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राजा जनक को एकत्व का बोध

अष्टावक्र गीता-18

 

महाज्ञानी अष्टावक्र के उपदेश से राजा जनक को एकत्व बोध हो गया। इस प्रकार राजा जनक को एक नई दृष्टि मिली। संसार पहले उन्हें कभी प्रीतिकर और कभी दुखद लगता था लेकिन अब वह समझ गये कि सुख-दुख, प्रेम-घृणा, अपना-पराया सभी हमारी मानसिक अवस्थाएं हैं। परमात्मा अथवा आत्मा का फैलाव ही यह संसार है। राजा जनक आश्चर्य जताते हुए कहते हैं कि मुझमें स्थित विश्व वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है। संसार और परमात्मा भिन्न नहीं बल्कि एक है।

अष्टावक्र गीता-18

अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्।
न मे बन्धोऽस्तिमोक्षो वा भ्रान्तिः शान्तानिराश्रया।। 18।।
अर्थात: आश्चर्य है। मुझमें स्थित हुआ विश्व वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है। इसलिए न मेरा बन्ध है, न मोक्ष। आश्रय रहित होकर मेरी भ्रान्ति शान्त हो गई है।
व्याख्या: राजा जनक को एकत्व का बोध हो गया कि यह संसार और परमात्मा भिन्न नहीं है। परमात्मा अथवा आत्मा ही है, संसार उसी का फैलाव हैं जब बन्धन होता है तभी मुक्ति की बात सोची जा सकती है। बन्धन का अर्थ कोई दूसरा है जिसने बाँध रखा है वह हम मुक्त होेने के लिए छटपटा रहे हैं। अज्ञान की स्थिति में मैंने संसार को आत्मा से भिन्न समझा था इसलिए संसार से मुक्त होना चाहता था किन्तु अब मुझे ज्ञात हुआ कि यह आत्मा ही है, संसार है ही नहीं, इसलिए अब कोई बन्धन नहीं है। यह संसार जैसे अज्ञान के कारण दिखाई देता था वैसे ही यह बन्ध भी अज्ञान के कारण ही था। यह संसार मिथ्या था तो बन्धन भी मिथ्या थे। जब बन्धन है तो मोक्ष भी मिथ्या है। दोनों ही असत्य हैं। मैं आश्रय रहित हूँ, मेरा कोई आश्रय नहीं है अतः इस अज्ञान रूपी बन्ध और मोक्ष की भ्रान्ति दूर हो गई है। अज्ञानावस्था में मुझमें विश्व स्थित था किन्तु अब यह सारा भ्रम मिट गया है। अब मैं आत्मवान हूँ एवं विश्व मुझ में स्थित नहीं है। मैंने अज्ञान वश अपने को देह, इन्द्रियादि, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वर्ण व आश्रम वाला, कत्र्ता, भोक्ता आदि न जाने क्या-क्या समझा। यही मेरा संसार था व यही बन्ध था। अब संसार मुझमें नहीं है इसलिए कोई बन्ध नहीं है तथा बन्ध नहीं तो मोक्ष भी नहीं है।

सूत्र: 19
सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितम।
शुद्ध चिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन्कल्पनाऽधुना।। 19।।
अर्थात: निश्चय ही शरीर युक्त यह विश्व कुछ भी नहीं है यह शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मा है तो इसकी कल्पना ही किसमें है।
व्याख्या: राजा जनक कहते हें कि शरीर युक्त यह विश्व अर्थात् यह सारा विश्व कुछ भी नहीं है। इसका स्वतन्त्र कोई अस्तित्व नहीं है। यह शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा ही है। आत्मा निराकार है उसी की साकार अभिव्यक्ति यह विश्व है। अतः यह आत्मा से भिन्न नहीं है बल्कि आत्मा की है ऐसा मुझे निश्चय हो चुका है। फिर इसकी किसमें कल्पना की जाये। कल्पना में दो की आवश्यकता होती है जैसे रस्सी में साँप की कल्पना करना तो इसमें रस्सी है और उसमें साँप की कल्पना की जाती है किन्तु जब यह विश्व आत्मा की है तो फिर इसकी किसमें कल्पना की जाये।

सूत्र: 20
शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा।
कल्पनामात्रमेवैतत्किमे कार्यं चिदात्मनः।। 20।।
अर्थात: यह शरीर, स्वर्ग, नरक, बन्ध, मोक्ष व भय कल्पना मात्र ही हैं। उससे मुझे चैतन्य आत्मा का क्या प्रयोजन।
व्याख्या: इसी क्रम में जनक कहते हैं कि यह शरीर, स्वर्ग, नरक, बन्ध, मोक्ष व भय कल्पना मात्र हैं। इसका अर्थ है अज्ञानी के लिए इनका प्रयोजन है एवं सत्य भी है। अज्ञानी अहंकारवश शरीर में ही जीता है, शरीर में ही मरता है, अहंकार के कारण वह कत्र्ता भी है, भोक्ता भी है, वह अपने कर्मों का फल भोगता है, मन के उपस्थित रहने से उसे स्वर्ग-नरक की अनुभूतियाँ भी होती हैं, वह बन्धन में भी है जिससे बार-बार जन्म लेना पड़ता है, वह स्वर्ग, नरक से भयभीत भी है किन्तु जिसने आत्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया उसके लिए ये सब कल्पना मात्र है, वास्तविक नहीं है।

सूत्र: 21
अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम्।। 21।।
अर्थात: आश्चर्य है कि जन समूह में भी मुझे द्वैत दिखाई नहीं देता है। यह अरण्यवत् हो गया है तो फिर मैं किससे प्रेम करूँ।
व्याख्या: राजा जनक को एक नई दृष्टि मिल गई। संसार वहीं का वहीं था किन्तु उनके देखने का ढंग बदल गया। जो संसार पहले उन्हें प्रीतिकर या दुःखद लगता था वह अब न प्रीतिकर रहा, न दुःखद। सुख और दुःख, प्रेम और घृणा, अपना-पराया सब मानसिक अवस्थाएँ मात्र हैं। आत्मा के लिए वह केवल ‘हैं’। उससे कोई लगाव नहीं, न अच्छा, न बुरा। यह भेद ही समाप्त हो गया। उसकी उपस्थिति को केवल दृष्टाभाव से देख रहे हैं। पहले राजा जनक शरीर, स्वर्ग, नरक, बन्ध, मोक्ष, भय एवं विश्व को कल्पना मात्र कहते हैं अब उन्हें यह सम्पूर्ण जन समूह भी वन के समान दिखाई दे रहा है। उसमें भी कहीं द्वैत दिखाई नहीं देता कि ये मनुष्य भिन्न-भिन्न है, इनमें आत्माएँ भिन्न-भिन्न हैं, ये मित्र, शत्रु, प्रेमी अािद हैं। इनके प्रति व्यक्तिगत मान्यताएँ सारी समाप्त हो गईं। इस जन समूह में भी एकत्व भाव दिखाई दिया, आत्मवत् दिखाई दिया। संकीर्णता के समस्त दायरे टूट गये, जाति, धर्म, भाषा, सम्प्रदाय, लिंग, राष्ट्रीयता आदि विश्व बन्धुत्व की भावना का उदय हो गया। यह था ज्ञान का महत्व। अज्ञानी की जो भिन्न-भिन्न मानने की दृष्टि थी, खण्ड-खण्ड में देखने की दृष्टि थी वह दृष्टि भी विलीन हो गई। बच गया एकमात्र अस्तित्व। यही परम ज्ञान राजा जनक को गुरु-कृपा से उपलब्ध हुआ। मिथ्या का त्यागकर जनक सत्य को उपलब्ध हो गये।

सूत्र: 22
नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित्।
अयमेव हि मे बंध असीद्या जीविते स्पृहा।। 22।।
अर्थात: न मैं शरीर हूँ, न मेरा शरीर है, मैं जीव नहीं हूँ निश्चय ही मैं चैतन्य मात्र हूँ। मेरा यही बन्ध था कि मेरी जीने में इच्छा थी।
व्याख्या: राजा जनक अपने आत्म ज्ञान की स्थिति में अध्यात्म जगत् की जिस ऊँचाई को थोडे़ से उपदेश से छू पाये वैसी ही ऊँचाई कुछ को ही प्राप्त हुई है। यह सचमुच अद्भुत है। एक ही झटके में समस्त बाधाओं को पार कर, समस्त बन्धनों को तोड़कर सुमेरू पर्वत पर जा खड़े हुए एवं समस्त विश्वप्रपंच को दृष्टा की भाँति देखने लगे। इस सूत्र में वे जीने की इच्छा को बन्ध मानकर उसे भी तोड़ देते हैं। जीने की इच्छा भी बन्ध है इसे समझना आवश्यक है। जनक कहते हैं कि मैं चैतन्य मात्र हूँ इसलिए न मैं शरीर हूँ, न मेरा शरीर है अर्थात् शरीर आत्मा नहीं है एवं आत्मा का कोई शरीर नहीं है। वह अशरीरी है। सभी शरीर उससे भिन्न नहीं हैं। भिन्न होने पर ही ‘मेरा’ कहा जा सकता है। मैं जीव भी नहीं हूँ। जन्म-मृत्यु को प्राप्त होने वाला, अहंकार, लोभ, मोह आदि अवगुणों वाला यह जीव है। मैं चैतन्य-आत्मा जीव नहीं हूँ। पंचतन्मात्राओं से बना हुआ तथा सोलह तत्वों के रूप में विकसित यह त्रिगुणमय संघात ही लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) है। यह चेतना-शक्ति से युक्त होकर ‘जीव’ कहलाता है। (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पाँच तन्मात्राएँ हैं। इनसे पंच भूतों की रचना हुई-आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी। ये पंच भूत, दस इन्द्रियाँ तथा मन इन सोलह तत्वों के रूप में विकसित तथा सत्व, रज, तम तीन गुणों से युक्त यह लिंग शरीर है। यह चेतन-शक्ति आत्मा के साथ संयुक्त होकर ही जीव कहलाता हे। इसलिए जनक कहते हैं कि मैं केवल चैतन्य मात्र हूँ। जीव नहीं हूँ।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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