अध्यात्म

पुनि रघुनाथ चले बन आगे, मुनिवर वृंद बिपुल संग लागे। अस्थि समूह देखि रघुराया, पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया।

हरि अनंत हरि कथा अनंता

मुनि शरभंग को अपनी अटल भक्ति देकर प्रभु श्रीराम जब आगे बढ़े तो मुनियों का समूह उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। इन मुनियों को निशाचरों ने बहुत तंग कर रखा था। कई ऋषि-मुनियों को मारकर निशाचर खा चुके हैं। उनकी अस्थियों का समूह देखकर प्रभु श्रीराम ने प्रतिज्ञा की अब इस पृथ्वी को मैं निशाचरों से रहित कर दूंगा। यह आश्वासन देकर प्रभु श्रीराम महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण के आश्रम में पहुंचते हैं। सुतीक्ष्ण अविरल भक्ति में लीन हैं और संभवतः यही कारण है कि प्रभु ने गुरू से पहले शिष्य को दर्शन दिये।
पुनि रघुनाथ चले बन आगे, मुनिवर वृंद बिपुल संग लागे।
अस्थि समूह देखि रघुराया, पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया।
जानतहुं पूछिअ कस स्वामी, सबदरसी तुम्ह अन्तरजामी।
निसिचर निकर सकल मुनि खाए, सुनि रघुवीर नयन जल छाए।
निसिचर हीन करउं महि, भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि, जाइ जाइ सुख दीन्ह।
प्रभु श्रीराम शरभंग के आश्रम से आगे बढ़े तो श्रेष्ठ मुनियों के बहुत से समूह उनके साथ हो लिये। उसी समय हड्डियों का ढेर देखकर श्री रघुनाथ जी को बहुत दया आयी और उन्होंने मुनियों से पूछा। मुनियों ने कहा हे स्वामी आप सर्वदर्शी (सर्वज्ञ) हैं, सबके हृदय की बात जानने वाले हैं। जानते हुए भी अज्ञान की तरह हमसे क्यों पूछ रहे हैं। राक्षसों के दलों ने सब मुनियों को खा डाला है, ये उन्हीं की हड्डियों का ढेर है। यह सुनते ही श्री रघुनाथ जी के नेत्रों में जल भर आया। श्रीराम जी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूंगा। इसके बाद प्रभु श्रीराम ने सभी मुनियों के आश्रम में जाकर दर्शन और संभाषण का सुख दिया।
मुनि अगस्ति कर शिष्य सुजाना, नाम सुतीक्षन रति भगवाना।
मन क्रम बचन राम पद सेवक, सपनेहुं आन भरोस न देवक।
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा, करत मनोरथ आतुर धावा।
हे विधि दीनबंधु रघुराया, मो से सठ पर करिहहिं दाया।
सहित अनुज मोहि राम गोर्साइं, मिलिहहिं निज सेवक की नाईं।
मोरे जियं भरोस दृढ़ नाहीं, भगति विरति न ग्यान मनमाहीं।
नहिं सतसंग जोग जप जागा, नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा।
एक बानि करूना निधान की, सो प्रिय जाके गति न आन की।
होइहैं सुफल आजु मम लोचन, देखि बदन पंकज भव मोचन।
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी, कहि न जाइ सो दसा भवानी।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा, को मैं चलेउं कहां नहिं बूझा।
कबहुंक फिरि पाछें पुनि जाई, कबहुंक नृत्य करइ गुन गाई।
अविरल प्रेम भगति मुनि पाई, प्रभु देखैं तरू ओट लुकाई।
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा, प्रगटे हृदयं हरन भव भीरा।
मुनियों को आश्वस्त कर प्रभु श्रीराम आगे बढ़े तो इसकी कथा सुनाते हुए शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि मुनि अगस्त्य के एक शिष्य थे सुतीक्षण जो बहुत ज्ञानी थे। उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, बचन और कर्म से श्रीराम जी के चरणों से सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था। उन्होंने ज्योंही यह सुना कि प्रभु श्रीराम वन में आ रहे हैं त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे शीघ्रता से आतुर होकर दौड़ पड़े। वे कह रहे थे कि हे विधाता! क्या दीनबन्धु श्री रघुनाथ जी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेंगे? क्या स्वामी श्रीरामजी छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित मुझसे अपने सेवक की तरह मिलेंगे? मेरे हृदय में दृढ़ विश्वास नहीं होता क्योंकि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है। मैंने न तो सत्संग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किये हैं और न प्रभु के चरण कमलों में मेरा दृढ़ अनुराग ही है। हां, दया के भण्डार प्रभु की एक बान अर्थात प्रतीज्ञा है कि जिसे किसी दूसरे का सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है। भगवान की इसी बान का स्मरण आते ही मुनि आनंद मग्न होकर मन ही मन कहने लगे अहा, भव बंधन को छुड़ाने वाले प्रभु के मुखार बिन्दु को देखकर आज मेरे नेत्र सफल होंगे। भगवान शंकर पार्वती से कहते हैं कि हे भवानी ज्ञानी मुनि सुतीक्ष्ण श्रीराम के प्रेम में पूर्ण रूप से निमग्न हैं। उनकी वह दशा वर्णन नहीं की जा सकती। मुनि इस तरह दौड़ रहे हैं कि उन्हें दिशा-विदिशा (कोण) और रास्ता कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। मैं कौन हूं, कहां जा रहा हूं, यह भी नहीं जान पा रहे हैं। वे कभी पीछे घूमकर आगे चलने लगते हैं और कभी प्रभु के गुण गा-गाकर नाचने लगते हैं। मुनि ने प्रगाढ़ प्रेम की भक्ति प्राप्त कर ली है। प्रभु श्रीराम एक पेड़ की ओट से छिपकर भक्त की यह दशा देख रहे हैं। मुनि सुतीक्ष्ण का अत्यंत प्रेम देखकर संसार का भय हरण करने वाले श्री रघुनाथ जी मुनि के हृदय में प्रकट हो गये।

हृदय में प्रभु के दर्शन पाकर मुनि सुतीक्ष्ण बीच रास्ते मे ंअचल होकर बैठ गये। उनका शरीर रोमांच से कटहल के समान कांटेदार हो गया। तब श्री रघुनाथ जी उनके पास आ गये और अपने भक्त की प्रेम दशा को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। श्रीराम ने मुनि को बहुत प्रकार से जगाया लेकिन मुनि नहीं जागे क्योंकि उन्हें प्रभु के ध्यान का सुख मिल रहा था, तभी श्रीराम ने अपने राजा के रूप को छिपा लिया और हृदय में अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया, तब अपने इष्ट-स्वरूप श्रीराम के अन्तर्धान होते ही मुनि कैसे व्याकुल हो उठे जैसे श्रेष्ठ मणिधर सर्प मणि के बिना व्याकुल हो जाता है। मुनि ने अपने सामने सीताजी और लक्ष्मण जी समेत श्याम सुंदर विग्रह सुखधाम श्रीराम जी को देखा। प्रेम में मग्न हुए बड़ भागी श्रेष्ठ मुनि लाठी की तरह गिरकर श्रीराम जी के चरणों में लग गये। श्रीरामजी ने अपनी विशाल भुजाओं से पकड़कर
उन्हें उठा लिया और बड़े प्रेम से हृदय से लगाया। कृपालु श्रीरामचन्द्र जी मुनि से मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो सोने के वृक्ष से तमाल का वृक्ष गले लगकर मिल रहा हो। मुनि निस्तब्ध खड़े हुए टकटकी लगाकर श्रीराम जी का मुख देख रहे हैं। उनकी स्थिति लेख में चित्र की तरह हो गयी है। -क्रमशः (हिफी)

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