अध्यात्मप्रेरणास्पद लघुकथा 

देवताओं का गर्व-भंग

तब भी विश्व में पाप और उच्छृंखलता बढ़ती है, तब सर्वव्यापी ब्रह्म किस प्रकार उनका विनाश करके फिर से शांति और व्यवस्था करते हैं। यह बात समझाने के लिए एक ऋषि ने अपने शिष्यों को यह कहानी सुनाई-
हजारों वर्ष पूर्व एक बार देवों और असुरों में युद्ध छिड़ गया। जैसा कि प्रायः देखा जाता है सज्जन शक्तिशाली नहीं होते और जो शक्तिशाली होते हैं, उनमें सज्जनता का अभाव रहता है। कई दिनों के घमासान युद्ध के बाद ऐसा लगने लगा कि जीत असुरों की ही होगी, जो क्रूर शक्तिशाली और अनैतिक थे। तब देवताओं को पराजय से बचाने के लिए देवों ब्रह्मा से सहायता की याचना की, ‘‘हे ब्रह्मन। यदि आप हमारी सहायता नहीं करेंगे तो पृथ्वी पर अन्याय और पाप का राज हो जाएगा। हमें संकट से उबारिए, हे परम पिता।’’
तभी ब्रह्मा की आवाज वातावरण में गंूज उठी, ‘‘जाओ देवो, पूरी शक्ति से युद्ध करो। अंत में विजय हमेशा अच्छाई की होती है।’’
इस दैवीय आश्वासन से बढ़ावा पाकर देवता पुनः युद्ध भूमि में आ डटे और दिव्य शक्ति की सहायता से उन्होंने शीघ्र ही असुरों को हरा दिया। जीत के उपरांत देवो ने अपना विजयोत्सव मनाया और वे महीनों तक खान-पान और आमोद-प्रमोद में मग्न रहे। उस जीत ने उन्हें दंभी बना दिया। हर कोई यही समझने लगा ये जीत उसी के कारण हुई है। सारे देव अपना कर्तव्य भूलकर उत्सव मनाने में ही लगे रहे। इसका परिणाम यह निकला कि चारों ओर हा-हाकार मच गया। सर्वत्र पाप और अव्यवस्था फैल गई। तब ब्रह्मा ने फिर एक बार बीच मतें पड़कर उन्हें सच्चाई की अनुभूति कराई।
एक दिन जब देवता मौज-मस्ती में डूबे हुए थे, एक बहुत बड़ा यक्ष उन्हें दिखाई दे गया। उसे देखते ही इंद्र ने कहा, ‘‘हे अग्निदेव! जाकर तो देखो कि ये कौन है और किसलिए यहां आया है?’’
अग्निदेव यक्ष के पास पहुंचे और यक्ष से बोले, ‘‘मैं अग्निदेव हूं। संसार की हर वस्तु को जलाकर राख कर देने की शक्ति है मुझमें, तुम कौन हो?’
अग्निदेव की दंभ भरी वाणी सुनकर यक्ष उत्तर देने के स्थान पर ठठाकर हंस पड़ा। उसने जमीन पर पड़ा घास का एक तिनका उठाया और उसे अग्निदेव की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें बहुत गर्व है अपनी शक्ति पर। जरा इस तिनके को तो जलाकर दिखाओ। तब मानूंगा कि तुम सचमुच में महान हो।’’ अग्निदेव ने तिनका लिया और अपनी शक्ति को केंद्रित करके उसे आज्ञा दी कि इस तिनके को फूंक डाले।
आग की लपलपाती हुई ज्वालाओं ने तिनके को घेर लिया, पर वह तिनका जला नीं। हताश और अपमानित होकर अग्निदेव महल में लौट गए। वे चकित थे कि यह अद्भुत और शक्तिशाली व्यक्ति कौन हो सकता है?
इंद्र ने इस बार वायुदेव को भेजा। वायुदेव यक्ष के पास पहुंचे। यक्ष ने उनसे पूछा ‘‘आपका परिचय क्या है, मान्यवर?’’
‘‘मैं वायुदेव हूं। चहुं ओर जो हवाएं बहती हैं, उनका मैं स्वामी हूं।’’
‘‘किन-किन शक्तियों से संपन्न हैं, आप?’’ यक्ष ने पूछा।
‘‘मैं किसी भी वस्तु को धरती की सतह से उड़ाकर परे फेंक सकता हूं।’’ वायुदेव दर्प से बोले।
‘‘अच्छा! ऐसी बात है तो इस तिनके को उड़ाकर दिखाइए, जिससे मैं जान सकूं कि सचमुच आप महान हैं।’’ कहते हुए यक्ष ने वह तिनका जमीन पर दिखा। वायुदेव ने प्रचंड हवाएं छोड़ी, परंतु तिनका अपने स्थान से हिला तक नहीं। उनके सारे प्रयत्न विफल हो गए तो जिस प्रकार अग्निदेव थककर और अपमानित होकर अपने महल में लौटे थे, उसी प्रकार वायुदेव को भी लौटना पड़ा। वे यह बात समझ नहीं पाए कि आखिर यह यक्ष कौन!
अंत में इंद्रदेव स्वयं पधारे। अचानक यक्ष अदृश्य हो गया। इंद्र ने चारों ओर दृष्टि डाली, किंतु यक्ष का कहीं अता-पता न था। फिर सहसा इंद्र को आत्मज्ञान की देवी उमा वहां से गुजरती दिखाई दीं। इंद्र शीघ्रता से उमा के पास पहुंचे और पूछा, ‘‘अभी-अभी यहां एक तेजस्वी, देवीप्यामान यक्ष खड़ा था। क्या आपने उसे देखा? कहां चला गया वह? कौन था वह?’’ उमा ने उन्हें तब समझाया, ‘‘हे इंद्र। देवताओं के स्वामी होते हुए भी तुम उसे नहीं पहचान पाए, यह तो बहुत लज्जा की बात है। वायुदेव और अग्निदेव से अधिक शक्तिशाली कौन हो सकता है, तनिक विचार तो करो, देवराज!’’
इंद्र का मुंह खुला का खुला रहा गया? ‘‘तो क्या स्वयं परब्रह्म उस रूप में आए थे।’’
‘‘धन्य हो, इंद्र। देर से सही, तुमने उन्हें पहचान तो लिया। परब्रह्म इस रूप में इसलिए प्रकट हुए कि तुम देवताओं की बुद्धि ठिकाने पर आ जाए। बहुत मना लिया अपनी जीत का आनंद। अब विश्व के पालन के कार्यों में जुट जाओ।’’
देवताओं को अपनी मूर्खता का ज्ञान हुआ और वे सही मार्ग पर आ गए। इस प्रकार परब्रह्म ने संसार में फिर से शांति और व्यवस्था की स्थापना कर दी। (हिफी)

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