अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

वीरघातिनी छाड़िसि सांगी

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

समर भूमि में मेघनाद मायावी युद्ध कर रहा है। प्रभु श्रीराम उसके सभी अस्त्र-शस्त्र जब व्यर्थ कर देते हैं तो वह लज्जित होकर वानर-भालुओं पर प्रहार करने लगता है। मेघनाद जैसे योद्धा के रणभूमि में होने पर लक्ष्मण जी प्रभु श्रीराम से आज्ञा मांगकर युद्ध करने को चल पड़ते हैं। मेघनाद छल-बल और अनीति से युद्ध करने लगा तो लक्ष्मण जी को क्रोध आ गया और उन्होंने मेघनाद को मरणासन्न कर दिया। मेघनाद ने समझा कि अब लक्ष्मण जी मुझे मार ही डालेंगे तो उसने दुर्लभ तपस्या से प्राप्त वीरघातिनी शक्ति का प्रयोग किया। इसका प्रयोग अमोध था, इसलिए लक्ष्मण जी मूच्र्छित हो जाते हैं। मेघनाद उन्हें उठाने का प्रयास करता है लेकिन जगताधार श्री लक्ष्मण जी उसके उठाने से नहीं उठते। संध्या के समय श्रीराम पूछते हैं कि लक्ष्मण जी कहां हैं तब उन्हें मूच्र्छित अवस्था में हनुमान जी लेकर आते हैं। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है अभी तो लक्ष्मण जी युद्ध करने के लिए आज्ञा मांग रहे हैं-
आयसु मागि राम पहिं अंगदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ।
छतज नयन उरबाहु विसाला, हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला।
इहां दसानन सुभट पठाए, नाना अस्त्र-सस्त्र करि धाए।
भूधर नख बिटपायुध धारी,
धाए कपि जयराम पुकारी।
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी, इत उत जय इच्छा नहिं थोरी।
मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं, कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं।
मारु मारु धरु धरु धरु मारू, सीस तोरि गहि भुजा उपारू।
असि रव पूरि रही नव खंडा,
धावहिं जहं तहं रुंड प्रचण्डा।
देखहि कौतुक नभ सुर वृंदा, कबहुंक विसमय कबहुं अनंदा।
रुधिर गाड़ भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उड़ाइ।
जनु अंगार राखिन्ह पर मृतक
धूम रह्यो छाइ।
श्रीराम जी से आज्ञा मांगकर अंगद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष वाण लिये हुए श्री लक्ष्मण जी क्रुद्ध होकर चले। उनके नेत्र लाल हैं, छाती चैड़ी और विशाल भुजाएं हैं। हिमालय पर्वत के समान उज्ज्वल (सफेद) वर्ण (शरीर) कुछ लाल हो गया है। इधर, रावण ने भी बड़े-बड़े योद्धा भेज दिये हैं। वे अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर दौड़ पड़े। उधर, पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किये हुए वानर श्रीरामचन्द्र जी की जय पुकार कर दौड़े। वानर और राक्षस सब जोड़ी बनाकर भिड़ गये। इधर और उधर दोनांे तरफ जीत की इच्छा कम नहीं है अर्थात सभी जीतने के लिए ही लड़ रहे हैं। वानर राक्षसों को घूसे व लातों से मारते हैं दांतों से काटते हैं विजय पाने वाले वानर उन्हें मारकर फिर डांटते भी हैं। मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो, पकड़कर मार दो, सिर तोड़ दो और भुजाएं पकड़कर उखाड़ लो नवों खण्डों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड़) जहां-तहां दौड़ रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। वे जब वानरों को घायल होते देखते तो दुख होता है और राक्षसों को मरते देखते तो आनंद मिलता है। युद्ध भूमि में खून गड्ढों में भर गया है और उस पर धूल उड़कर पड़ रही है तो वह दृश्य देखकर ऐसा लगता है, मानो अंगारों के ऊपर राख छा गयी हो।
घायल बीर विराजहिं कैसे, कुसुमित किंसुक के तरु जैसे।
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा, भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा।
एकहि एक सकइ नहिं जीती, निसिचर छल बल करइ अनीती।
क्रोधवंत तब भयउ अनंता, भंजेउ रथ सारथी तुरंता।
नाना विधि प्रहार कर सेषा, राच्छस भयउ प्रान अवसेषा।
रावन सुत निजमन अनुमाना, संकठ भयउ हरिहि मम प्राना।
बीरघातिनी छाड़िसि सांगी, तेज पुंज लछिमन उर लागी।
मुरुछा भई सक्ति के लागे, तब चलि गयउ निकट भय त्यागे।
मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसि आइ।
युद्ध भूमि में घायल वीर कैसे शोभित हैं जैसे फूले हुए पलास के पेड़ लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यंत क्रोध करके एक-दूसरे से भिड़ते हैं। दोनों में से कोई भी एक-दूसरे को जीत नहीं पा रहा। राक्षस छलबल और अनीति (अधर्म) करता है तब भगवान अनंत (लक्ष्मण) क्रोध्रित हुए और उन्होंने तुरंत उनके रथ को तोड़ डाला और सारथी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। शेषनाग के अवतार लक्ष्मण जी उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे जिससे मेघनाद के सिर्फ प्राण ही शेष बचे थे। रावण पुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राणों का संकट आ गया है, लक्ष्मण जी मेरे प्राण हर लेंगे तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलायी वह तेज से परिपूर्ण शक्ति लक्ष्मण जी की छाती में लगी। शक्ति के लगने से उन्हें मूच्र्छा आ गयी। मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया। मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगणित) योद्धा उन्हंे उठा रहे हैं लेकिन जगत के
आधार लक्ष्मण जी उनसे कैसे उठते, तब वे लजाकर चले गये।
सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू, जारइ भुवन चारिदस आसू।
सक संग्राम जीति को ताही, सेवहिं सुर नर अगजग जाही।
यह कौतूहल जानइ सोई, जा पर कृपा राम कै होई।
संध्या भइ फिरि द्वौ वाहनी, लगे संभारन निज निज अनी।
व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर, लछिमन कहां बूझ करुनाकर।
तब लगि लै आयउ हनुमाना, अनुज देखि प्रभु अति दुख माना।
जामवंत कह वैद सुषेना, लंका रहइ को पठई लेना।
धरि लघु रूप गयउ हनुमंता, आनेउ भवन समेत तुरंता।
भगवान शंकर पार्वती जी को राम कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे गिरिजा सुनो-प्रलयकाल में जिन शेषनाग के क्रोध की अग्नि चैदहो भुवनों को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको संग्राम में कौन जीत सकता है प्रभु की इस लीला को वही जान सकता है जिस पर श्रीराम की कृपा हो। भगवान शिव का संकेत उस कथा की तरफ है जो भीलनी से जुड़ी है। सीता जी की खोज करते श्रीराम और लक्ष्मण भीलनी के आश्रम में पहुंचे थे। भीलनी ने मीठे-मीठे बेर खाने को दिये और कोई खट्टा बेर न दे दे इसलिए वह बेरों को पहले चीख लेती है। यह प्रेमभाव प्रभु श्रीराम जान गये और उन्होंने बड़े चाव से बेर खाए लेकिर लक्ष्मण जी को लगा कि भीलनी झूठे बेर खिला रही है इसलिए वे बेर लेकर फेंक देते थे। प्रभु श्रीराम समदर्शी हैं। उन्होंने लक्ष्मण को भी सजा देने में कोई भेद नहीं किया। वही बेर संजीवनी बूटी बने जिनसे लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा हुई। भगवान शंकर इसी प्रसंग को इशारों में समझाते हैं और कहते हैं इस लीला को वही जान सकता है जिस पर प्रभु की कृपा हो।
संध्या होने पर दोनों पक्षों की सेनाएं लौटती हैं। सेनापति अपनी-अपनी सेनाएं संभालने लगे। व्यापक, ब्रह्म, अजेय, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी और करूणा की खान श्रीरामचन्द्र जी ने पूछा कि लक्ष्मण कहां हैं? तब तक हनुमान जी उन्हें ले आए। छोटे भाई को इस दशा में देखकर प्रभु को बहुत दुख हुआ। जाम्ववान ने कहा लंका में सुषेण वैद्य रहता है उसे ले आने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान जी छोटा सा रूप धरकर गये और सुषेण को उसके घर समेत उठा लाए। -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button