अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-1

गीता ज्ञानधारा

गीता ज्ञानधारा अध्याय-1
(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-1 के श्लोक 12 से 23 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मौ प्रतापवान्।।12।।
राजा दुर्योधन की ये बातें सुनकर भीष्म को नितान्त आनन्द हुआ और उन्होंने प्रबल सिंह गर्जना की। यह गर्जना दोनों सेनाओं में गूँजने लगी। उसकी प्रतिध्वनि आकाश में भी नहीं समा पा रही थी। तभी भीष्म ने वीरोचित बल से अपना दिव्य शंख फूँका। जब उनकी सिंह गर्जना और शंखध्वनि की प्रतिध्वनि एक साथ मिल गई तो मानों त्रैलोक्य बधिर हो गया और ऐसा लगा मानों आकाश फटकर जमीन पर आ जाएगा। उस समय आकाश गूंज उठा, समुद्र उछलने लगा और यह स्थावर संगम विश्व घबराकर काँपने लगा। उस महाघोष की गर्जना से पर्वतों की गुफाओं में भी प्रतिध्वनियाँ गूँजने लगी। इतने में दोनों सेनाओं में रणभेरियाँ बजने लगीं।

ततः शंखश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।13।।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।।14।।
विविध प्रकार के इन रणवाद्यों की ध्वनि इतनी कर्कश एवं भयंकर थी कि बड़े-बड़े धीरज वालों को भी लगा कि यहाँ प्रलय आ गयी है। शंख, नौबते, नगाड़े, मृदंग, झाँझे और तुरहियाँ जोर-जोर से बजने लगीं और वीरों ने गर्जनाएँ शुरू कर दीं। कोई आवेश से अपने भुज-दण्डों पर ताल ठोकनें लगा, तो कोई चिल्ला-चिल्लाकर युद्ध के लिए ललकारने लगा। हाथी उन्मुक्त होकर बेकाबू हो गए। ऐसी परिस्थिति में डरपोक लोगों की क्या बात की जाए। कितने ही खड़े-खड़े ही मर गए। जिनमें थोड़ा साहस था उनके दाँत बजने लगे और जो जाने माने योद्धा थे, उनके शरीर में कँपकँपी होने लगी। रणवाद्यों की इस प्रकार की ध्वनि सुनकर ब्रह्मदेव भी व्याकुल हो गए और इन्द्रादि देव तो यह कहने लगे, कहीं प्रलय तो नहीं आ गयी?

पांचजन्यं हृषीकेशो देवदŸां धनश्चयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः।।15।।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च घोषमणिपुष्पकौ।।16।।
उधर स्वर्ग में रण कोलाहल सुनकर इस प्रकार की बातें हो रही थी, इधर पाण्डव सेना में क्या हुआ? जरा सुनिए। जो रथ-रण-विजय का मानों घर संसार था या जो तेज का महाभण्डार था और जिसमें गरुड़ की गति वाले जो चार घोड़े जुते हुए थे, मेरु पर्वत के समान वहाँ शोभित हुआ। उसके तेज से दसों दिशाएँ देदीप्यमान हो उठीं। जिस रथ के सारथी स्वयं श्री कृष्ण हों, उस रथ के गुणों का वर्णन भला कौन कर सकता है? साक्षात् शंकर का अवतार मारूति तो उसके ध्वजस्तम्भ पर आरुढ़ था तथा शांर्गधनुष्य
धारण करने वाले भगवान श्री कृष्ण, अर्जुन के सारथी थे। देखिए कैसे आश्चर्य की बात है। अपने भक्तोंपर असीम प्रेम होने के कारण ही उन्होंने पार्थ का सारथी बनना स्वीकार किया। उन्होंने अपने सेवक को तो पीछे कर लिया और स्वयं आगे खड़े हो गए और सहजता से अपना पाँचजन्य शंख फूँगा। उससे बहुत बड़ी ध्वनि हुई। उसी समय अर्जुन ने भी अपने शंख देवदŸा को बड़े आवेश के साथ फूँका। उन दोनों शंखों की गर्जना से ऐसी अद्भुत ध्वनि उत्पन्न हुई कि लगा अब ब्रह्माण्ड के टूटने में कोई विलम्ब नहीं है। इतने में भीमसेन ने भी आवेश में आकर अपना पौंड्र नामक शंख फूंका। उस शंख की महा प्रलयंकारी ध्वनि मेघ की गर्जना के समान हो रही थी। तभी धर्मराज ने अपना अनंतविजय नामक शंख बजाया। नकुल ने सुघोष तथा सहदेव ने मणि-पुष्पक नामक शंख बजाया। उस निनाद से साक्षात् यम भी थर्रा उठा।

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।17।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंगान्दध्मुः पृथक् पृथक्।।18।।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।19।।
राजा द्रुपद, महावीर काशीराज, द्रोपदी के पुत्र आदि अनेक राजा तथा वीर वहाँ एक स्थान पर एकत्र हुए थे। उसी प्रकार अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु, अजेय सात्यकि, राजाओं में श्रेष्ठ धृष्टधुम्न, शिखंडी वहाँ उपस्थित थे। उसी प्रकार विराट् तथा अन्य सेनानायक भी अपने-अपने निराले ढंग से शंख एक साथ बजाने लगे। इन शंखों की महाध्वनि से शेषनाग व कूर्म भी घबराकर पृथ्वी का भार अपने सिर से फंेकने के लिए तैयार हो गए। इस कारण त्रैलोक्य डगमगाने लगा। मेरु और मंदर पर्वत हिलने लगे। समुद्र का पानी कैलाश पर्वत तक उछलने लगा। कहीं पृथ्वी उलट तो नहीं जाएगी और आकाश गिर तो नहीं पड़ेगा, ऐसा भय व्याप्त होने लगा। लगा उल्कापात हो गया। सत्यलोक में यह कोलाहल मचा ‘अब सृष्टि डूब गई देव निराधार हो गए।’ सूर्य दिन में ही डूब गया ऐसा लगा और मानों प्रलय आ गयी हो, इस प्रकार लोगों में हाहाकार मच गया। यह देखकर भगवान श्री कृष्ण भी विस्मित हो गए। कहीं वास्तव में ही सृष्टि का विनाश न हो जाए, इस आशंका से उन्होंने यह आवेशयुक्त शंखनाद बन्द किया। वह शंखनाद तो बन्द हो गया, किन्तु उसकी प्रतिध्वनि अभी तक गूँज रही थी। इससे कौरवांे की सेना में भगदड़ मच गई। जिस प्रकार सिंह हाथियों के झुण्ड में सहज विचरण करते हुए उनका संहार करता है, उसी प्रकार शंख-ध्वनि की उस गूँज ने कौरवों की सेना का हृदय विदीर्ण कर दिया। वे खड़े-खड़े ही एक दूसरे को सावधान रहने के लिए कहने लगे।

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजंः।
प्रवृŸो शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।20।।
लेकिन उनमें जो वीर अपने बल एवं पुरुषार्थ में महारथी थे, उन्होंने अपनी सेना को किसी तरह संभाला, उन्हें ढाँढ़स बँधाया। फिर वे नए आवेश से आगे बढ़े और दूने जोश से शत्रु पर आक्रमण करने को तेयार हुए। सेनाओं के उस आवेशयुक्त कार्य से तीनों त्रिभुवन बिल्कुल त्रस्त हो गए। जिस प्रकार प्रलय काल के मेघ निरन्त वृष्टि करते रहते हैं, उसी प्रकार यहाँ धनुर्धारी सैनिक बाणों की वृष्टि करने को तेयार हो गए। यह देखकर अर्जुन ने भी अपना धनुष उठा लिया।

अर्जुन उवाच
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत।।21।।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्नणसमुद्यमे।।22।।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः।।23ं।
फिर अर्जुन ने श्री कृष्ण भगवान से यह वचन कहा-देव, अपने रथ को शीघ्र हाँककर दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए। मैं जरा उन वीरों का निरीक्षण करूँगा जो यहाँ युद्ध करने आए हैं क्योंकि यहाँ वीर तो सभी आए हैं लेकिन मुझे समरांगण में किसके साथ युद्ध करना है यह तो देखना पड़ेगा। शायद आधीर और दुष्ट बुद्धि कौरव पराक्रम न होते हुए भी युद्ध के लिए व्याकुल हैं। इनमें युद्ध की रुचि तो है लेकिन ये रणभूमि में धैर्य नहीं नहीं धारण कर सकते।- क्रमशः (हिफी)

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