अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

जेहि विधि कपट कुरंग संग धाइ चले श्रीराम

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

राक्षस राज रावण सीता जी को आकाश मार्ग से ले जा रहा है। गीधराज जटायु बचाने का प्रयास करता है लेकिन रावण उसे मरणासन्न कर देता है। सीता जी रास्ते में कुछ कपियों को देखती हैं तो अपना एक अंगवस्त्र उनकी तरफ फेंक देती हैं। रावण उन्हें लंका में ले जाता है और भय व प्रीति दिखाकर चाहता है कि वह उसकी पटरानी बन जाएं लेकिन सीता जी अपने पतिब्रत धर्म से नहीं डिगतीं। उनके मन में प्रभु श्रीराम की वही छवि बसी है जो अंतिम समय श्रीराम कपट मृग के पीछे दौड़ते हुए जा रहे हैं। यही छबि मारीच भी देखने को आतुर था। उधर, श्रीराम से लक्ष्मण जी मिलते हैं तब श्रीराम को आशंका होती है कि कहीं उनके साथ धोखा तो नहीं हुआ। इस प्रसंग में यही बताया जा रहा है। अभी तो सीता जी का बिलाप सुनकर गीधराज जटायु रावण पर हमला कर रहा है-
गीधराज सुनि आरत बानी, रघुकुल तिलक नारि पहिचानी।
अधम निसाचर लीन्हे जाई, जिमि मलेछ बस कपिला गाई।
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा, करिहउं जातुधान कर नासा।
धावा क्रोधवंत खग कैसें, छूटइ पबि परवत कहुं जैसंें।
रे रे दुष्ट ठाढ़ किन हो ही, निर्भय चलेसि न जानेहि मोही।
आवत देखि कृतांत समाना, फिरि दसकंधर कर अनुमाना।
की मैनाक कि खगपति होही, मम बल जान सहित पति सोई।
जाना जरठ जटायू एहा, ममकर तीरथ छांड़िहि देहा।
सुनत गीध क्रोधातुर धावा, कह सुनु रावन मोर सिखावा।
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू, नाहित अस होइहि बहु बाहू।
राम रोष पावक अति धोरा, होइहि सकल सलभ कुल तोरा।
उतरु न देत दसानन जोधा, तबहि गीध धावा करि क्रोधा।
धरिकच बिरथ कीन्ह महिगिरा, सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही, दंड एक भइ मुरुछा तेही।
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना, काढ़ेसि परम कराल कृपाना।
काटेसि पंख परा खग धरनी, सुमिरि राम करि अद्भुत करनी।
सीता का विलाप सुनकर गीधराज जटायु ने पहचान लिया कि ये रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्र जी की पत्नी हैं। उसने देखा कि नीच राक्षस उन्हें बुरी तरह से लिये जा रहे हैं जैसे कपिला गाय किसी मलेच्छ (कसाई) के हाथ पड़ गयी हो जटायु बोला- हे सीते पुत्री, भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूंगा। यह कहकर वह पक्षी क्रोध में भरकर कैसे दौड़ा, जैसे पर्वत की तरफ वज्र दौड़ता है। उसने ललकार कर कहा- रे दुष्ट, खड़ा क्यों नहीं होता, निडर होकर चल दिया, मुझे तूने नहीं जाना? जटायु को यमराज के समान आता देखकर रावण ने पीछे मुड़कर अनुमान किया कि यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुण, पर वह पक्षियों का स्वामी गरुण तो अपने स्वामी विष्णु सहित मेरे बल को जानता है। कुछ पास आने पर रावण ने उसे पहचान लिया और बोला- ये तो बूढ़ा जटायु है, यह मेरे हाथ रूपी तीर्थ में शरीर छोड़ेगा। यह सुनकर जटायु क्रोध में भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला- रावण, मेरी सीख को तू सुन, जानकी जी को छोड़कर कुशलपूर्वक तू अपने घर जा, नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले! ऐसा होगा कि श्री रामजी के
क्रोधरूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिंगों की तरह भस्म हो जाएगा। योद्धा रावण कोई उत्तर नहीं देता, तब गीध क्रोध करके दौड़ा। उसने बाल पकड़कर रावण को रथ के नीचे उतार दिया। रावण पृथ्वी पर गिर पड़ा। गीध सीता जी को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोंच से मार-मार कर रावण के शरीर को विदीर्ण (जख्मी) कर दिया। इससे रावण को एक घड़ी के लिए मूच्र्छा आ गयी।
तब खिसियाते हुए रावण ने क्रोधवंत होकर अत्यंत भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पंख काट डाले। महाबलशाली जटायु इसे श्री रामजी की अद्भुत लीला के रूप में स्मरण करते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ा।
सीतहिं जान चढ़ाइ बहोरी, चला उताइल त्रास न थोरी।
करति विलाप जाति नभ सीता, ब्याघ विबस जनु मृगी सभीता।
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी, कहि हरिनाम दीन्ह पट डारी।
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ, बन असोक महं राखत भयऊ।
हारि परा खल बहु विधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादम तरराखिसि जतन कराइ।
जेहि विधि कपट कुरंग संग धाइ चले श्रीराम।
सो छवि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम।
जटायु को घायल करके रावण ने सीता जी को फिर रथ पर चढ़ा लिया और बड़ी उतावली के साथ चला। उसे भय था कि कहीं फिर कोई सीता को मुक्त कराने न आ जाए। सीता जी आकाश में विलाप करती जा रही हैं मानों ब्याध के वश में पड़ी कोई भयभीत हिरनी हो। सीता ने पर्वत पर बैठे कुछ बंदरों (कपियों) को देखकर हरिनाम लेकर अपना वस्त्र डाल दिया। रावण इस प्रकार सीता जी को ले गया और अशोक वन में रखा। रावण ने सीता जी को बहुत प्रकार से भय और प्रीति दिखाई लेकिन वह दुष्ट हार गया, तब उसने सीता को कारगर सुरक्षा व्यवस्था करके अशोक वृक्ष के नीचे ही छोड़ दिया। दुख से भरी सीता जी श्रीराम की उस छवि को हृदय में बसाए हैं जो हरण से पूर्व उन्होंने देखी थी अर्थात जिस प्रकार कपट मृग के पीछे श्रीराम तीर चढ़ाकर दौड़े थे, उस छवि को हृदय में रखकर राम का नाम रटती रहती हैं।
रघुपति अनुजहि आवत देखी, बाहिज चिंता कीन्हि विसेषी।
जनकसुता परिहरिहु अकेली, आयहु तात बचन मम पेली।
निसिचर निकट फिरहिं बन माहीं, मम मन सीता आश्रम नाहीं।
गहि पद कमल अनुज कर जोरी, कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी।
अनुज समेत गए प्रभु तहवां, गोदावरि तट आश्रम जहवां।
आश्रम देखि जानकी हीना, भए विकल जस प्राकृत दीना।
हा गुन खानि जानकी सीता, रूप सील ब्रत नेम पुनीता।
लछिमन समुझाए बहु भांती, पूछत चले लता अरु पाती। हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी, तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।
खंजन सुक कपोत मृग मीना, मधुप निकर कोकिला प्रवीना।
कुंद कली दाड़िम दामिनी, कमल सरद ससि अहिभामिनी।
वरुन पास मनोज धनुहंसा, गज केहरि निज सुनत प्रसंसा।
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं, नेकु न संक सकुच मनमाहीं।
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू, हरषे सकल पाइ जनु राजू।
इधर, श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण को आता देखकर बाह्य रूप से बहुत ंचिंता की और कहा कि हे भाई, तुमने जानकी को अकेले छोड़ दिया और मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर यहां चले आए। राक्षसों के झुंड बन में फिरते रहते हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं हैं। छोटे भाई लक्ष्मण ने श्रीराम के चरणों को पकड़कर हाथ जोड़कर कहा कि हे भाई मेरा कोई दोष नहीं है। लक्ष्मण सहित श्रीराम वहां गये जहां गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था। आश्रम को जानकी जी से रहित देखकर श्रीराम जी साधारण मनुष्य की तरह व्याकुल हो गये। दीनों की तरह वह विलाप करने लगे। हा, गुणों की खान जानकी, हा, रूप-शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते। लक्ष्मण जी ने बहुत प्रकार से समझाया, तब श्रीराम जी लताओं और वृक्षों की पंक्तियों से पूछते हुए चले। हे पक्षियों, हे पशुओं, हे भौरों की पंक्तियों, तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौरों का समूह, प्रवीण कोयल, कुंदकली, अनार, बिजली, कमल, शरद का चंद्रमा और नागिन, वरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं। बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शंका और संकोच नहीं है। हे जानकी सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गये हों। -क्रमशः (हिफी)

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