धर्म-अध्यात्म

काम, क्रोध व लोभ हैं नरक के द्वार

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
गीता-माधुर्य-31
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक
उनका अधम योनि में और अधम गति (नरक) में जाने का प्रधान कारण क्या है भगवन्?
काम, क्रोध और लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे मनुष्य का पतन करने वाले हैं। इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।। 21।।
इनका त्याग करने से क्या होगा?
हे कौन्तेय! जो मनुष्य नरक के इन तीनों द्वारों से रहित होकर अपने कल्याण का आचरण करता है अर्थात् जो शास्त्रनिषिद्ध आचरण का त्याग करके केवल अपने कल्याण के उद्देश्य से निष्काम भावपूर्वक विहित आचरण करता है, वह परम गति को प्राप्त हो जाता है।। 22।।
परमगति की प्राप्ति किसको नहीं होती?
जो शास्त्रविधि का त्याग करके अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है अर्थात् अपने मनसे जिस काम को अच्छा समझता है, वह करता है और जिसको अच्छा नहीं समझता, वह नहीं करता, ऐसे मनुष्य को न तो सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) प्राप्त होती है, न सुख प्राप्त होता है और न परमगति ही प्राप्त होती है।। 23।।
अच्छे और बुरे काम की पहचान कैसे हो?
कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में शास्त्र ही प्रमाण है- ऐसा जानकर तुझे शास्त्रविधि से नियत किये हुए कर्तव्यकर्म को ही करना चाहिये अर्थात् शास्त्र को सामने रखकर ही हरेक काम करना चाहिये।। 24।।
।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।
सत्रहवाँ अध्याय
अर्जुन बोले- हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्र विधि को न जानकर श्रद्धा पूर्वक यजन-पूजन करते हैं, उनकी श्रद्धा सात्त्विकी होती है अथवा राजसी या तामसी?।। 1।।
भगवान् बोले- मनुष्यों की स्वभाव से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा सात्त्विकी, राजसी और तामसी-ऐसे तीन प्रकार की होती है।। 2।।
वह स्वभावजा श्रद्धा तीन प्रकार की क्यों होती है?
हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है इसलिये जो जैसी श्रद्धा वाला है, वैसा ही उसका स्वरूप है अर्थात् वैसी ही उसकी निष्ठा (स्थिति) है।। 3।।
उस श्रद्धा (निष्ठा) की पहचान कैसे हो?
सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं। राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसों का तथा तामस मनुष्य भूत-प्रेतों का पूजन करते हैं।। 4।।
अश्रद्धालु मनुष्यों की पहचान क्या है भगवन्?
अश्रद्धालु मनुष्य दम्भ, अहंकार, कामना, आसक्ति और हठ से युक्त होकर शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं और अपने पांच भौतिक शरीर को तथा (मुझसे विरुद्ध चल करके) अन्तःकरण में स्थित मुझे भी कष्ट देते हैं। ऐसे अज्ञानी मनुष्यों को तू आसुर स्वभाव वाले समझ।। 5-6।।
अभी तक आपने पूजन और तप से श्रद्धालु और अश्रद्धालु मनुष्यों की पहचान बतायी; परन्तु जो पूजन, तप आदि नहीं करते, उनकी पहचान किससे होगी?
भोजन की रुचि से उनकी पहचान हो जाएगी; क्योंकि भोजन तो सभी करते ही हैं; अतः सबको आहार भी तीन तरह का प्रिय होता है। ऐसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन तरह के प्रिय होते हैं, उनके इस भेद को तू सुन।। 7।।
सात्त्विक मनुष्य की रुचि किस आहार में होती है?
आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता को बढ़ाने वाले, स्थिर रहने वाले, हृदय को बल देने वाले, रसयुक्त और चिकने-ऐसे भोजन के पदार्थ सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं।। 8।।
राजस मनुष्य की रुचि किस आहार में होती है?
अधिक कड़वे, खट्टे, नमक वाले, गरम, तीखे, रूखे और दाहकारक भोजन के पदार्थ राजस मनुष्य को प्रिय होते हैं, जो कि दुःख, शोक और रोग को देने वाले हैं।। 9।।
तामस मनुष्य की रुचि किस आहार में होती है?
अधपके, रसरहित, दुर्गन्धित (मदिरा, प्याज, लहसुन आदि) बासी, उच्छिष्ट (जूठे) और महान् अपवित्र (मांस, मछली, अण्डा आदि) भोजन के पदार्थ मनुष्य को प्रिय होते हैं।। 10।।
अभी आपने यज्ञ, तप और दान के भी तीन-तीन भेद सुनने की आज्ञा दी थी। अतः अब यह बताइये कि यज्ञ तीन प्रकार का कैसे होता है?
यज्ञ करना कर्तव्य है- इस तरह मनको समाधान (सन्तुष्ट) करके फलेच्छा रहित मनुष्यों के द्वारा शास्त्र विधि के अनुसार जो यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक होता है।। 11।।
राजस यज्ञ कैसे होता है भगवन्?
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! जो यज्ञ फलकी इच्छा से अर्थात् अपने स्वार्थ के लिए किया जाय अथवा केवल लोगों को दिखाने के लिये किया जाय, उसको तू राजस समझ।। 12।।
तामस यज्ञ कैसे होता है?
जो यज्ञ शास्त्र विधि से हीन, अन्न-दानसे रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किया जाता है, वह तामस कहलाता है।। 13।।
भगवन! अब यह बताइये कि तप कितने प्रकार का होता है?
तप तीन प्रकार का होता है- शरीर का, वाणी का और मन का। देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुषों का पूजन करना, जल, मिट्टी आदि से शरीर को पवित्र रखना, शारीरिक क्रियाओं को सीधी-सरल रखना अर्थात् ऐंठ-अकड़ न रखना; ब्रह्मचर्य का पालन करना और शरीर से किसी को भी किसी तरह का कष्ट न देना-यह शरीर का तप है।। 14।।
वाणी का तप कैसे होता है?
उद्वेग न करने वाले, सत्य, प्रिय और हित कारक वचन बोलना,
स्वाध्याय, करना और अभ्यास (नाम-जप आदि) करना-यह वाणी का तप
है।। 15।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

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