अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

इमि कुपंथ पग देत खगेसा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

गरुण को रामकथा सुनाते हुए काग भुशुंडि जी कहते हैं कि गलत रास्ते पर चलते हुए व्यक्ति बहुत कमजोर हो जाता है। उसके शरीर में न बल रहता है और न बुद्धि रह जाती है। ठीक उसी तरह जैसे महाबलशाली रावण जब सीता जी को हरण करने के लिए जा रहा है तो वह कुत्ते की तरह डरकर वहां पहुंचता है। इधर-उधर ताकता भी रहता है कि कोई उसे देख तो नहीं रहा है। श्रीराम
दुष्ट मारीच जो स्वर्ण मृग बनकर आया था, उसे मारने के लिए गये हैं और मारीच की श्रीराम के स्वर में आवाज सुनकर सीता जी ने लक्ष्मण को उनकी सहायता के लिए भेज दिया। इस बीच आश्रम को सुनसान देखकर रावण ने सीता जी का अपहरण कर लिया। यही इस प्रसंग में बताया गया है। अभी तो श्रीराम मायामृग के पीछे धनुष लेकर
दौड़े हैं।
निगम नेति सिव ध्यान न पावा, माया मृग पाछें सो धावा।
कबहुं निकट पुनि दूरि पराई, कबहुंक प्रगटइ कबहुं छपाई।
प्रगटत दुरत करत छलभूरी, एहि विधि प्रभुहि गयउ लै दूरी।
तब तकि राम कठिन सर मारा,
धरनि परेउ करि घोर पुकारा।
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा, पाछें सुमिरेसि मन महुं रामा।
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा, सुमिरेसि राम समेत सनेहा।
अंतरप्रेम तासु पहिचाना, मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना।
बिपुल सुमन सुर बरषहिं, गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुं,
दीनबंधु रघुनाथ।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि वेद जिनके विषय में नेति-नेति कहकर रह जाते हैं और शिव जी भी जिन्हें ध्यान में नहंी पाते अर्थात् जो मन और वाणी से अत्यंत परे हैं, वे ही श्रीराम जी माया से बने हुए मृग के पीछे दौड़ रहे हैं। वह माया मृग कभी निकट आ जाता है और फिर दूर भाग जाता है, कभी तो प्रकट हो जाता है और कभी छिप जाता है। इस प्रकार प्रकट होता और छिपता हुआ तथा बहुत प्रकार से छल करता हुआ वह प्रभु श्रीराम को काफी दूर तक ले जाता है। प्रभु श्रीराम तब निशाना साधकर कठोर वाण मारते हैं जिसके लगते ही वह घोर शब्द करके पृथ्वी पर गिर पड़ा। गिरते हुए उसने पहले लक्ष्मण का नाम लिया और फिर मन में श्रीराम का स्मरण किया। प्राण त्याग करते समय उसने अपना राक्षसी शरीर प्रकट किया और प्रेम सहित श्रीराम का स्मरण किया। सर्वज्ञ श्रीराम ने उसके हृदय के प्रेम को पहचान कर उसे वह गति अर्थात् परम पद दिया जो ऋषि, मुनियों को भी दुर्लभ है। यह देखकर कि प्रभु कितने दयालु हैं, देवता बहुत से फूल बरसा रहे हैं और प्रभु की स्तुति कर रहे हैं। वे कहते हैं कि दीनबंधु श्रीराम ने असुर को भी परम पद दे दिया।
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा, सोह चाप कर कटि तुनीरा।
आरत गिरा सुनी जब सीता, कह लछिमन सन परम सभीता।
जाहु बेगि संकट अति भ्राता, लछिमन बिहसि कहा सुनु माता।
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई, सपनेहु संकट परइ कि सोई।
मरम बचन जब सीता बोला, हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।
बन दिसि देव सौंपि सब काहू, चले जहां रावन ससि राहू।
सून बीच दसकंधर देखा, आवा निकट जती के वेषा।
जाकें डर सुर असुर डेराहीं, निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं।
सो दससीस स्वान की नाईं, इत उत चितइ चला भड़ि हाईं।
इमि कुपंथ पग देत खगेसा, रह न तेज तन बुधि बललेसा।
नाना विधि करि कथा सुहाई, राजनीति भय प्रीति देखाई।
कह सीता सुनु जती गोसाईं, बोलेहु बचन दुष्ट की नाई।
तब रावन निज रूप देखावा, भईं सभय जब नाम सुनावा।
कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा, आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा।
जिमि हरि बधुहि छुद्र सस चाहा, भएसि कालबस निसिचर नाहा।
सुनत बचन दससीस रिसाना, मन महुं चरनबंदि सुख माना।
क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगन पथ आतुर, भयं रथ हांकि न जाइ।
दुष्ट मारीच को मारकर श्रीराम तुरंत आश्रम की तरफ चल पड़े। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर, जब सीता जी ने दुख से भरी वाणी, जो मारीच ने मरते समय कहा था हा लक्ष्मण, को सुना तो वह बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मण जी से कहने लगीं- तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बड़े संकट में हैं। लक्ष्मण जी ने हंस कर कहा- हे माता सुनो, जिनकी भौं के इशारे पर सारी सृष्टि का विनाश हो जाता है, वे श्रीराम जी क्या कभी स्वप्न में भी संकट में पड़ सकते हैं। इस पर सीता जी ने जब हृदय में चुभने वाली कुछ बातें कहीं, तब भगवान की ही प्रेरणा से लक्ष्मण जी का मन भी चंचल हो उठा। वे सीता जी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौंप कर वहां चले जहां रावण रूपी चंद्रमा के लिए राहु रूपी श्रीराम जी थे। रावण तब सूना मौका देखकर संन्यासी के वेश में सीता जी के समीप पहुंचा। गरुण जी को कथा सुनाते हुए काग भुशुंडि जी कहते हैं कि जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में भरपेट भोजन नहीं कर पाते, वहीं दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भड़िहाई अर्थात् चोरी के लिए चला। हे गरुण जी! कुमार्ग पर पांव रखते ही शरीर में तेज, बल और बुद्धि का अंश भी नहीं रह जाता है। रावण ने आश्रम के निकट पहुंचकर अनेक प्रकार की सुहावनी कथाएं कहकर सीता जी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीता जी ने कहा कि हे यति (गोसाईं) सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह बचन कहे हैं। उसी समय रावण ने अपना असली रूप दिखाया और जब अपना नाम बताया तो सीता जी भयभीत हो गयीं। उस समय भी उन्होंने धैर्य धारण कर कहा- ‘अरे, दुष्ट, खड़ा तो रह, प्रभु आ गये हैं, जैसे सिहं की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज, तू मेरी चाह करके काल के वश में हो गया है। सीता जी के ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया लेकिन मन में उसने सीता जी के चरणों की वंदना करके सुख प्राप्त किया। फिर
क्रोध में भरकर उसने सीता जी को रथ पर बैठा लिया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश मार्ग से चला। हालांकि डर के मारे वह रथ को हांक नहीं पा
रहा था।
हा जग एक बीर रघुराया, केहिं अपराध बिसारेहु दाया।
आरति हरन सरन सुखदायक, हा रघुकुल सरोज दिननायक।
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोषा, सो फलु पायउं कीन्हेउं रोसा।
विविध बिलाप करत बैदेही, भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।
रावण के रथ पर विवश बैठी सीता जी विलाप कर रही हैं। वे कह रही हैं हा, जगत के अद्वितीय वीर रघुनाथ जी, आपने किस अपराध से मुझ पर दया करनी छोड़ दी। हे दुःखों को हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले, हा, रघुकुलरूपी कमल को खिलाने वाले सूर्य, हा लक्ष्मण, तुम्हारा कोई दोष नहीं। मैंने तुम पर क्रोध किया, उसी का फल पाया है। इस प्रकार जानकी जी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। वह कहती हैं, प्रभु श्रीराम की कृपा तो बहुत है लेकिन वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गये हैं।
विपति मोरि को प्रभुहि सुनावा, पुरोडास चह रासम खावा।
सीता कै बिलाप सुनि भारी, भए चराचर जीव दुखारी।
सीता जी कहती हैं कि मेरी यह विपत्ति प्रभु को कौन सुनावे। यज्ञ के अन्न को गधा खाना चाहता है। सीता जी का भारी बिलाप सुनकर जड़-चेतन सभी जीव दुखी हो गये।-क्रमशः (हिफी)

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