रक्तबीज का वध अंबिका द्वारा
दैत्यराज शुंभ को जब चंड और मुंड के मारे जाने का समाचार मिला तो वह स्वयं अंबिका से युद्ध करने आया। उसकी विशाल सेना ने अंबिका और काली को घेर लिया। तब ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा सब देवताओं की शक्तियां जो वैसी ही पराक्रमी और बलवान थीं, नारी रूपों में उनके शरीर से निकलीं। ब्रह्मा के शरीर से ब्रह्माणी, विष्णु के शरीर से वैष्णवी तथा महेश्वर के शरीर से महेश्वरी प्रकट हुईं। अंत में अंबिका के शरीर से चंडिका प्रकट हुईं। वे सैकड़ों शक्तियां सारे आकाश पर छा गईं। फिर भीषण युद्ध छिड़ गया। ब्रह्माणी दैत्यों पर अपने कमंडलु का जल छिड़ककर उनके पराक्रम और ओज को नष्ट करने लगीं। वैष्णवी अपना चक्र, महेश्वरी आपना त्रिशूल तथा अन्य शक्तियां अपने-अपने शस्त्रास्त्र लेकर लड़ने लगीं। दैत्य इन मातृ-शक्तियों के आगे टिक न सके और भाग खड़े हुए। लेकिन महादैत्य रक्तबीज ने उन्हें रोका और उन्हें धिक्कराते हुए बोला ‘‘अरे कायरो। स्त्रियों के सामने पीठ दिखाकर भाग रहे हो। कुछ तो लज्जा करो। अरे तुम पुरुष हो, उन स्त्रियों के सामने जाकर लड़ो।’’
रक्तबीज लड़ने को आया तो इंद्र की शक्ति ने उस पर व्रज का प्रहार किया जिससे उसके शरीर में रक्त का फुहारा-सा फूट पड़ा। लेकिन धरती पर जैसे ही उसका रक्त गिरा उसकी हर बूंद से उसके जैसा ही बलवान राक्षस पैदा होकर शक्तियों से लड़ने लगता। ये नए पैदा हुए असुर मातृ-शक्तियों के हाथों घायल हुए तो उनके लहू से और भी नए दैत्य निकल आए। इस तरह युद्ध का स्थल हजारों रक्तबीजों से भर गया। वे सब मातृत-शक्तियों से लड़ने लगे।
तब चंडिका ने काली से कहा, चामुंडे, रक्तबीज को मारने का एक ही उपाया है इसके रक्त को धरती पर गिरने ही न दिया जाए।
‘‘यह काम मैं करूंगी।’’ काली ने कहा ‘‘अब इसके लहू की एक भी बूंद धरती को रंगने नहीं पाएगी। चंडिका और अन्य शक्तियां उन रक्तबीजों से लड़ने लगीं। जो हजारों रक्तबीज पहले उत्पन्न हो गए थे वे शीघ्र ही नष्ट हो गए। तब असली रक्तबीज को क्रोध चढ़ आया। वह सोचने लगा इसे शीघ्र ही मार डालना चाहिए नहीं तो ये मुझे मार डालेगी।’
ऐसा सोचते ही वह पूरे वेग से चंडिका की ओर लपका। चंडिका ने उस पर प्रहार किया और काली ने उसका रक्त पृथ्वी पर गिरने से रोका तो रक्तबीज भी शीघ्र ही मर गया। रक्तबीज के मरते ही देवता हर्षित हो उठे। उन्हांेने देवियों की जय-जयकार करते हुए उन पर फूल बरसाए।
उधर, जैसे ही रक्तबीज के मरने का समाचार शुंभ और उसके भाई निशुंभ को मिला, वे दोनों विचलित हो उठे। शुंभ बोला, ‘‘निशुंभ, इस नारी को मारने की केवल तुम क्षमता रखते हो।’’
‘‘मैं अभी रणभूमि में जाता हूं, भैया। विश्वास रखो, मैं उसे मारकर ही लौटूंगा।’’ निशुंभ रणभूमि में पहुंचा, लेकिन देवी ने कुछ पलों में उसका हनन कर डाला।
इस बार धरती को कंपाता हुआ शुंभ दुर्गा के सामने पहुंचा और गरजकर बोला, ‘‘दुर्गा! तेरी इस विजय में तेरा तनिक भी गौरव नहीं है। तूने और शक्तियों के बल पर ही मेरे सैनिकों का हनन किया है।’’
‘‘अरे दुष्ट, मैं अकेली ही हूं। इस जगत में मेरे अतिरिक्त दूसरा है ही कौन। ये सब देवियां मेरे ही विभिन्न रूप हैं।’’ दुर्गा ने उत्तर दिया।
निशुंभ के देखते-ही देखते सारी शक्तियां दुर्गा के शरीर में लीन हो गई । अब शुंभ ने दुर्गा को पकड़ा और उछलकर आकाश में चला गया। वहीं दोनों में घोर युद्ध हुआ। फिर दुर्गा ने असुर को धरती पर पटका और अपने शूल के प्रहार से उसके प्राण हर लिए। असुर शुंभ के मरते ही देवताओं के चेहरों पर रौनक लौट आई और वे देवी की स्तुति करते हुए उन पर पुष्प वर्षा करने लगे। (हिफी)
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