अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

प्रकृति और पुरुष दोनों अनादि

गीता-माधुर्य-26

 

गीता-माधुर्य-26
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

उसका स्वरूप क्या है?
इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के द्वारा जितने ज्ञान होते हैं, वे सभी उसीसे प्रकाशित होते हैं। इसलिये वह सम्पूर्ण ज्योतियों (ज्ञानों) का भी ज्योति (प्रकाशक) है। उसमें अज्ञान का अत्यन्त अभाव है। वह ज्ञानस्वरूप है। जानने योग्य भी वही है। वह ज्ञान (साधन-समुदाय ) से प्राप्त करने योग्य है। वह सबके हृदयमें विराजमान है।। 17।।
और किस-किसको जानना है और जानने का क्या माहात्म्य है भगवन्?
क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय-इन तीनों को जानना है, जिनका वर्णन मैंने संक्षेप से कर दिया है। इन तीनों को ठीक-ठीक जानने वाला मेरा भक्त मेरे भाव को प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसको मेरे साथ अभिन्नता का अनुभव हो जाता है।। 18।।
भक्त तो क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय-इन तीनों को जानकर आपसे अभिन्नता का अनुभव कर लेता है, पर जो साधक केवल ज्ञानमार्ग पर ही चलना चाहता है, उसके लिये क्या जानना आवश्यक है ?
उसके लिये प्रकृति (क्षेत्र) और पुरुष (क्षेत्रज्ञ)- इन दोनों को अलग-अलग जानना आवश्यक है। प्रकृति और पुरुष ये दोनों ही अनादि हैं।
जब ये दोनों अनादि हैं तो फिर ये गुण और विकार किससे पैदा हुए?
गुण और विकार प्रकृति से पैदा होते हैं। इसके सिवाय कार्य, करण और कर्तापन में भी प्रकृति ही हेतु होती है।
पुरुष किसमें हेतु होता है महाराज ?
पुरुष तो सुख-दुःख के भोक्तापन में हेतु होता है।। 19-20।।
पुरुष भोक्तापन में हेतु कब बनता है?
प्रकृति में स्थित होने से, उसके साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही पुरुष गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग होने से ही वह ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेता है।। 21।।
उस पुरुष का स्वरूप क्या है भगवन् ?
वह पुरुष प्रकृति के कार्य शरीर के साथ रखने से ‘उपद्रष्टा’, उसके साथ मिलकर सम्मति देने से ‘अनुमन्ता’, अपने को उसका भरण-पोषण करने वाला मानने से ‘भर्ता’, उसके सुख-दुःख भोगने से ‘भोक्ता’ और अपने को उसका मालिक मानने से ‘महेश्वर’ बन जाता है। परन्तु स्वरूप से वह पुरुष ‘परमात्मा’ कहा जाता है। वह इस शरीर में रहता हुआ भी वास्तव में शरीर के सम्बन्ध से रहित ही है।। 22।।
इस तरह प्रकृति और पुरुष के स्वरूप को जानने से क्या होता है?
इस तरह गुणों के सहित प्रकृति को और गुणरहित पुरुष को जो मनुष्य ठीक-ठीक जान लेता है, उसका सब तरह के शास्त्र विहित बर्ताव (कर्तव्यकर्म) करते हुए भी फिर जन्म नहीं होता अर्थात् वह जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है।। 23।।
उस पुरुष को जानने का और भी कोई उपाय है क्या ?
हाँ, है। कई मनुष्य ध्यान योग के द्वारा कई सांख्य योग के द्वारा और कई कर्मयोग के द्वारा अपने-आप में अपने स्वरूप को जान लेते हैं।। 24।।
और भी कोई सरल उपाय है क्या ?
हाँ, है। जो मनुष्य ध्यानयोग, सांख्ययोग आदि साधनों को नहीं जानते, केवल जीवन्मुक्त महापुरुषों की आज्ञा के परायण हो जाते हैं, वे भी मृत्यु को तर जाते हैं अर्थात् मुक्त हो जाते हैं।। 25।।
वे मृत्यु को कैसे तर जाते हैं भगवन् ?
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! स्थावर और जंगम जितने भी प्राणी पैदा होते हैं, वे सभी क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के माने हुए संयोग से ही पैदा होते हैं- ऐसा तू समझ । इसलिये क्षेत्र के साथ अपना संयोग न मानने से वे तर जाते हैं, जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं।। 26।।
इस संयोग से छूटने के लिये मनुष्य को क्या करना चाहिये?
दो बातें करनी चाहिये- स्वतः सिद्ध परमात्मा के सम्बन्ध को पहचानना और प्रकृति (शरीर) से सम्बन्ध तोड़ना । विषम संसार में जो समरूप से स्थित है और नष्ट होने वालों में जो अविनाशी रूप से स्थित है तथा जो परम ईश्वर है- ऐसे अपने परम स्वरूप को जो देखता है, वही वास्तव में सही देखता है अर्थात् उसको वास्तविक स्वरूप का अनुभव हो जाता है। सब जगह समान रूप से परिपूर्ण परमात्मा के साथ एकता होने से शरीर के साथ तादात्म्य का अभाव हो जाता है। फिर वह अपने द्वारा हत्या नहीं करता अर्थात् शरीर के मरने से अपना मरना नहीं मानता। इसलिये वह परमगति (परमात्मा) को प्राप्त हो जाता है ।। 27-28।।
आपने परमात्मा के सम्बन्ध को पहचानने की बात तो बता दी, अब यह बताइये कि प्रकृति (शरीर)- से सम्बन्ध कैसे तोड़ें?
सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति के द्वारा ही होती हैं-ऐसा ठीक बोध होने से वह अपने में कर्तृत्व के अभाव का अनुभव करता है तथा जिस समय वह सम्पूर्ण प्राणियों के अलग-अलग भावों (शरीरों) को एक प्रकृति में ही स्थित और प्रकृति से ही उत्पन्न देखता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। फिर उसका प्रकृति के साथ सम्बन्ध नहीं रहता ।। 29-30।।
ऐसा क्यों होता है ?
हे कुन्तीनन्दन ! यह पुरुष स्वयं अनादि और गुणरहित होने से स्वयं अविनाशी परमात्मस्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी वास्तव में न करता है और न लिप्त होता है अर्थात् यह कर्ता और भोक्ता नहीं है।। 31।।
यह लिप्त कैसे नहीं होता है?
जैसे आकाश सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण किसी वस्तु, व्यक्ति आदि में कभी नहीं होता, ऐसे ही यह पुरुष सब जगह परिपूर्ण होते हुए भी किसी भी शरीर में किंचिन्मात्र भी लिप्त नहीं होता ।। 32।।
यह पुरुष कर्ता कैसे नहीं बनता भगवन् ?
हे भारत ! जैसे एक ही सूर्य सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करता है, पर उसमें प्रकाशित करने का कर्तृत्व नहीं आता। ऐसे ही यह क्षेत्रज्ञ सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रकाशित करता है, पर उसमें कर्तृत्व नहीं आता, प्रत्युत प्रकाशक मात्र ही रहता है। इस तरह जो ज्ञानरूपी नेत्र से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा प्रकृति और उसके कार्य से अपने को अलग अनुभव कर लेते हैं, वे परमात्मा को प्राप्त हो जाते हैं।। 33-34।। (हिफी) (क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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