अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी ने गरुड़ जी को ज्ञान और भक्ति के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि श्रीराम की भक्ति चिंतामणि के समान है। यह भक्ति जिसके हृदय में बसती है, उसे किसी प्रकार दिया और बाती की जरूरत नहीं रहती। उसे किसी प्रकार का दुख नहीं हेाता। गरुड़ जी ने यह बात बहुत आनंद के साथ सुनी और इसके बाद विनय पूर्वक कहा कि हे कागभुशुंडि जी, आप मुझे अपना सेवक समझ कर मेरे सात प्रश्नों का उत्तर भी मुझे समझाते हुए कहिए। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी भक्ति की महिमा बता रहे हैं-
सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत विचारि।
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य।
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई, सुनहु भगति मन कै प्रभुताई।
राम भगति चिंतामनि सुंदर, बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।
परम प्रकास रूप दिन राती, नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा, लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।
प्रबल अविद्या तम मिटि जाई, हारहिं सकल सलभ समुदाई।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं, बसइ भगति जाके उर माहीं।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी, मैं सेवक हूं और भगवान मेरे सेव्य (स्वामी) हैं इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धांत विचार कर श्री रामचन्द्र जी के चरण कमलों का भजन कीजिए। जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है ऐसे समर्थ श्री रघुनाथ जी को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं। मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझाकर कहा, अब भक्ति रूपी मणि की प्रभुता (महिमा) सुनिए। श्रीराम जी की भक्ति सुन्दर चिंतामणि है। हे गरुड़ जी, यह जिसके हृदय में बसती है, वह दिन-रात अपने आप ही परम प्रकाश रूप रहता है। उसको दीपक, घी और बाती कुछ भी नहीं चाहिए। इस प्रकार एक तो मणि का स्वाभाविक प्रकाश रहता है, फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहंी आती क्योंकि मणि स्वयं धन का एक रूप है और तीसरे लोभ रूपी हवा उस मणि मय दीपक को बुझा नहीं सकती क्योंकि मणि स्वयं प्रकाशरूप है, वह बिना घृत, बाती के प्रकाश देती है। उसके प्रकाश से अविद्या रूपी प्रबल अंधकार मिट जाता है। मदादि पतंगों का सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते।
गरल सुधासम अरि हित होई, तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।
ब्यापहि मानस रोग न भारी, जिन्ह के बस सब जीव दुखारी।
राम भगति मनि उर बस जाकें, दुख लवलेस न सपनेहु ताकें।
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं, जे मनि लागि सुजतन कराहीं।
कागभुशुंडि जी कहते है कि उसके लिए विष अमृत के समान और शत्रु मित्र हो जाता है। उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस रोग, जिनके वश में होकर लोग दुखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते। श्रीराम भक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में भी लेशमात्र दुख नहीं होता। जगत में वे ही मनुष्य चतुर शिरोमणि हैं जो उस भक्ति रूपी मणि के लिए भलीभांति यत्न (प्रयास) करते हैं।
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई, राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।
सुगम उपाय पाइबे केरे, नर हत भाग्य देहिं भट भेरे।
पावन पर्बत वेद पुराना, राम कथा, रुचिराकर नाना।
मर्मी सज्जन सुमति कुठारी, ग्यान विराग नयन उरगारी।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी, पाव भगति मनि सब सुख खानी।
मोरे मन प्रभु अस विस्वासा, राम ते अधिक राम कर दासा।
राम सिंधु धन सज्जन धीरा, चंदन तरु हरिसंत समीरा।
सब कर फल हरि भगति सुहाई, सो बिनु संत न काहूं पाई।
अस विचारि जोइ करि सतसंगा, राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा।
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि यद्यपि वह मणि जगत में प्रत्यक्ष है लेकिन बिना श्रीराम की कृपा के कोई उसे पा नहीं सकता। उसके पाने के उपाय भी सुगह ही हैं पर अभागे मनुष्य उसे ठुकरा देते हैं। वेद-पुराण पवित्र पर्वत है, श्रीराम जी की नाना प्रकार की कथाएं उन पर्वतों में सुंदर खान हैं। संत पुरुष (इन खानों के रहस्य को जानने वाले) मर्मी है और सुन्दर बुद्धि खान को खोदने वाली कुदाल है। हे गरुड़ जी ज्ञान और वैराग्य उसके दो नेत्र हैं। जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है। हे प्रभो, मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्रीराम जी के दास (सेवक) श्रीराम जी से भी बढ़कर हैं। श्री रामचन्द्र जी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ है। श्री हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों का फल सुंदर हरि भक्ति ही है, उसे संत के बिना किसी ने नहीं पाया। ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़ जी उसके लिए श्रीराम जी की भक्ति सुलभ हो जाती है। ब्रह्म (वेद) समुद्र हैं, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता हैं जो उस समुद्र को मथकर कथा रूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है। वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद लोभ
और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरि की भक्ति ही है, हे पक्षीराज, इसे विचार कर देखिए।
सुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ, जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।
नाथ मोहि निज सेवक जानी, सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी।
कागभुशुंडि जी की भक्ति के बारे में इस प्रकार की बातें सुनकर पक्षीराज गरुड़ जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ, मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए। -क्रमशः (हिफी)

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