अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

आत्मज्ञान की अंतिम उपलब्धि

अष्टावक्र गीता-83

 

राजा जनक कहते हैं कि मैं तो सर्वदा विमल स्वरूप को प्राप्त हो चुका हूं। यह आत्मज्ञान की अंतिम उपलब्धि है जिसमंे जीव और ब्रह्म का भेद भी मिट जाता है। इस प्रकार अष्टावक्र गीता का समापन होता है।

अष्टावक्र गीता-83

क्व माया क्व च संसारः क्व प्रीतिर्विरतिः क्व वा।
क्व जीवः क्व च तद्ब्रह्म सर्वदा विमलस्य मे ।। 11।।
अर्थात: मुझ सर्वदा विमल स्वरूप को कहाँ माया है और कहाँ संसार है? कहाँ प्रीति है अथवा कहाँ विरति है? कहाँ जीव है और कहाँ वह ब्रह्म है?
व्याख्या: आत्मज्ञान की अन्तिम उपलब्धि में सभी भेद गिर जाते हैं। केवल एक चैतन्य शेष रह जाता है। यह माया है, यह ब्रह्म है, यह आत्मा है, यह संसार है, प्रीति और अप्रीति, जीव और ब्रह्म आदि के समस्त भेद अज्ञान के कारण हैं। जिसे सत्यस्वरूप आत्मा का ज्ञान नहीं है, वही इन सबमें भेद देखता है। आत्मज्ञान पर सब अभेद ज्ञात होता है कि वह सब ब्रह्म ही है, एक ही है, उसी का सारा विस्तार है। भिन्नता मात्र भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति का मिटाना ही ज्ञान है। वही सत्य है।

क्व प्रवृत्तिर्निवृत्तिर्वा क्व मुक्तिः क्व च बन्धनम्।
कूटस्थनिर्विभागस्य स्वस्थ्यस्य मम सर्वदा ।। 12।।
अर्थात: सर्वदा कूटस्थ (स्थिर), अखण्डरूप और स्वस्थ मुझको कहाँ निवृत्ति है? कहाँ मुक्ति है और कहाँ बन्ध है?
व्याख्या: आत्मा सर्वदा कूटस्थ (स्थिर) है, वह अखण्ड है। उसका विभाजन नहीं किया जा सकता, वह अद्वय है। इसे उपलब्ध होना ही परम स्वास्थ्य है इसलिए ज्ञानी ही स्वस्थ है बाकी सब रुग्ण हैं। ऐसे व्यक्ति में न प्रवृत्ति होती है, न निवृत्ति, न उसके लिए मुक्ति है क्योंकि आत्मा का कोई बन्ध है ही नहीं। वह निर्बन्ध है। बन्धन मात्र वासना एवं अहंकार के कारण है जो अज्ञान जनित है। अहंकार के कारण ही कत्र्तापन है। इसी से होता है बन्ध, इसी से होता है पाप-पुण्य। कत्र्ता होने से ही भोक्ता भी होता है। जिन धर्मों ने आत्मा को नहीं जाना वे ही इनमें भेद करते हैं किन्तु अस्तित्व में सब संयुक्त हैं। अहंकारी व अज्ञानी ही भेद करते हैं क्योंकि इससे अहंकार को तृप्ति मिलती है। लोग धर्म के नाम पर अहंकार का ही पोषण कर रहे हैं। परम धर्म इससे ऊपर एक अस्तित्व की बात कहता है जो अखण्ड है, अद्वय है, निर्मल, निर्विकार शान्त है। केवल चैतन्य है।

क्वोपदेशः क्व वा शास्त्रं क्व शिष्यः क्व च वा गुरुः।
क्व चास्ति पुरषार्थों वा निरुपाधेः शिवस्य मे।। 13।।
अर्थात: उपाधि रहित शिवरूप (कल्याण रूप) मुझको कहाँ उपदेश है? अथवा कहाँ शास्त्र है? कहाँ शिष्य है? कहाँ गुरु है? और कहाँ पुरुषार्थ है?
व्याख्या: आत्मज्ञान से रहित ही उपाधि वाला होता है। आत्मा की कोई उपाधि नहीं है। वह एक है या दो, जड़ है या चैतन्य, प्रकृति है या पुरुष, सृष्टि है या परमात्मा यह कहना ही कठिन है क्योंकि वही सब कुछ है और वह कुछ भी नहीं है। वह दिखाई नहीं देता फिर भी है, वह क्रिया रहित है फिर भी सब उसी से हो रहा है, उसके बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। वह शिवरूप है, कल्याणकारी है। जनक कहते हैं कि मैंने इस आत्मस्वरूप को पा लिया है इसलिए अब मेरे लिए कोई उपदेश आवश्यक नहीं रह गये। उपदेश तो अज्ञानी को ही दिये जाते हैं। शास्त्र भी अज्ञानी के लिए हैं, ज्ञानी तो स्वयं शास्त्र है। उसकी वाणी ही शास्त्र है जो जीवन्त है। पुस्तकों वाले शास्त्र मुर्दा हैं। ज्ञानी स्वयं गुरू है, उसने गुरुत्व पा लिया। वह शिष्य भी नहीं है, न उसे अब गुरू की आवश्यकता है। उसे अब किसी पुरुषार्थ की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मज्ञान ही परम पुरुषार्थ है जो उसे उपलब्ध हो गया। उपलब्धि पर ये सभी व्यर्थ हो जाते हैं जैसे नदी पार हो जाने पर नाव व्यर्थ हो जाती है। कबीर ने कहा है ‘दूल्हा दुल्हन मिल गये, फीकी पड़ी बारात’। इस सारी बारात का महत्व मिलन तक ही होता है। मिलन होने पर इन्हें विदा कर देना चाहिए वरना ये भी बन्धन बन जाते हैं।

क्व चास्ति क्व च वा नास्ति चैकं क्व च द्वयम्।
बहुनाऽत्र किमुक्तेन किंचिन्नोतिष्ठते मम ।। 14।।
अर्थात: कहाँ अस्ति है और कहाँ नास्ति? अथवा कहाँ एक है और कहाँ दो है? इसमें बहुत कहने से क्या प्रयोजन, मुझको तो कुछ भी नहीं उठ रहा है (सब शान्त हो गया है)।
व्याख्या: अन्त में जनक कहते हैं कि अज्ञानी ही कहता है कि संसार है, माया है, ब्रह्म है, जीव है आदि। वह ‘है’ को ही जानता है। किन्तु जो कहता है यह सब नहीं है, सृष्टि, जीव आदि सब माया है, ब्रह्म ही सत्य है वह भी अज्ञानी ही है। जिसने जाना नहीं वही ‘अस्ति’ ‘नास्ति’ के भ्रम में जीता है। जिसने जान लिया वह आत्मवत् ही हो जाता है। उसके लिए ये अज्ञानजनित भ्रम भी मिट जाता है कि क्या है? और क्या नहीं है? वह ऐसा भी नहीं कहता कि ईश्वर एक है, जीव उससे भिन्न है, या सभी आत्माएँ ईश्वर हैं, ईश्वर अनेक हैं क्योंकि आत्माएँ अनेक हैं, वह ईश्वर और शैतान दो शक्तियाँ भी नहीं मानता। ये सब विचार हैं जो मन के कारण उठते हैं। आत्मज्ञानी में विचारों की तरंगें उठती ही नहीं। सब शान्त हो जाता है। कहने वाला बचता ही नहीं। कौन व्याख्या करे। ऐसा ज्ञानी उसी एक परमतत्व में विश्राम कर स्थित रहता है। यही ज्ञान की अन्तिम अवस्था है। यही अन्तिम सिद्धि है।
-समाप्त (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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