अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

मनुष्य स्वयं अपना मित्र और शत्रु

गीता-माधुर्य-14

 

गीता-माधुर्य-14
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

।। श्रीपरमात्मने नमः ।।
छठा अध्याय
भगवान् बोले- मैंने कर्मयोग की बहुत-सी बातें बता दीं, अब मैं कर्मयोग का सार हूँ। जो मनुष्य कर्मफल का अर्थात् उत्पत्ति-विनाश शील पदार्थों का आश्रय न लेकर कर्तव्य कर्म करता है, वही संन्यासी है और वही योगी है। केवल अग्नि और क्रिया का त्याग करने वाला संन्यासी और योगी नहीं है। इसलिये हे अर्जुन! लोग जिसको संन्यास (सांख्य योग) कहते हैं, उसीको तू योग (कर्मयोग) समझ।। 1।।
संन्यासी और योगी में महिमा किस बात की है?
संकल्पों के त्याग की, क्योंकि संकल्पों का त्याग किये बिना अर्थात् अपने मन की बात छोड़े बिना मनुष्य योगी नहीं हो सकता।। 2।।
योगी होने में मुख्य हेतु क्या है?
जो योग (समता)- में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मनन शील योगी के लिये निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करना (योगारूढ़ होने में) कारण है और उसी योगारूढ़ मनुष्य की शान्ति परमात्म तत्त्व की प्राप्ति में कारण है, अर्थात् संसार के त्याग से मिलने वाली शान्ति का उपभोग न करना परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में कारण है।। 3।।
उस योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण क्या हैं?
जिसकी न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्ति है तथा न अपना कोई संकल्प ही है, वह मनुष्य योगारूढ़ है।। 4।।
मनुष्य को योगारूढ़ होने के लिए क्या करना चाहिये?
स्वयंको आप ही अपना उद्धार करना चाहिये, अपना पतन नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।। 5।।
स्वयं अपना मित्र और अपना शत्रु कैसे है?
जिसने अपने-आपसे अपने पर विजय कर ली अर्थात् जो असत् के साथ सम्बन्ध नहीं मानता, वह आप ही अपना मित्र है और जिसने अपने पर विजय नहीं पायी अर्थात् जो असत् के साथ अपना सम्बन्ध मानता है, वह आप ही अपना शत्रु है।। 6।।
आप ही अपना मित्र होने से क्या होगा?
जिसने अपने-आपको जीत लिया है, वह प्रारब्ध के अनुसार आने वाली अनुकूलता-प्रतिकूलता में, वर्तमान में किये जाने वाले कर्मों की सफलता-विफलता में तथा दूसरों के द्वारा किये गये मान-अपमान में निर्विकार रहता है। अतः उसको परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।। 7।।
परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के क्या लक्षण हैं भगवन्?
उसका अन्तःकरण सदा ज्ञान-विज्ञान से तृप्त रहता है; उसका सम्पूर्ण इन्द्रियों पर अधिकार रहता है, वह सभी परिस्थितियों में निर्विकार रहता है; मिट्टी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण में उसकी समबुद्धि रहती है, ऐसा योगी समता युक्त कहा जाता है। केवल पदार्थों में ही नहीं, सुहृद्, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष, बन्धु साधु और पापी व्यक्तियों में भी जिसकी समबुद्धि रहती है। ऐसा समबुद्धि वाला मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है।। 8-9।।
वह समबुद्धि केवल कर्मयोग से ही होती है या किसी दूसरे साधन से भी होती है?
वह समबुद्धि ध्यान योग से भी होती है, इसलिये मैं उस ध्यान योग की विधि बताता हूँ। ध्यान योगी भोग बुद्धि से संग्रह का त्याग करके, कामना रहित होकर, अन्तःकरण तथा शरीर को वश में रखकर तथा एकान्त में अकेला रहकर अपने मन को निरन्तर लगाये।। 10।।
मन को परमात्मा में लगाने के लिये अर्थात् ध्यान करने के लिये उपयोगी बातें क्या हैं?
शुद्ध पवित्र स्थान पर ध्यान योगी मृगछाला और पवित्र वस्त्र बिछाये। वह आसन न अत्यन्त ऊँचा हो और न अत्यन्त नीचा हो तथा स्थिर हो अर्थात् हिलने-डुलने वाला न हो।। 11।।
ऐसा आसन बिछाकर क्या करे?
उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ध्यान योग का अभ्यास करे।। 12।।
उस आसन पर किस प्रकार बैठना चाहिये?
शरीर, गरदन और मस्तक को एक सूत (सीध) में अचल करके तथा इधर-उधर न देखकर केवल अपनी नासिका के अग्र भाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठे।। 13।।
ऐसे आसन से भी किस भाव से बैठना चाहिये?
जिसका अन्तःकरण राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित है, भय रहित है और जो ब्रह्मचर्य पालन करता है, ऐसा सावधान योगी मन को संसार से हटा कर मुझ में लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे।। 14।।
इसका फल क्या होगा?
इस प्रकार अपने मन को निरन्तर मुझ में लगाते हुए वश में किये हुए
मन वाले योगी को मुझ में रहने वाली निर्वाण परम शान्ति की प्राप्ति हो जाती है।। 15।।
इस प्रकार से ध्यान करने वाले तो कई होते हैं, पर उन सबका ध्यान योग सिद्ध क्यों नहीं होता भगवन्?
हे अर्जुन! अधिक खाने वाले का और बिलकुल न खाने वाले का तथा अधिक सोने वाले का और बिलकुल न सोने वाले का यह योग सिद्ध नहीं होता।। 16।।
तो फिर यह योग किसका सिद्ध होता है?
जिसका आहार (भोजन) और विहार (घूमना-फिरना) यथोचित है, जिसकी कर्मों में चेष्टा यथोचित है और जिसका सोना-जागना भी यथोचित है, उसी का यह दुःखों का नाश करने वाला योग सिद्ध होता है।। 17।।
दुःखों का नाश करने वाला यह योग कब सिद्ध होता है?
जब अच्छी तरह से वश में किया हुआ चित्त अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थों से विमुख हो जाता है अर्थात् अपने लिये किसी भी पदार्थ की किंचिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं समझता, तब वह योगी कहलाता है अर्थात् उसका योग सिद्ध हो जाता है।। 18।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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