अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

चर अरु अचर हर्षजुत रामजनम सुख मूल

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

नवरात्र शक्ति उपासना का विशिष्ट पर्व है। चैत्र में अष्टमी तक का अनुष्ठान राम नवमी की आध्यात्मिक चेतना को जागृत करता है। इस दिन प्रभु ने मनुष्य रूप में अवतार लिया था-
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप विचारी।
लोचन अभिरामा तनु धन स्यामा निज आयुध भुज चारी।
भूषन वन माला नयन बिसाला सोभा सिन्धु खरारी।
वस्तुतः मानवीय क्षमता सीमित होती है। वह अपने अगले पल के विषय में नहीं जानता। इसके विपरीत नारायण की कोई सीमा नहीं होती। वह जब मनुष्य रूप में अवतार लेते हैं, तब भी आदि से अंत तक कुछ भी उनसे छिपा नहीं रहता। वह अनजान बनकर अवतार का निर्वाह करते हैं। भविष्य की घटनाओं को देखते हैं, लेकिन प्रकट नहीं होते देते। इसी को उनकी लीला कहा जाता है। गोस्वामी जी उनके अवतार का सुंदर चित्रण करते है। यह किसी सामान्य शिशु का जन्म नहीं है। प्रभु स्वयं अवतरित हुए। प्रकृति ग्रह नक्षत्र सभी पर इसका प्रभाव परिलक्षित है।
कह दुइ कर जोरी अस्तुत तोरी केहि विधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना वेद पुरान भनंता।
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहिं गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रकट श्रीकंता।
ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रतिवेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै।
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत विधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।
माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अतिप्रिय सीला यह सुख परम अनूपा।
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।
भारतीय शास्त्रों ने प्रकृति के संक्रमण काल में उपासना का विशेष महत्व बताया है। इससे सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। नवरात्र इसके अनुकूल होती है।
इस अवधि में भक्त जन मां दुर्गा सप्तशती का पाठ करते है। यदि किसी साधक से यह संभव न हो सके तो उसका विकल्प स्वामी राम भद्राचार्य ने बताया। उनका कहना है कि जो पुण्य फल सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती के पाठ से मिलता है वही फल श्रीरामचरितमानस की इन पंक्तियों के भाव सहित पाठ से मिल जाता है-
जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेस मुख चंद चकोरी।
जय गज बदन षड़ानन माता, जगत जननि दामिनि दुति गाता।
नहि तव आदि मध्य अवसाना, अमित प्रभाव वेदु नहिं जाना।
भव भव विभव पराभव कारिनि, विस्व विमोहनि स्वबस बिहारिनि।
पति देवता सुतीय महुं मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष।
सेवत तोहि सुलभ फल चारी, वर दायिनी पुरारि पिआरी।
देवि पूजि पद कमल तुम्हारे, सुरनर मुनि सब होहिं सुखारे।
श्री राम कथा के प्रत्येक प्रसंग आध्यात्मिक ऊर्जा है। भक्ति के धरातल पर पहुंच कर ही इसका अनुभव किया जा सकता है। महर्षि बाल्मीकि और तुलसी दास सामान्य कवि मात्र नहीं थे। ईश्वरीय प्रेरणा से ही इन्होंने रामकथा का गायन किया था। इसलिए इनका काव्य विलक्षण हो गया। साहित्यिक चेतना या ज्ञान से कोई यहां तक पहुंच भी नहीं सकता। रामायण व रामचरित मानस की यह दुर्लभ विशेषता है। प्रभु बालक रूप में है, वह वनवासी रूप में है,वह राक्षसों को भी तारने वाले है। सन्त अतुल कृष्ण कहते है कि प्रभु किसी को मारते नहीं,वह तो तार देते है। भव सागर से पार उतार देते है। प्रभु ने शिशु रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया था। इसलिए यह स्वयं में अलौकिक बेला थी। गोस्वामी जी लिखते है- जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल अर्थात चर अचर सहित समस्त लोकों में सुख का संचार हुआ था।
नौमी तिथि मधुमास पुनीता, सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।
मध्य दिवस अति सीत न धामा, पावन काल लोक विश्रामा।
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ, हरषित सुर संतन मन चाऊ।
गोस्वामी जी लिखते है-
रामकथा सुन्दर कर तारी
संसय बिहग उड़व निहारी।।
प्रभु श्री राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में अवतार लिया था। श्री रामकथा आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करने वाली है। संत अतुल कृष्ण ने बताया कि घर में राम विवाह संबन्धी चैपाई का भी नित्य गायन करना चाहिए-
जब ते रामु व्याहि घर आए, नित नव मंगल मोद बधाए।
भुवन चारिदस भूधर भारी, सुकृत मेध बरषहिं सुख बारी।
रिधि सिधि संपत्ति नदी सुहाई, उमगि अवध अंबुधि कहुं आई।
मनिगन पुर नर नारि सुजाती, सुचि अमोल सुंदर सब भांती।
कहि न जाइ कछु नगर विभूती, जनु एतनिअ विरंचि करतूती।
सब विधि सब पुर लोग सुखारी, रामचन्द्र मुख चंदु निहारी। 3
गोस्वामी तुलसीदास की चैपाइयों में मंत्र जैसी शक्ति है। इनका नियमित पाठ करना चाहिए।।
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजमन हरण भवभय दारुणम्।
नवकंज लोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम्।
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनील नीरद सुन्दरम्।
पटपीत मानहु तडित रूचि सुचि नौमि जनक सुतावरम्।।
भज दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंशनिकन्दनम्।
रघुनन्द आनन्दकन्द कोशलचन्द्र दशरथनन्दनम्।।
सिर मुकुट कुण्डल तिलकचारू उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शरचाप धर संग्राम जित खरदूषणम्।।
इति वदति तुलसीदास संकर शेष मुनि मनरंजनम्।
ममहृदय कंजनिवासकुरु कामादि खलदल गंजनम्।।
मनुजाहिं राचेउ मिलिहि सो बरू सहज सुंदर सावंरो।
करुना निधान सुजान-सीलु सनेहु जानत रावरो।
एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिंय हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि-पुनि मुदित मन मंदिर चलीं।
जानि गौरि अनकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे। (हिफी)

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