
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामचरित मानस में कदम-कदम पर जीवन संबंधी शिक्षाएं दी गयी हैं। इन्हीं में एक है कि शत्रु पर कभी कृपा नहीं करनी चाहिए क्योंकि इसे सबसे बड़ी कायरता माना जाता है। लक्ष्मण जी ने जब रावण की बहन शूर्पणखा के कान व नाक काट दी तो वह अपने चचेरे भाइयों खर-दूषण के पास गयी थी। खर-दूषण सेना लेकर युद्ध करने आये लेकिन प्रभु श्रीराम को देखकर वह उनकी सुन्दरता पर मोहित हो गया और कहने लगा कि वध के लायक यह अनुपम पुरुष नहीं है। इसलिए अपने दूतों को भेजा। दूतों से भगवान राम ने जब कहा कि रणभूमि में चतुरता और कपट तथा दुश्मन पर दया अच्छी नहीं होती। इसके बाद खर-दूषण के साथ प्रभु श्रीराम के संग्राम का वर्णन यहां किया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं-
कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बांधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सो जुग भुजग ज्यों।
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुं मृगराज प्रभु गज राज घटा निहारि कै।
प्रभु श्रीराम धनुष चढ़ाकर, सिर पर जटाओं का जूड़ा बांधते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं जैसे मरकत मणि (पन्ने) के पर्वत पर करोड़ों बिजलियों से दो सांप लड़ रहे हों। कमर में तरकश कसकर, विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधार कर प्रभु श्री रामचन्द्र जी राक्षसों की ओर देख रहे हैं, मानो मतवाले हाथियों को देखकर सिंह उनकी ओर देख रहा हो।
आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि धेरत दनुज।
प्रभु विलोकि सर सकहिं नारी, थकित भई रजनीचर धारी।
सचिव बोलि बोले खर दूषन, यह कोउ नृप बालक नर भूषन।
नाग असुर सुर नर मुनि जेते, देखे जिते हते हम केते।
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई, देखी नहिं असि सुंदरताई।
जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा, बध लायक नहीं पुरुष अनूपा।
देहु तुरत निज नारि दुराई, जीअत भुवन जाहु द्वौ भाई।
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु, तासु बचन सुनि आतुर आवहु।
प्रभु श्रीराम युद्ध के लिए तैयार हैं, तभी ‘पकड़ो-पकड़ो’ पुकारते हुए राक्षस योद्धा बड़ी तेजी से दौड़ते हुए आये जैसे लगाम छूटने पर घोड़ा दौड़ता है। उन्होंने चारों ओर से श्रीराम जी को घेर लिया, जैसे बाल सूर्य को अकेला देखकर मन्देह नामक दैत्य घेर लेते हैं। सौन्दर्य और माधुर्य की निधि प्रभु श्रीराम को देखकर राक्षसों की सेना थका हुआ महसूस करने लगी और उनके हाथ से तीर ही नहीं छूट पा रहे हैं। तभी मंत्री को बुलाकर खर और दूषण ने कहा- यह राजकुमार कोई मनुष्यों का भूषण है। उन्होंने कहा कि जितने भी नाग, असुर, देवता मुनि और मनुष्य हैं, उनमें से न जाने कितने ही हमने देखे, जीते और मार डाले हैं, पर हे सब भाइयों ऐसी सुन्दरता कहीं नहीं देखी। यद्यपि उन्होंने हमारी बहन को कुरुप कर दिया, तथापि ये अनुपम पुरुष वध करने योग्य नहीं हैं। इसलिए उससे कहो कि जिस स्त्री को छिपा दिया है, उसे हमें तुरंत दे दो और दोनों भाई जीवित ही घर लौट जाओ। खर दूषण ने सचिवों से कहा कि मेरा यह संदेश तुरन्त उसे सुनाओ और उसका उत्तर सुनकर शीघ्र वापस आओ।
दूतन्ह कहा रामसन जाई, सुनत राम बोले मुसुकाई।
हम छत्री मृगया बन करहीं, तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं।
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं, एक बार कालहु सन लरहीं।
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक, मुनि पालक खल सालक बालक।
जौं न होइ बल धर फिरि जाहू, समर विमुख मैं हतउं न काहू।
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई, रिपु पर कृपा परम कदराई।
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ, सुनि खरदूषन उर अति दहेऊ
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए विकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिध परसु धरा।
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर व्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा।
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभांति।
खर-दूषण के दूतों ने यह संदेश श्रीराम से कहा, सुनकर श्रीराम मुस्करा कर कहने लगे। हम क्षत्रिय हैं और वन में शिकार करते हैं और तुम्हारे जैसे दुष्ट पशुओं को तो ढूंढ़ते ही फिरते हैं। हम बलवान श.त्रु को देखकर नहीं डरते, लड़ने को आवे तो एक बार हम काल (मृत्यु) से भी लड़ सकते हैं। यद्यपि हम मनुष्य है लेकिन न दैत्य कुल का नाश करने वाले और मुनियों की रक्षा करने वाले हैं, दुष्टों को दण्ड देते हैं। यदि बल न हो तो घर लौट जाओं, युद्ध भूमि में पीठ दिखाने वाले को मैं नहीं मारता। उन्होंने कहा रण में चढ़कर कपट-चतुराई करना और शत्रु पर कृपा करना तो बड़ी भारी कायरता है। दूतों ने लौटकर तुरन्त सब बाते कहीं, जिन्हें सुनकर खर-दूषण का हृदय अत्यन्त जल उठा। हृदय जल उठा तो उन्होंने क्रोध में कहा इसे कैद कर लो। यह सुनकर भयानक राक्षस योद्धा वाण, धनुष, तोमर, शक्ति (सांग) शूल (बरछी), कृपाण (कटार) परिध और फरसा धारण किये हुए दौड़ पड़े। प्रभु श्रीराम ने पहले धनुष का बड़ा कठोर, घोर और भयानक टंकार किया। (धनुष की प्रत्यंचा खींचकर छोड़ देने पर होने वाली ध्वमि)। इस टंकार को सुनकर राक्षस बहरे और व्याकुल हो गये। उस समय उन्हें कुछ भी होश न रहा। फिर वे शत्रु को बलवान जानकर सावधान होकर दौड़े और श्री रामचन्द्र जी के ऊपर बहुत प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे।
तिन्ह के आयुध तिलसम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाड़े निज तीर।
तब चले बान कराल, फुंकरत जनु बहु ब्याल।
कोपेउ समर श्रीराम, चले विसिख निसित निकाम।
अब लोकि खरतर तीर, मुरि चले निसिचर बीर।
भए क्रुद्ध तीनिउ थाइ, जो भगि रन ते जाइ।
तेहि बधब हम निज पानि, फिरे मरन मन महुं ठानि।
आयुध अनेक प्रकार, सनमुख ते करहिं प्रहार।
रिपु परम कोपे जानि, प्रभु धनुष सर संघानि।
छांड़े विपुल नाराच, लगे कटन विकट पिसाच।
निशाचरों के अस्त्र-शस्त्र प्रभु श्रीराम ने तिल के समान टुकड़े-टुकड़े कर दिये फिर धनुष को कान तक खींच कर अपने तीर छोड़े। वे भयानक वाण ऐसे चले मानो फुफकारते हुए बहुत से सांप जा रहे हों। श्री रामचन्द्र जी संग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यंत तीक्ष्ण वाण चलाने लगे। इन अत्यन्त तीक्ष्ण वाणों को देखकर राक्षस बीर पीठ दिखाकर भागने लगे। तब खर, दूषण और त्रिशिरा तीनो भाई क्रुद्ध होकर बोेले- जो रण से भाग कर जाएगा, उसका हम अपने हाथो से वध कर देंगे, तब मन मे यह जानकर कि मरना निश्चित है, इसलिए भागते हुए राक्षस लौट पड़े और सामने आकर वे अनेक प्रकार के हथियारों से श्रीराम पर प्रहार करने लगे। शत्रु को अत्यंत कुपित जानकर प्रभु श्रीराम ने बहुत से बाण छोड़े जिनसे भयानक राक्षस कटने लगे। -क्रमशः (हिफी)