अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

निर्गुण के उपासक होते हैं विवेकी

गीता-माधुर्य-25

 

गीता-माधुर्य-25
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

।। ऊँ श्रीपरमात्मने नमः ।।
तेरहवाँ अध्याय
जो आपकी (सगुण-साकार रूप की) उपासना करते हैं, वे तो आपको अत्यन्त प्यारे होते हैं, अब यह बताइये कि जो आपके निर्गुण-निराकार रूप की उपासना करते हैं, वे कैसे होते हैं?
भैया! वे विवेकी होते हैं।
विवेक किसका होता है भगवन्?
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का। हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! ‘यह’ रूप से कहे जाने वाले शरीर को ‘क्षेत्र’ कहते हैं और जो इस क्षेत्र को जानता है, उसको ज्ञानी लोग ‘क्षेत्रज्ञ’ (शरीरी) कहते हैं।। 1।।
उस क्षेत्रज्ञ का स्वरूप क्या है?
हे भारत! सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में क्षेत्रज्ञ (शरीरी) – रूप से मैं ही हूँ-ऐसा तू जान।
वह जानना क्या है भगवन्?
क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग है- इसको ठीक- ठीक जानना ही मेरे मतमें ज्ञान है। तात्पर्य है कि क्षेत्र की संसार के साथ एकता है और क्षेत्रज्ञ की मेरे साथ एकता है- इसका ठीक-ठीक अनुभव करना ही मेरे मत में ज्ञान है।। 2।।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान के लिये कौन-सी बातें जाननी आवश्यक होती हैं?
छः बातें जाननी आवश्यक होती हैं- क्षेत्र के विषय में चार और क्षेत्रज्ञ के विषय में दो वह ‘क्षेत्र’ जो है, जैसा है, जिन विकारों वाला है और जिससे पैदा हुआ है तथा वह ‘क्षेत्रज्ञ’ जो है और जिस प्रभाव वाला है, वह सब संक्षेप से तू मुझसे सुन।। 3।।
तो इसका विस्तार से वर्णन कहाँ हुआ है भगवन्?
ऋषियों ने, वेदों की ऋचाओं ने और युक्ति युक्त तथा निश्चित किये हुए ब्रह्मसूत्र के पदों ने इसको विस्तार से अलग-अलग कहा है।। 4।।
वह क्षेत्र क्या है?
मूल प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), समष्टि अहंकार, पाँच महाभूत, दस इन्द्रियाँ, एक मन और इन्द्रियों के पाँच विषय- यह चैबीस तत्त्वों वाला क्षेत्र है।। 5।।
वह क्षेत्र किन विकारों वाला है?
इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर, प्राण शक्ति और धारण-शक्ति- इन सात विकारों सहित यह क्षेत्र मैंने संक्षेपसे कहा है।। 6।।
विकारों सहित क्षेत्र ‘यह’ रूप से (अपने से अलग) कैसे दीखे भगवन्?
1- अपने में श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव।
2- अपने में दिखावटीपन का न होना।
3- शरीर, मन और वाणी से किसी को किंचिन्मात्र भी दुःख न देना।
4-क्षमा का भाव।
5- शरीर, मन और वाणी की सरलता।
6- ज्ञान प्राप्ति के लिये गुरु के पास जाकर उनकी सेवा आदि करना।
7- शरीर और अन्तःकरण की शुद्धि।
8- अपने लक्ष्य से विचलित न होना।
9- मन को वश में करना।
10- इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य होना।
11- अहंकार रहित होना।
12- वैराग्य के लिये जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था और रोगों में दुःखरूप दोषों के मूल कारण को देखना।
13- आसक्तिरहित होना।
14- स्त्री, पुत्र, घर आदि में तल्लीन न होना।
15- अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित्त का सदा सम रहना।
16- संसार से उपरति और मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति का होना ।
17- एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना।
18 – जनसमुदाय में प्रीति का न होना।
19- परमात्मा की सत्ता का नित्य निरन्तर मनन करना।
20- सब जगह परमात्मा को ही देखना।
– इन बीस साधनों से शरीर ‘यह’ रूप से दीखने लग जायगा। शरीर को ‘यह’ रूप से (अपने से अलग) देखना ज्ञान है और इसके विपरीत शरीर को अपना स्वरूप देखना अज्ञान है।। 7-11।।
इस ज्ञान से प्राप्त होने वाला तत्त्व क्या है ?
ज्ञेय-तत्त्व (परमात्मा) है। मैं उस ज्ञेय-तत्त्व का वर्णन करूँगा, जिसको जानने से अमरता की प्राप्ति हो जाती है।
उस ज्ञेय तत्त्व का स्वरूप क्या है ?
वह आदि-अन्त से रहित और परम ब्रह्म है। वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है।। 12।।
तो भी वह कैसा है भगवन् ?
वह सब जगह ही हाथों और पैरों वाला, सब जगह ही नेत्रों सिरों और मुखों वाला तथा सब जगह ही कानों वाला है। वह सभी को व्याप्त करके स्थित है। वह सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित है और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाला है। वह आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाला है। वह गुणों से रहित है और गुणों का भोक्ता है।। 13-14।।
एक ही तत्त्व में दो विरोधी लक्षण कैसे हुए?
अनेक विरोधी भाव उस एक में ही समा जाते हैं और विरोध उसमें रहता नहीं; क्योंकि स्थावर-जंगम आदि सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भी वही है और भीतर भी वही है तथा चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है अर्थात् उसके सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं। दूर से दूर भी वही है और नजदीक से नजदीक भी वही है। वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है अर्थात् इन्द्रियों और अन्तःकरण का विषय नहीं है। इसलिये उसमें विरोध नहीं है।। 15।।
उसमें विरोध न होनेका और कारण क्या है भगवन्? वह परमात्मा विभागरहित होता हुआ भी अनेक विभाग वाले प्राणियों (वस्तुओं) में विभक्त
की तरह स्थित है। वह परमात्मा ही सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने
वाला, उनका भरण-पोषण करने वाला और संहार करने वाला है अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय रूप भी वही है। उस परमात्मा को जानना चाहिये।। 16।। (हिफी) (क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button