अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

मन चंचल, जिद्दी व बलवान

गीता-माधुर्य-15

 

गीता-माधुर्य-15
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

योगी के उस चित्तकी क्या अवस्था होती है?
जैसे स्पन्दन रहित वायु के स्थान पर रखे हुए दीपक की लौ थोड़ी-सी भी हिलती-डुलती नहीं, ऐसी ही अवस्था ध्यान योग का अभ्यास करने वाले योगी के स्थिर चित्त की हो जाती है।। 19।।
चित्त की ऐसी अवस्था होने पर क्या होता है?
योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त जब समाधि के सुख से भी उपराम हो जाता है, तब योगी अपने-आप में अपने-आपको देखता हुआ अपने-आप में सन्तुष्ट हो जाता है।। 20।।
अपने-आप में सन्तुष्ट होने पर क्या होता है?
योगी को सीमा रहित, इन्द्रियों से अतीत और बुद्धि से ग्रहण करने योग्य सुख का अनुभव होता है। ऐसे वास्तविक सुख में स्थित होने पर वह ध्यान योगी फिर कभी अपने स्वरूप से विचलित नहीं होता।। 21।।
वह किस कारण से विचलित नहीं होता?
वह जिस लाभ (सुख) को प्राप्त करता है, उससे बढ़कर कोई दूसरा लाभ उसके मानने में भी नहीं आता और उसमें स्थित होने पर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह जिस स्थिति में स्थित है, उसमें सुख की तो कमी रहती नहीं और दुःख वहाँ पहुँचता नहीं।। 22।।
ऐसे विलक्षण सुख को प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिये?
जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है अर्थात् जिसमें संसार के साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद है, उसी को ‘योग’ नाम से जानना चाहिये। ऐसे योग को न उकताये हुए चित्त से निश्चय पूर्वक प्राप्त करना चाहिये ।। 23।।
अपने स्वरूप के ध्यान से जिस योग (साध्य रूप) की प्राप्ति होती है, उसकी प्राप्ति का और भी कोई उपाय है?
हाँ, निर्गुण-निराकार का ध्यान है। संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके और मनसे इन्द्रिय- समूह को सभी ओर से हटाकर धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा धीरे- धीरे संसार से उपराम हो जाय और सब जगह परिपूर्ण परमात्मा में मन-बुद्धि को स्थिर करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे।। 24-25।।
अगर चिन्तन हो जाय तो?
अभ्यास करें अर्थात् यह अस्थिर और चंचल मन जहाँ- जहाँ जाय, वहाँ वहाँ से हटाकर इसको लगायें।। 26।।
ऐसा करने से क्या होगा?
रजोगुणी वृत्तियों से रहित शान्त मन वाले पाप रहित और ब्रह्मस्वरूप योगी को उत्तम (सात्त्विक) सुख की प्राप्ति होगी।। 27।।
उसके बाद क्या होगा?
अपने-आपको सदा परमात्मा में लगाते हुए उस पाप रहित योगी को सुख पूर्वक ब्रह्मस्वरूप अत्यन्त सुख की प्राप्ति हो जायगी।। 28।।
यहाँ तक आपने सगुण-साकार का, अपने स्वरूप का और निर्गुण-निराकार का ध्यान करने वालों का वर्णन कर दिया, पर वे संसार को किस दृष्टि से देखते हैं, इसका वर्णन नहीं किया। अब भगवन! यह बताइये कि अपने स्वरूप का ध्यान करने वाला इस संसार को किस दृष्टि से देखता है?
ध्यान योग से युक्त अन्तःकरण वाला वह योगी अपने- आपको (स्वरूप को) सम्पूर्ण प्राणियों में देखता है और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने-आपमें (स्वरूप में) देखता है, इसलिये वह समदर्शी होता है।। 29।।
जो आपके सगुण-साकार स्वरूप का ध्यान करता है, वह इस संसार को किस दृष्टि से देखता है?
वह सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, इसलिये उसके सामने मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे सामने अदृश्य नहीं होता।। 30।।
आप और वह योगी-दोनों एक-दूसरे के लिये अदृश्य क्यों नहीं होते?
वह सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरे साथ एक होकर मेरा भजन करता है, इसलिये वह सबके साथ यथोचित बर्ताव करता हुआ भी नित्य निरन्तर मुझमें ही स्थित रहता है। फिर हम दोनों एक-दूसरे के लिये अदृश्य कैसे हो सकते हैं? नहीं हो सकते।। 31।।
जो आपके निर्गुण-निराकार स्वरूप का ध्यान करता है, वह इस संसार को किस दृष्टि से देखता है?
जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने शरीर के अंगों में तथा उनके सुख-दुःख में अपने को समान देखता है, ऐसे ही वह योगी अपने शरीर की उपमा से सम्पूर्ण प्राणियों में तथा उनके सुख-दुःख में अपने को देखता है इसीलिये वह योगी माना गया है।। 32।।
अर्जुन बोले- अभी तक आपने समता की प्राप्ति के लिये जिस
ध्यान योग का वर्णन किया, हे मधुसूदन! मन की चंचलता के कारण उस ध्यान योग में स्थिर स्थित रहना मुझे बड़ा कठिन दिखायी देता है, क्योंकि हे कृष्ण! मन बड़ा ही चंचल, प्रमथनशील, बलवान् और जिद्दी है। उसका निग्रह करना मैं वायुका निग्रह करने की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।। 33-34।।
भगवान् बोले- तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। महाबाहो, वास्तव में यह मन बड़ा चंचल है और इसका निग्रह करना बड़ा कठिन है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्य से इसका निग्रह किया जाता है। इसलिये जिसका मन और इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उसके द्वारा ध्यान योग सिद्ध होना कठिन है, परन्तु जिसका मन और इन्द्रियाँ वश में हैं, उसके द्वारा ध्यान योग सिद्ध हो सकता है – मेरा मत है।। 35-36।।
अर्जुन बोले- हे कृष्ण ! जिसकी साधन में श्रद्धा है, पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, ऐसे साधक की अन्तकाल में साधन में स्थिति न रहे तो वह योग सिद्धि को प्राप्त न करके किस गति में जाता है? संसार के आश्रय से रहित और परमात्म प्राप्ति के मार्ग से विचलित उभय भ्रष्ट साधक छिन्न-भिन्न बादल की तरह नष्ट तो नहीं हो जाता? हे कृष्ण ! यह मेरा सन्देह है। मेरे इस सन्देह को आप ही सर्वथा मिटा सकते हैं, क्योंकि इस सन्देह को आपके सिवा दूसरा कोई मिटा ही नहीं सकता।। 38-38।।
भगवान् बोले- पार्थ! उसका न तो इस लोक में और न परलोक में ही पतन होता है, क्योंकि है प्यारे! कल्याणकारी काम करने वाला कोई भी साधक दुर्गति में नहीं जाता।। 40।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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