गायत्री छन्द हूँ। बारह महीनों में मार्गशीर्ष और छः ऋतुओं में वसन्त मैं हूँ। छल करने वालों में जुआ और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ। जीतने वालों की विजय, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव मैं हूँ।। 34-35।।
और आपके कौन-से स्वरूप हैं भगवन्?
वृष्णिवंशियों में वासुदेव, पाण्डवों में धनंजय (तू), मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य मैं हूँ। दमन करने वालों में दण्ड, विजय चाहने वालों में नीति, गोपनीय भावों में मौन और ज्ञानवानों में ज्ञान मैं हूँ। और तो क्या कहूँ, सम्पूर्ण प्राणियों का बीज (कारण) मैं ही हूँ, क्योंकि हे अर्जुन! मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है अर्थात् चर-अचर सब कुछ मैं ही हूँ।। 37-39।।
क्या आपने अपनी पूरी विभूतियाँ कह दीं?
नहीं परंतप मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा है, वह तो केवल संक्षेप से कहा है; क्योंकि मैं अपनी विभूतियों को पूरी तरह तो कह ही नहीं सकता।। 40।।
फिर भी आपकी विभूतियों की खास पहचान क्या है भगवन्?
संसार मात्र में जो जो भी ऐश्वर्य युक्त, शोभा युक्त और वस्तु है, उस उसको तू मेरे ही तेज (योग) – के किसी अंश से उत्पन्न हुई समझ। अरे भैया अर्जुन! सम्पूर्ण जगत् (अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों) को अपने किसी एक अंश में व्याप्त करके मैं तेरे सामने हाथ में लगाम और चाबुक लिये बैठा हूँ, तेरी आज्ञा का पालन करता हूँ, फिर तुझे इस प्रकार की बहुत बातें जानने की क्या जरूरत
है?।। 41-42।।
। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः।।
ग्यारहवाँ अध्याय
अर्जुन बोले-हे भगवन! केवल मुझपर कृपा करने के लिये ही आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक बात (सबके मूल में मैं हूँ) कही है, उससे मेरा मोह चला गया है। हे कमलनयन! मैंने आपसे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय की बातें सुनीं तथा आपका अविनाशी माहात्म्य भी विस्तार से सुना।। 1-2।।
अब तुम और क्या चाहते हो?
हे पुरुषोत्तम ! आप अपने को जैसा कहते हैं, बात वास्तव में ठीक ऐसी ही है। अब हे परमेश्वर! मै आपका वह परम ऐश्वर्यरूप देखना चाहता हूँ, जिसके एक अंश में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड व्याप्त हैं। परन्तु हे प्रभो! मेरे द्वारा आपका वह परम ऐश्वर्यरूप देखा जा सकता है। ऐसा अगर आप मानते हैं तो हे योगेश्वर! आप अपने उस अविनाशी स्वरूप को मुझे दिखा दीजिये न।। 3-4।।
भगवान् बोले- हे पार्थ! तू मेरे एक रूपको ही क्यों, मेरे सैकड़ों-हजारों रूपों को देख, जो कि दिव्य हैं, अनेक प्रकार के हैं, अनेक रंगों के हैं और अनेक तरह की आकृतियों के हैं।। 5।।
और क्या देखूं भगवन्?
हे भारत! तू आदित्यों को, वसुओं को, रुद्रों को, अश्विनी कुमारों को तथा मरुतों को भी देख। जिन रूपों को तूने पहले कभी नहीं देखा है, ऐसे बहुत-से आश्चर्यजनक रूपों को भी तू देख।। 6।।
मैं कहाँ देखूं?
हे नींद को जीतने वाले अर्जुन! मेरे इस शरीरके किसी भी एक अंश में चराचर सहित सम्पूर्ण जगत को तू अभी देख। अगर इसके सिवाय तू और भी कुछ देखना चाहता है तो वह भी तू देख।। 7।।
आप तो बार-बार ‘तू देख, तू देख’ ऐसा कह रहे हैं, पर मुझे तो वह नहीं दीख रहा है, कैसे देखूँ?
भैया! तू अपने इस चर्मचक्षु से मुझे नहीं देख सकता। ले! मैं तुझे दिव्यचक्षु देता हूँ, उससे तू मेरी इस ईश्वर सम्बन्धी सामर्थ्य को देख।। 8।। (हिफी) (क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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