अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

रामदरस लगि लोग सब करत नेम उपवास

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

चित्रकूट से भरत जी और राजा जनक समाज समेत अयोध्या की तरफ चले तो इधर पर्णकुटी में प्रभु श्रीराम, सीता जी कौशल्या को परिजनों का वियोग सता रहा है। भरत जी चार दिन की यात्रा के बाद अयोध्या पहुंचे जहां राजा जनक ने राजकाज के बारे में सुझाव दिये और सभी कार्य व्यवस्थित कर जनकपुर लौट गये। अयोध्या के लोग प्रभु श्रीराम के पुनः दर्शन प्राप्त करने के लिए नियम और उपवास करने लगे। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण के साथ आश्रम में लौटे हैं-
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं, प्रिय परिजन वियोग बिलखाहीं।
भरत सनेह सुभाउ सुबानी, प्रिया अनुज सन कहत बखानी।
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी, श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी।
तेहि अवसर खग मृग जल मीना, चित्रकूट चर अचर मलीना।
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की, बरषि सुमन कहि गति घर-घर की।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो, चले मुदित मन डरन खरो सो।
सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर।
प्रभु श्रीराम जी, सीता जी और लक्ष्मण वट वृक्ष की छाया में बैठकर परिजनों और परिवार के वियोग से दुखी हो रहे हैं। भरत जी के स्नेह, स्वभाव और सुन्दर वाणी को बखान-बखान कर वे प्रिय पत्नी सीता जी और छोटे भाई लक्ष्मण से कहने लगे। भरत जी के वचन, मन, कर्म की प्रीति तथा विश्वास को प्रभु श्रीराम ने अपने मुख से वर्णन किया। उस समय पक्षी, पशु और जल की मछलियां, चित्रकूट के सभी चेतन और जड़ जीव उदास हो गये। श्री रघुनाथ जी की दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर की दशा कही अर्थात अपना-अपना दुख सुनाया कि राक्षस किस तरह उन्हें परेशान करते हैं। प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने देवताओं को प्रणाम कर आश्वासन दिया कि आप लोगों की परेशानी शीघ्र दूर होगी। तब देवगण प्रसन्न होकर चले गये और उनके मन में जरा सा भी डर नहीं रहा। छोटे भाई लक्ष्मण जी और सीता जी समेत प्रभु श्रीरामचन्द्र जी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो वैराग्य, भक्ति और ज्ञान शरीर धारण करके शोभित हो रहे हों।
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू, राम बिरहँ सबु साजु बिहालू।
प्रभु मुन ग्राम गनत मन माहीं, सब चुपचाप चले मग जाहीं।
जमुना उतरि पार सब भयऊ, सो बासरू बिनु भोजन गयऊ।
उतरि देव सरि दूसर बासू, रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू।
सई उतरि गोमती नहाए, चैथें दिवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी, राज काज सब साज सँभारी।
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू, तेरहुति चले साजि सबु साजू।
नगर नारि नर गुर सिख मानी, बसे सुखेन राम रजधानी।
राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस।
इधर श्रीराम, लक्ष्मण और सीता जी पर्ण कुटी में बैठे हैं तो उधर मुनि ब्राह्मण, गुरू वशिष्ठ जी, भरत और राजा जनक सारा समाज श्रीरामचन्द्र जी की विरह में बेचैन (विह्वल) है। प्रभु के गुण समूहों का मन में स्मरण करते हुए सब लोग चुपचाप चले जा रहे हैं। पहले दिन सब लोग यमुना जी को उतर कर पार हुए। वह दिन बिना भोजन के ही बीत गया। दूसरा ठहराव गंगा जी को उतर कर गंगापार श्रंगवेरपुर में हुआ। वहां राम सखा निषादराज ने सब अच्छा प्रबंध किया, फिर सई उतरकर गोमती जी में स्नान किया और चैथे दिन सब अयोध्या पहुंचे। राजा जनक चार दिन अयोध्या में रहे एवं राजकाज व सब साज-सामान को संभालकर तथा मंत्री, गुरूजन व भरत को राज सौंपकर सारा साज-सामान ठीक करके तिरहुत को चले गये। नगर के स्त्री-पुरूष गुरू वशिष्ठ की शिक्षा मानकर श्रीराम जी की राजधानी अयोध्या में सुख पूर्वक रहने लगे। सब लोग श्रीराम जी के दर्शन के लिए नियम और उपवास करने लगे। वे भूषण और भोग (सुखों) को छोड़कर श्रीराम के वापस आने की अवधि की आशा में जी रहे हैं।-क्रमशः (हिफी)

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