
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
गीधराज जटायु रावण के बंधन से सीता जी को बचाने में गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ सीता जी को खोजते, विलाप करते हुए जंगल में भटक रहे हैं, तभी उन्हें मरणासन्न जटायु मिलता है। वह सारा वृतांत श्रीराम को बताता है कि किस प्रकार रावण सीता जी का हरण करके ले गया और मैंने बचाने का प्रयास किया तो मेरी यह हालत कर दी है। प्रभु श्रीराम उससे कहते हैं कि हे तात तुम अपने शरीर को जीवित रखना चाहते तो रख सकते हो। जटायु कहता है कि मरते समय राम का नाम भी मुख से निकले तो उसे मोक्ष मिल जाता है और मुझे तो साक्षात आपके दर्शन हो रहे हैं इसलिए इस शरीर को अब किस खातिर रखूं। तभी श्रीराम कहते हैं कि हे जटायु, जिसके मन में परहित की भावना रहती है उनके लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो श्रीराम सीता जी के लिए विलाप कर रहे हैं-
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं, प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं।
एहि विधि खोजत विलपत स्वामी, मनहु महा बिरही अति कामी।
पूरन काम राम सुख रासी, मनुज चरित कर अज अविनासी।
आगे परा गीधपति देखा, सुमिरत रामचरन जिन्ह रेखा।
कर सरोज सिर परसेउ कृपा सिंधु रघुवीर।
निरखि राम छबि धाम मुख, विगत भई सब पीर।
श्रीराम कहते हैं, हे सीते, तुमसे यह अनख (स्पद्र्धा) कैसे सहन हो रही है? हे प्रिय तुम शीघ्र प्रकट क्यों नहीं होतीं। इस प्रकार अनेक ब्रह्माण्डों के तथा महा महिमामयी स्वरूपा सीता जी के स्वामी श्रीराम जी सीता जी को खोजते हुए विलाप कर रहे हैं, मानो कोई महा विरही और अत्यंत कामी पुरूष हों। पूर्णकाम, आनंद की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीराम जी मनुष्यों की तरह चरित्र कर रहे हैं। आगे बढ़ने पर उन्होंने गीधराज जटायु को पड़ा हुआ देखा। वह श्रीराम के चरणों का स्मरण कर रहा था जिन चरणों में
ध्वजा, कुलिश आदि की रेखाएं अर्थात चिन्ह उसे साफ-साफ दिखाई पड़ते हैं। कृपा सागर श्री रघुवीर ने अपने कर-कमल से उसके सिर का स्पर्श किया अर्थात उसके सिर पर अपना हाथ फेरा। शोभा धाम श्रीराम का परम सुंदर मुख देखकर जटायु की सब पीड़ा समाप्त हो गयी।
तब कह गीध बचन धरि
धीरा, सुनहु राम भंजन भव भीरा।
नाथ दसानन यह गति कीन्हीं, तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही।
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं, बिलपति अति कुरसी की नाईं।
दरस लागि प्रभु राखेउं प्राना, चलन चहत अब कृपा निधाना।
रामकहा तनु राखहु ताता, मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता।
जाकर नाम मरत मुख आवा, अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा।
सो मम लोचन गोचर आगे, राखौं देह नाथ केहि खांगे।
जल भरि नयन कहहिं रघुराई, तात कर्म निज तें गति पाई।
परहित बस जिन्ह के मन माहीं, तिन्ह कहुं जग दुर्लभ कछु नाहीं।
तनु तजि तात जाहु
ममधामा, देउं काह तुम्ह पूरनकामा।
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौ मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ।।
तब गीधराज जटायु ने धैर्य धारण कर यह बचन कहा-हे भवभय अर्थात जन्म-मृत्यु के भय को दूर करने वाले श्रीराम जी सुनिए। हे नाथ रावण ने मेरी यह दशा की है। उस दुष्ट ने जानकी जी का हरण कर लिया है। हे गोसाईं वह सीता जी को लेकर दक्षिण दिशा की तरफ गया है। सीता जी कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यंत विलाप कर रही थीं। हे प्रभो मैंने आपके दर्शन के लिए ही प्राण रोक रखे थे। हे कृपा निधान अब मेरे प्राण चलना ही चाहते हैं। श्रीराम ने कहा हे तात, शरीर को बनाए रखिए अर्थात आप जीवित रहिए तो जटायु ने मुस्कराते हुए यह बात कही-मरते समय जिनके मुख से आपका नाम आ जाने से अधम अर्थात महान पापी भी मुक्त हो जाता है ऐसा वेद गाते हैं, वही आप प्रभु मेरे नेत्रों के सामने खड़े हैं, हे नाथ अब मैं किस कमी को पूरा करने के लिए देह को रखंू। नेत्रों में जलभर कर श्री रघुनाथ जी कहने लगे- हे तात आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से दुर्लभ गति को प्राप्त किया है। हे तात जिनके मन में दूसरे का हित बसता है उनके लिए जगत में कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। हे तात शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाम में जाइए। मैं आपको क्या दूं आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं अर्थात सब कुछ पा चुके हो। अब सीता हरण की बात आप मेरे पिता श्री महाराज दशरथ से मत कहिएगा। यदि मैं राम हूं तो दशमुख रावण स्वयं ही अपने परिवार समेत वहां आकर बताएगा।
गीध देह तजि धरि हरि रूपा? भूषन बहुपट पीत अनूपा।
स्याम गात विसाल भुजचारी, अस्तुति करत नयन भरि बारी।
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खण्डन चंड सर मंडन मही।
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं।
गीध जटायु ने गीध का शरीर त्याग कर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और पीताम्बर पहन लिये। भगवान की तरह ही उसका श्याम शरीर है विशाल चार भुजाएं हैं और नेत्रों में प्रेम तथा आनंद के अश्रु भरकर वह स्तुति कर रहा है। वह कहता है हे राम जी आपकी जय हो। आपका रूप अनुपम है। आप निर्गुण हैं और सगुण भी हैं और सत्य ही गुणों के अर्थात माया के प्रेरक हैं। दस सिर वाले रावण की प्रचण्ड भुजाओं को खण्ड-खण्ड करने के लिए प्रचण्ड वाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जल से भरे बादलों की तरह श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और लाल कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और संसार के भय से छुड़ाने वाले कृपालु श्रीराम जी को मैं नित्य नमस्कार करता हूं।
बलभप्रमेयनादि मजमव्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिन्द गोपर द्वंद्व हर विग्यान धन धरनी धरं।
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं।
अर्थात आप अपरिमित बल वाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त निराकार, एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविन्द (वेद वाक्यों द्वारा जानने योग्य) इन्द्रियों से अतीत अर्थात जन्म-मरण, सुख-दुख, हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों (विचारों) को हरने वाले, विज्ञान की धन मूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो संत राम मंत्र को जपते हैं, उन अनंत सेवकों के मन को आनंद देने वाले हैं। उन निष्काम प्रिय अर्थात निष्काम जनों
के प्रेमी तथा काम आदि दुष्टों
अर्थात् दुष्ट प्रवृत्ति रखने वालों के दल का विनाश (दलन) करने वाले श्री रामचंद्र जी को मैं नित्य नमस्कार करता हूूं। -क्रमशः (हिफी)