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अहंकार कभी तृप्त नहीं होता

अष्टावक्र गीता-5

 

अष्टावक्र गीता-5

हिफी अपने पाठकों को ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणा देने वाले आध्यात्मिक आलेख समय-समय पर मुहैया कराता रहता है। रामचरित मानस पर आधारित ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता के बाद श्रीमद्भागवत गीता की विशद् व्याख्या को क्रमबद्ध जारी करने के बाद हम महाज्ञानी अष्टावक्र और विदेह कहे जाने वाले राजा जनक के मध्य संसार और मुक्ति पर, ज्ञानी और मूर्ख पर संवाद को क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। महात्मा अष्टावक्र शरीर से वक्र थे लेकिन प्रखर मेधा प्राप्त की थी। वे जब 12 वर्ष की उम्र के थे तभी राजा जनक के दरबार में विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान हंस पड़े तो अष्टावक्र ने उन्हंे चर्मकार कहा। राजा जनक को यह अपमानजनक लगा लेकिन जब अष्टावक्र ने कहा कि ये लोग मेरे शरीर (चमड़ी) को देखकर हंसे, आत्मा नहीं देखी तो शरीर को देखने वाले चर्मकार ही हो सकते हैं….। राजा जनक इससे बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों मंे शिष्य की तरह बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। राजा जनक ने ज्ञान, मुक्ति और बैराग्य के बारे मंे अष्टावक्र से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया था। -प्रधान सम्पादक

इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि ‘मैं कत्र्ता हूं।’ ऐसे अहंकार रूपी विशाल काले सर्प से दंशित हुआ तू ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ ऐसे विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो। यह ‘मैं’ अथवा अहंकार अनन्त भिखमंगा है। इसे चाहे कितना भी भरो यह खाली ही रहता है। सिकन्दर जैसा विश्व विजेता भी कहता है, ‘मैं खाली हाथ जा रहा हूँ।’ इस दुनियाँ का सारा खेल अहंकार का ही है। वह अपने को कुछ दिखाना चाहता है। मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत कम हैं जिन्हें आसानी से पूरा किया जा सकता है किन्तु उसके अधिकांश कार्य अहंकार-तृप्ति के लिए ही होते हैं। यह अहंकार कठिन एवं असाध्य कार्य करने में रुचि लेता है जैसे सिर के बल चलना, एक टाँग पर खड़ा रहना, तप करना, नग्न रहना, लम्बे उपवास करना, एवरेस्ट पर चढ़ना, लम्बी समाधि लगाना, हठयोग करना आदि। यह आदमी का अहंकार ही है कि वह अपने को सभी पशुओं से श्रेष्ठ समझता है। इस अहंकार ने ही पृथ्वी को समस्त ब्रह्माण्ड का केन्द्र माना, अपने को देवताओं की सन्तान माना, हमारा देश महान्, हमारा धर्म महान्, हमारी जाति महान् है, मैं महान्, आदि सब अहंकार की ही घोषणाएं हैं। यह अहंकार एक रोग है जो जीवन में सिखाया जा रहा है, ये शिक्षण-संस्थाएँ, समाज सभी सिखा रहे हैं।
अहंकार के अतिरिक्त जीवन में और कोई बोझ नहीं, कोई तनाव नहीं है, न कोई बन्धन है। अहंकार हमेशा चाहता ही है, देता नहीं है। देने वाला निरहंकारी हो जाता है। यह चाह ही दुःख का कारण है। जितना चाहोगे जीवन में उतना ही दुःख होगा। यह सुखी होने का मार्ग नहीं है। ईश्वर ने अपना बहुमूल्य ज्ञान मनुष्य को दे दिया किन्तु मनुष्य उससे सन्तुष्ट नहीं है। इसका एकमात्र इलाज धर्म है। जिस दिन अहंकार गिर गया, उस दिन यह कत्र्तापन भी गिर जायेगा व उसी क्षण मनुष्य ईश्वर की समीपता का अनुभव करने लगेगा। अहंकार साहस व शौर्य दिखा सकता है, तपस्या कर सकता है, भूखा रह सकता है, एवरेस्ट पर चढ़ सकता है। राजनेता बन सकता है, किन्तु वह समर्पित नहीं हो सकता, भक्त नहीं बन सकता। ऐसा व्यक्ति यदि कर्मयोगी बन जाये तो अहंकार गिर सकता है। इस अहंकार की भी संसार के लिये तो उपयोगिता है किन्तु अध्यात्म से वह गिर जाता है। उसका नैतिक पतन हो जाता है। वह स्वार्थी बनकर चोरी, हत्याएँ, शोषण, हिंसा सब कर सकता है। ऐसे अहंकारियों ने अपनी अलग ही दुनियाँ बसा ली है जो इस अध्यात्म की दुनियाँ से सर्वथा भिन्न है। इसी कारण बाइबल में शैतान को ईश्वर के समान ही शक्तिशाली माना गया है भारत ने इसी शैतान (अहंकार) को मूलपाप माना है। अन्य समस्त प्रकार के पाप अनैतिकता आदि इसी की सन्तानें हैं। अहंकार बड़े परिवार वाला है व इसका संयुक्त परिवार है। यदि अहंकार है तो नरक जाने के लिए और किसी पाप की आवश्यकता नहीं है। सब पाप अपने आप होते चले जायेंगे। करने नहीं पड़ेंगे। इसलिए अष्टावक्र ने इस अहंकार को विशाल काला सर्प कहा है। यह छोटा-मोटा भी नहीं है, विशाल है और साधारण भी नहीं है, काला सर्प है। साथ ही अष्टावक्र केवल इस बीमारी का निदान ही नहीं करते बल्कि इलाज भी बताते हैं कि इस अहंकार को गिराने का मात्र उपाय यह है कि मनुष्य ‘मैं’ से मुक्त हो जाये, ‘मैं कत्र्ता नहीं हूँ, यह सृष्टि अपने विशिष्ट नियमों से चल रही है, परमात्मा ही एकमात्र कत्र्ता है’ ऐसा विश्वास पूर्वक मान लेना ही अहंकार मुक्ति के लिये पर्याप्त है। इसी से मनुष्य सुखी हो सकता है।
अहंकारी व्यक्ति को सुखी करना मुश्किल है एवं निरहंकारी को दुःखी नहीं किया जा सकता। अष्टावक्र इसके लिए कोई विधि, साधना, तपस्या भी नहीं बताते। वे कहते हैं-देखो इस तरह, दृष्टिगत बदलो, पूर्ण विश्वास एवं निष्ठापूर्वक, तो निश्चित ही परिवर्तन आ जायेगा। बोध मात्र पर्याप्त है। यह गलत दृष्टि ही तुम्हारे दुःखों का कारण है। गलत दृष्टि यह कि तुम अपने को उस एक अस्तित्व के साथ नहीं मानते, अपनी ढपली अलग ही बजाये जा रहे हो, सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते कि तुम समग्र के ही एक हिस्से हो, अलग नहीं हो। न जन्म पर तुम्हारा अधिकार है, न मृत्यु पर। बीच में व्यर्थ ही कत्र्ता बने बैठे हो। अष्टावक्र ने इस सूत्र में जो सारगर्भित था, वह कह दिया। कोई विश्वासपूर्वक इसे अमृत के समान पी जाये तो सुखी हो सकता है।
एको विशुद्ध बोधोव्योऽहमिति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव।। 9।।
अर्थात: ‘मैं एक विशुद्ध बोध हूँ’ ऐसी निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान को जलाकर तू शोक रहित हुआ सुखी हो।
व्याख्या: अष्टावक्र केवल निषेध की बात ही नहीं करते कि अहंकार छोड़ दो तो ज्ञान होगा। केवल छोड़ना ही प्राप्त करने की आवश्यक शर्त नहीं है। निषेध वाले धर्म केवल छोड़ने की बात करते हैं, त्याग की बातें करते हैं, सब छोड़ दो। घर-बार, पत्नी, बच्चे, कपड़े सब छोड़ दो, जंगल चले जाओ, भूखे रहो, भीख माँगकर खाओ आदि। इस छोड़ने की शिक्षा ने दुनिया का बहुत अहित किया है। छोड़ सब दिया किन्तु मिला कुछ नहीं। ऐसे व्यक्ति की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई। वह मार्ग से ही भटक गया। धोबी का गधा बन गया, न घर का, न घाट का। किन्तु अष्टावक्र विधायक हैं। वे कहते हैं-अहंकार मात्र छोड़ देने से, कत्र्तापन छोड़ देने से वह परम मिल ही जाये यह आवश्यक नहीं है। फिर छूटने की भ्रान्ति भी हो सकती है किन्तु वह सूक्ष्म तल पर विद्यमान रहता है। यह मान लेने से कि अन्धकार विलुप्त नहीं हो जाता। दीप जलाने से ही दूर होगा। अष्टावक्र इसलिये विश्वास दिलाते हुए कहते हैं कि आत्मज्ञान के लिए तू यह निश्चय पूर्वक मान ले कि मैं विशुद्ध बोध स्वरूप आत्मा हूँ। तो तेरा अज्ञान रूपी अन्धकार चाहे कितना ही घना क्यों न हो एक क्षण में विलीन हो जायेगा। अज्ञान का अस्तित्व नहीं है। वह ज्ञान का अभाव मात्र है। जब तक ज्ञान नहीं है, अज्ञान रहेगा। किन्तु ज्ञान का उदय होते ही वह लुप्त हो जाता है। इस ज्ञान प्राप्ति के बाद ही मनुष्य शोक रहित होकर सुखी हो सकता है। अज्ञान के रहते वह कभी शोक रहित नहीं हो सकता। अज्ञान के कारण मनुष्य की अनेक अपेक्षाएँ होती हैं। जब अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो वह दुःखी होता है। अपेक्षा रहित जीना भी एक कला है। जो मिला है वह अमूल्य है, इसी में सन्तोष करके जीना, कृतज्ञ भाव से जीना ही परम सुख है। जितनी अपेक्षाएँ बढ़ती हैं, दुःख उससे कई गुना बढ़ जाता है। जीवन में ऐसा कभी किसी के साथ
नहीं हुआ कि उसकी सम्पूर्ण अपेक्षाएँ पूरी हो गई हों। यह जानते हुए भी मनुष्य अपेक्षाएँ किये जा रहा है,
वह दुःखी होता है। इसका कारण वह स्वयं ही है। कोई दूसरा नहीं है। यह अज्ञान ही है जो विशुद्ध बोध से ही
नष्ट हो सकता है। समझ ही पर्याप्त है। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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