अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

अर्जुन की विनय पर कृष्ण हुए द्विभुज रूप

गीता-माधुर्य-24

 

गीता-माधुर्य-24
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

परन्तु महाराज! भीष्म, द्रोण, जयद्रथ, कर्ण आदि शूरवीरों पर विजय कैसे होगी?
भीष्म, द्रोण, जयद्रथ, कर्ण तथा और भी जितने शूरवीर वे सब मेरे द्वारा पहले से ही मारे गये हैं। मेरे मारे हुए शूरवीरों को ही तू मार। अतः तू भयभीत मत हो और युद्ध कर। युद्ध में तू सम्पूर्ण शत्रुओं को जीतेगा।। 34।।
इसके बाद क्या हुआ संजय?
संजय बोले- भगवान् केशव के ऐसे वचनों को सुनकर भय से काँपते हुए अर्जुन हाथ जोड़कर नमस्कार करके और अत्यन्त भयभीत होकर गद्गद वाणी से भगवान् कृष्ण की स्तुति करने लगे।। 35।।
अर्जुन बोले-हे अन्तर्यामी भगवन! आपके नाम, गुण आदिका कीर्तन करने से यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है। और अनुराग को प्राप्त हो रहा है। आपके नाम, गुण आदि के कीर्तन से भयभीत होकर राक्षस लोग दसों दिशाओं में भाग रहे हैं और सिद्धों के समुदाय आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।। 36।।
यह सब उचित क्यों है अर्जुन?
क्योंकि आप अनन्त हैं, सम्पूर्ण देवताओं के मालिक हैं और इस जगत के आधार हैं। आप अक्षर स्वरूप हैं। आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और सत्-असत् से भी परे जो कुछ है, वह भी आप ही हैं। हे महात्मन! आप गुरुओं के भी गुरु और ब्रह्मा को भी उत्पन्न करने वाले हैं- ऐसे आपके लिये वे सिद्धों के समुदाय नमस्कार क्यों नहीं करें।। 37।।
आप ही आदि देव और पुराण पुरुष हैं। आप ही इस संसार के परम आधार हैं। आप ही सबको जानने वाले और जानने योग्य हैं। आप ही सबके परम गन्तव्य स्थान हैं। हे अनन्त रूप! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।। 38।।
आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति और पितामह ब्रह्माजी के भी पिता हैं। इसलिये आपको हजारों बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो! और फिर भी आपको बार- बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो ! हे सर्व ! आपको सामने से नमस्कार हो! पीछे से नमस्कार हो! सब तरफ से ही नमस्कार हो! हे अनन्तवीर्य! आप अमित विक्रम वाले हैं। आपने सम्पूर्ण संसार को व्याप्त कर रखा है, अतः सब कुछ आप ही हैं ।। 39-40।।
हे भगवन! आपकी इस महिमा और स्वरूप को न जानते हुए मैंने आपको सखा मानकर प्रमाद से अथवा प्रेम से (बिना सोचे-समझे) ‘हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!’ इस प्रकार जो कुछ कहा है, और हे अच्युत! चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय में अकेले अथवा उन सखाओं, कुटुम्बियों आदि के सामने मैंने हँसी-दिल्लगी में आपका जो तिरस्कार किया है, उसके लिये मैं अप्रमेय स्वरूप क्षमा माँगता हूँ।। 41-42।।
आप ही इस चराचर जगत के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान् गुरु हैं। हे असीम प्रभाव वाले भगवन! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो कोई हो ही कैसे सकता है। इसलिये शरीर से लम्बा पड़कर स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। जैसे पिता पुत्र के, सखा सखा के और पति पत्नी के तिरस्कार को सह लेता है, ऐसे ही हे देव! आप मेरे द्वारा किये गये तिरस्कार को लीजिये।। 43-44।।
ठीक है भैया! अब तुम क्या चाहते हो?
आपके ऐसे अपूर्व रूप को देखकर मैं हर्षित भी हो रहा हूँ और साथ ही साथ भय से मेरा मन व्याकुल भी हो रहा है। अतः हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो जाइये और अपना वही देवरूप (विष्णुरूप) दिखाइये, जो सिर पर मुकुट धारण किये हुए और हाथों में गदा, चक्र, शंख और पद्म लिये हुए हैं। मैं अब आपके उसी रूप को देखना चाहता हूँ। हे सहस्रबाहो! हे विश्वमूर्ते! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट हो जाइये।। 45-46।।
भगवान् बोले- हे अर्जुन! मैंने बहुत प्रसन्न होकर अपनी सामथ्र्य से तुझे यह अत्यन्त श्रेष्ठ, तेजोमय, सबका आदि और अनन्त विश्वरूप दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसी ने नहीं देखा है।। 47।।
आपके इस विश्वरूप को मनुष्य किस साधन से देख सकता है भगवन्?
किसी भी साधन से नहीं । हे कुरुप्रवीर ! मनुष्य लोक में तुम जैसे कृपा पात्र के सिवाय इस तरहके रूपको कोई वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, उग्र तपस्या और बड़ी-बड़ी क्रियाओंसे भी नहीं देख सकता।। 48।।
परन्तु भगवन! इस समय तो मैं आपके घोर रूप को देखकर बहुत भय भीत हो रहा हूँ; क्या करूँ?
भैया! मेरा ऐसा घोर रूप देख कर तुझे भय भीत नहीं होना चाहिये और अपने में विमूढभाव (मोह) भी नहीं आने देना चाहिये। अब तू भय रहित और प्रसन्न मन वाला होकर मेरे उसी रूपको फिर देख।। 49।।
ऐसा कह कर भगवान्ने अर्जुन को कौन-सा रूप दिखाया संजय?
संजय बोले- ऐसा कहकर भगवान् वासुदेव ने अर्जुन को अपना रूप दिखाया। फिर भगवान्ने पुनः सौम्य द्विभुज रूप होकर भय भीत अर्जुन को आश्वासन दिया।। 50।।
अब तो तुम्हारा भय दूर हो गया न अर्जुन?
अर्जुन बोले- हे जनार्दन! आपके इस सौम्य मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिरचित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति मंे आ गया हूँ।। 51।।
भगवान् बोले- तुमने मेरा यह जो चतुर्भुज रूप देखा है, इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ हैं, देवता लोग भी इस रूप को देखने के लिये नित्य लालायित रहते हैं। तुमने मुझे जैसा देखा है, वैसा मैं वेदों से, तपसे, दान से और यज्ञ से भी नहीं देखा जा सकता हूँ ।। 52-53।।
तो फिर आप कैसे देखे जा सकते हैं?
हे शत्रुतापन अर्जुन! इस प्रकार चतुर्भुज रूप वाला मैं अनन्यभक्ति के द्वारा ही देखा जा सकता हूँ। केवल देखा ही नहीं जा सकता, प्रत्युत तत्त्व से जाना भी जा सकता हूँ और प्राप्त भी किया जा सकता हूँ।। 54।।
वह अनन्यभक्ति कैसी होती है भगवन्?
हे पाण्डव! सब कर्मों को मेरे लिये करना, मेरे ही परायण होना, मेरा ही भक्त होना, आसक्ति रहित होना और किसी भी प्राणी के साथ वैर न रखना-ऐसी भक्ति से युक्त भक्त मुझे प्राप्त हो जाता है।। 55।। (हिफी) (क्रमशः साभार)

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