अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

कर्म और अकर्म

गीता-माधुर्य-11

गीता-माधुर्य-11
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

जैसे मनुष्य कर्मजन्य सिद्धि के उद्देश्य से देवताओं की उपासना करते हैं अर्थात् शुभकर्म करते हैं, ऐसे ही आप भी किसी फल के उद्देश्य से किसी कार्य को करते होंगे?
मैं जीवों के गुणों और कर्मों के अनुसार चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की रचना करता हूँ परन्तु मैं यह सृष्टि रचना आदिका कार्य कर्तृत्व और फलेच्छा रहित होकर ही करता हूँ, इस लिये वे कर्म मुझे बाँधते नहीं। इतना ही नहीं, इस प्रकार मुझे तत्त्वसे जानने वाले भी कर्मोंसे कभी बँधते नहीं।।। 13-14।।
इस प्रकार किसी ने कर्म किये भी हैं क्या?
हाँ, पहले जो मुमुक्षु हुए हैं, उन्होंने भी इस प्रकार (कर्म के तत्त्व को) जानकर कर्म किये हैं। इसलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को उन्हीं की तरह कर।। 15।।
जिस कर्म को मुमुक्षुओं ने किया है और जिस कर्म को करने के लिये आप आज्ञा दे रहे हैं, वह कर्म क्या है?
कर्म क्या है और अकर्म क्या है- इस विषय में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं। अब मैं वही कर्म तत्त्व तुझे बताता हूँ, जिसको जानकर तू संसार-बन्धन से मुक्त हो जायगा। वह कर्म तीन प्रकार का है-कर्म, अकर्म और विकर्म । इन तीनों के तत्त्व को जरूर जानना चाहिये; क्योंकि कर्मों का तत्त्व बड़ा ही गहन (गहरा ) है।। 16-17।।
कर्म और अकर्म के तत्त्व को जानना क्या है?
कर्म में अकर्म देखना और अकर्म में कर्म देखना अर्थात् कर्म करते हुए निर्लिप्त रहना और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करना – इस रीति से सम्पूर्ण कर्म करने वाला ही योगी है, बुद्धिमान् है।। 18।।
वह बुद्धिमानी क्या है?
जिसके सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामना से रहित होते हैं तथा जिसके सम्पूर्ण कर्म ज्ञानाग्नि से जल जाते हैं, उसको ज्ञानिजन भी पण्डित (बुद्धिमान् ) कहते हैं अर्थात् यही उसकी बुद्धिमानी है।। 19।।
ऐसे पुरुषकी स्थिति क्या होती है?
वह कर्म तथा कर्मफल की आसक्ति से और उनके आश्रय से रहित होता है तथा सदा तृप्त रहता है। इसलिये वह सब कुछ करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।। 20।।
अगर साधक निवृत्ति परायण हो, तो?
शरीर और अन्तःकरण को वश में करने वाला, सब प्रकार के संग्रह का त्याग करने वाला और संसार की आशा से रहित साधक केवल शरीर सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं।। 21।।
अगर कोई साधक प्रवृत्ति परायण हो, तो?
वह भी जैसी परिस्थिति आती है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, ईष्र्या और द्वन्द्वों से रहित होता है तथा सिद्धि-असिद्धि में सम रहता हुआ कर्म करके भी नहीं बँधता। इतना ही नहीं, जो आसक्ति रहित और स्वाधीन है तथा जिसका निश्चय केवल परमात्मा को प्राप्त करने का ही है, ऐसे केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले साधक के सम्पूर्ण कर्म विलीन ( अकर्म ) हो जाते हैं।। 22-23।।
वह यज्ञ कितने प्रकार का होता है भगवन्?
1- जिसमें सम्पूर्ण करण, उपकरण, सामग्री, क्रिया, कर्ता आदि ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं, वह ब्रह्मयज्ञ है।
2- जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ, क्रिया आदि मेरे अर्पण हो जाती है, वह भगवदर्पण रूप यज्ञ है।
3- जिसमें साधक अपने-आपको ब्रह्म में एक कर देता है, वह अभिन्नता रूप यज्ञ है।
4- जिसमें साधक अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम कर लेता है, उनको अपने-अपने विषयों से हटा लेता है, वह संयम रूप यज्ञ है।
5- जिसमें साधक राग-द्वेषरहित इन्द्रियों से विषयों का सेवन करता है, वह विषय हवनरूप यज्ञ है।
6- प्राणों, इन्द्रियों और मनकी क्रियाओं को रोककर बुद्धि की जागृति रहते हुए निर्विकल्प हो जाना समाधिरूप यज्ञ है।
7-लोकोपकार के लिये अपना धन खर्च करना द्रव्ययज्ञ है।
8- अपने धर्मका पालन करने में जो कठिनता आती है, उसको प्रसन्नतापूर्वक सहना तपोयज्ञ है।
9- कार्य की सिद्धि और असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति और अप्राप्ति में सम रहना योगयज्ञ है।
10- सत्-शास्त्रोंका पठन-पाठन तथा नाम-जप आदि करना स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ है।
11- पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक ’ प्राणायाम करना प्राणायामरूप यज्ञ है।
12- नियमित आहार करते हुए प्राणों को अपने-अपने स्थानों में ही रोक देना स्तम्भ वृत्ति प्राणायामरूप यज्ञ है।
ये सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये ही हैं- ऐसा जानकर इन यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले साधक के सम्पूर्ण पापों का नाश हो जाता है।। 24-30।।
पापों का नाश होने पर क्या होता है भगवन्?
हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! उन यज्ञ करने वालों को अमृतस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो यज्ञ करता ही नहीं, उसके लिये यह मनुष्यलोक भी लाभदायक नहीं होता, फिर परलोक कैसे लाभदायक हो सकता है?।। 31।।
ऐसे यज्ञों का वर्णन और कहाँ हुआ है?
इस प्रकार के और भी कई तरह के यज्ञों का वर्णन वेदों में विस्तार से हुआ है। उन सब यज्ञों को तू कर्मजन्य (कर्मों से होने वाले) जान। इस प्रकार जानकर यज्ञ करने से तू कर्मबन्धन से तू मुक्त हो जायगा।। 32।।
सब यज्ञोंमें श्रेष्ठ यज्ञ कौन-सा है भगवन्?
हे परंतप ! उन सब कर्मजन्य यज्ञोंसे ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि ज्ञानयज्ञमें सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ समाप्त हो जाते हैं।। 33।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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