सम-सामयिक

राजपूतों को लेकर सियासत

 

चर्चा है कि राजपूत समाज भाजपा से नाराज है खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस नैरेटिव को सेट करने की कोशिश की गई है और इसके लिए कोई रुपाला प्रकरण को लेकर भाजपा को निशाने पर ले रहे हैं तो कोई राजपूत दावेदारों के टिकट काटे जाने को लेकर भाजपा से बगावत की बात कर रहे हैं। सच्चाई क्या है? यह तो 4 जून को ही पता चलेगा।

हालांकि पिछले एक-डेढ़ दशक से राजपूत मतदाताओं की भाजपा पहली पसंद बनी है खासकर विश्वनाथ प्रताप सिंह चंद्रशेखर दिनेश सिंह आदि राजपूत नेताओं के अवसान के बाद पश्चिम यूपी का राजपूत समाज ठाकुर अमर सिंह से जुड़ा लेकिन यह जुडाव ज्यादा दिन नहीं चल सका क्योंकि समाजवादी पार्टी अमर सिंह का इस्तेमाल कर उनका अपमान करने से भी बाज नहीं आई। उधर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह अपनी हिन्दू समाज के प्रति पूर्वाग्रह युक्त मानसिकता के चलते राजपूतों में सर्वग्राह्य नही बन सके। इस के विपरीत कल्याण सिंह राजनाथ सिंह योगी आदित्यनाथ जनरल वीके सिंह जैसे नेताओं की कतार राजपूत समाज का यथोचित सम्मान व हिस्सेदारी देकर राजपूतों में लोकप्रिय बनी रही लेकिन अठारहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव में जनरल वीके सिंह को टिकट नहीं दिया गया। इसी बात को मुद्दा बनाकर सपा समर्थक कुछ नेताओं ने राजपूत समाज को भाजपा का विरोध करने के लिए हर सम्भव कोशिश शुरू कर दी। इसी सिलसिले में पश्चिमी यूपी में सहारनपुर के नानौता हापुड़ के धौलाना में राजपूत स्वाभिमान सम्मेलन आयोजित किए गए इन सम्मेलन में नरेंद्र मोदी और भाजपा के खिलाफ जमकर बयानबाजी की गई हालांकि इन सम्मेलन में खास भीड़ नहीं जुट सकी। मामले की गंभीरता को देखते हुए डेमेज कंट्रोल के लिए भाजपा ने आनन फानन में कदम उठाए और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी की सभाएं पश्चिमी यूपी में आयोजित कर राजपूत समाज को साधने का संदेश दिया।

अब सवाल यह है कि राजपूत समाज बीजेपी को वोट नहीं करेंगे , तो किसको करेंगे ?दरअसल राजपूत समाज राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित रहा है ऐसे में वह भाजपा के साथ अपने जुडाव को इतना आसानी से नहीं खत्म कर सकता है। फिर यह दौर तो सम्पूर्ण परिवर्तन का दौर है जब एक ओर कथित धर्मनिरपेक्षता वादी दल जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता की आड़ में पग पग पर मुस्लिम तुष्टिकरण कर देश में विघटन और आतंकवाद नक्सलवाद के हालात पैदा कर दिए। ऐसे में यदि राजपूत समाज राष्ट्रवाद से इतर कोई समझौता करता है तो यह वही मानसिकता हुई जो 1576 में दम्भ और आपसी तकरार के चलते कुछ राजाओं ने दिखाई। बताया जाता है कि राजस्थान के बहुत से प्रभावी लोग राणा प्रताप (जो देश प्रेम के प्रतीक थे) के साथ नहीं थे। अकबर की गुलामी उन्हें मंजूर थी। राणा प्रताप की सेना में सिसोदिया और गहलौत राजपूतों के अलावा बहुत से आदिवासी और पिछड़े समाज के लोग भी थे। आज राणा प्रताप सभी के हीरो हो गए, उनके भी जिनके पुरखों ने हल्दी घाटी में अकबर का साथ दिया। आरोप तो यहां तक है कि राजस्थान के अधिकांश राजा राणा के विरोध में शामिल थे ?

25 साल का योद्धा महाराज संभा जी अहमद शाह अब्दाली से पानीपत की तीसरी लड़ाई इसलिए हार गया क्योंकि उस समय आपसी गिले शिकवे के चलते राजपूतों ने साथ नहीं दिया। इनकार कर दिया। वो नहीं चाहते थे कि उनके बीच से कोई अन्य हिन्दू देश में सर्वोपरि हो जाये। इन दो महान युद्धों में जो हारे वो तो अमर हो गए। ऐसी मान्यता है कि अगर हमारे पूर्वज इन दो युद्धों में राणा के साथ या शम्भाजी के साथ आ गए होते तो इस देश से मुगलों का शासन शायद 1576 में या फिर 1761 में ही खत्म हो गया होता।

यह देश राजपूतों के 650 साल के इतिहास पर गर्व करता है। बप्पा रावल, राणा सांगा जैसे सैकड़ो महान राजपूत हमें गौरव का अहसास कराते हैं लेकिन इस इतिहास में आपसी तकरार के चलते मुगलों के समर्थन करने के कई काले धब्बे भी हैं। इनको भी कोई न कोई आपको याद दिलाता रहेगा। वो गुजरात के भाजपा नेता केंद्रीय मंत्री रूपाला के एक बयान को लेकर राजपूतों को भाजपा के खिलाफ खूब उकसाया जा रहा है। हालांकि रूपाला ने अपने बयान में यही इतिहास उदधृत किया था। रूपाला ने राजपूत समाज को नहीं, केवल राजा महाराजाओं को बोला। फिर राजपूतों में राजा महाराजा एक अलग लोग थे। 99.99 प्रतिशत राजपूत उनके लिए प्रजा थे। क्या हर राजपूत राजा था? कुछ लोग आज भी राजा हैं, तभी तो उनका अवयस्क 14 साल का बेटा जब गांव में आता है तो 45 से 60 साल के समाज के लोगों से पैर छूआ लेने की हिमाकत करते हैं? यदि उत्तर प्रदेश की बात करते हैं आदित्यनाथ योगी राजनाथ सिंह जनरल वीकेसिंह सबको देश हित में बीजेपी ने शीर्ष पदों पर पहुँचाया। आप सोचते होंगे कि ये राजपूत हैं, और इसलिए ये ऊपर पंहुचे तो ये आपकी भूल है। असल में ये इनकी योग्यता का कमाल है।

एक रिपोर्ट के अनुसार जनसँख्या के हिसाब से उत्तर प्रदेश का 2024 का इलेक्शन देखते हैं। कुलसीट 80 में हिस्सेदारी 5 सीट की बनती है बीजेपी से जो सीटें मिली अभी तक 10, जो की 12 प्रतिशत है। लखनऊ-राजनाथ, सिंह, मुरादाबाद-सर्वेश सिंह, बलिया-नीरज शेखर, मैनपुरी-जयवीर सिंह, डुमरियागंज-जगदंबिका पाल, जौनपुर-कृपाशंकर सिंह, गोंडा-कीर्तिवर्धन सिंह, फैजाबाद-लल्लू सिंह, हमीरपुर-पुष्पेंद्र सिंह चंदेल, अकबरपुर-देवेंद्र सिंह भोेले आदि सीटें मिली है।

सवाल है कि राजपूत बीजेपी को क्यों हराएंगे। मौजूदा आकलन बता रहा है कि 80 फीसद राजपूत बीजेपी के साथ था और आज भी है बाकि 10 फीसद कांग्रेस के टूल किट का हिस्सा हैं। 10 फीसद अभी अनिश्चितता की स्थिति में है। कोई रूपाला से नाराज होकर राजपूतों को भगवान राम की कसमें दिला रहा है कि बीजेपी को वोट नहीं देना। कुछ नहीं होना। आज कांग्रेस इस बात की लड़ाई लड़ रही है कि बीजेपी को 400 नहीं लेने देंगे। इनको 10, 15 सीट कम पर रोक देंगे, जिससे बीजेपी संविधान में बदलाव न ला पाए। सरकार बनाने की तो कोई लड़ाई ही नहीं है। प्रश्न तो केवल एक है कि राजपूत आखिर क्या चाहते हैं कि बीजेपी 400 सीट लेकर संविधान में वो बदलाव लाये जो नेहरू और राजीव ने हिन्दुओं के खिलाफ लागू किया। दरअसल राजपूत सदैव राष्ट्रवाद का पोषक रहा है। इन हालातों में हालाकि मनमुटाव बढ़ाने की कोशिश की गई है और इसके पीछे विपक्ष की बड़ी साजिश है लेकिन राजपूत समाज अपनी जगह अटल है और भाजपा से उसका मोह भंग नहीं हुआ है और यदि इस साजिश से राजपूत समाज प्रभावित होता है तो वह राष्ट्रवादी राजनीति का बहुत बड़ा नुकसान आहूत कर रहा है। (हिफी)

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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