
(हिन्दुस्तान समाचार-फीचर)
भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-1 के श्लोक 1 से 11 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।
धतृराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।1।।
पुत्र प्रेम के मोह में पड़े हुए धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा, ‘कुरुक्षेत्र का समाचार क्या है, मुझे बतलाओ। जिस कुरुक्षेत्र को धर्म का स्थान कहते है, वहाँ
दुर्योधनादि और पांडु के पुत्र युद्ध करने के लिए गए हुए हैं। तुम मुझे शीघ्र या बतलाओं कि अब तक उन लोगों ने आपस में क्या-क्या किया?’
संजय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।।2।।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।।3।।
इस पर संजय ने कहा – जिस प्रकार महाप्रलय के समय काल का मुँह फैला रहता है उसी प्रकार पाण्डवों की सेना गुस्से में क्षुब्ध हो गई तथा एकत्र होकर एक दिशा में एकत्र हो गई। उसे कौन रोक सकता था? पाँडवों की सेना विभिन्न प्रकार की व्यूह रचना से सुसज्जित होने के कारण उस समय बहुत भीषण दिखाई दे रही थी। लेकिन जिस प्रकार
हाथियों का झुण्ड देखकर सिंह उसकी कुछ
चिन्ता नहीं करता उसी प्रकार दुर्योधन ने पाण्डवों की उस सेना को तुच्छ समझा। फिर दोणाचार्य के पास जाकर उनका मन कलुषित करने के लिए उसने कहा-देखते है न! पाण्डवों की सेना कैसे आवेश में आ गई है? बुद्धिमान द्रुपदपुत्र धृतराष्ट्र ने इस सेना
की ऐसी अद्भुत रचना की है कि चलते फिरते
पहाड़ी किले की तरह दिखाई दे रही है। जिस
धृष्टद्युम्न को आपने पढ़ाकर इस विद्या में निपुण किया, उसी ने इस सिंह रूपी सेना का चारों ओर विस्तार किया है।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।4।।
इसके सिवाय इस सेना में शस्त्र विद्या में पारंगत एवं क्षात्र धर्म में निपुण अनेक महान योद्धा हैं। अब मैं सहज ही उन वीरों के नाम बताता हूँ जो बल, योग्यता और पुरुषार्थ में भीम और अर्जुन के समान हैं। इस युद्ध में महायोद्धा सात्यकि (राजा युयुधान) राजा विराट एवं श्रेष्ठ महारथी राजा द्रुपद भी आए हैं।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपंुगवः।।5।।
युधामन्यश्च विक्रान्त उŸामौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।6।।
यह देखिए, चेकितान, धृष्टकेतु, पराक्रमी काशीराज, नृपश्रेष्ठ उŸामौजा तथा राजा शैव्य भी उपस्थित हैं। यह देखिए कुंतीभोज, उसी प्रकार यह युधामन्यु यहाँ आया है और पुरुजित आदि के साथ सभी राजा यहाँ आए हैं। दुर्योधन ने कहा-द्रोणाचार्यजी, यह देखिए, सुभद्रा के हृदय को आनन्द प्रदान करने वाला तथा अर्जुन की तरह दिखाई देने वाला उसका पुत्र अभिमन्यु है। उसी प्रकार द्रोपदी के पुत्र तथा अन्य सभी महारथी जिनकी गिनती करना संभव नहीं हैं, यहाँ एकत्र हैं।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तात्रिबोध द्विजोŸाम।
नायका मम सैन्यस्य स४ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।7।।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिजयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदŸिास्तथैव च।।8।।
अब प्रसंगवश मैं अपनी सेना के प्रमुख तथा महावीरों के नाम सुनाता हूँ। आप तथा आप सरीखे जो अन्य वीर हैं, उनके नाम मात्र दिग्दर्शन के लिए बताता हूँ। सुनिए। ये हैं गंगापुत्र भीष्म पितामह जो वीरता तथा बल में साक्षात् सूर्य ही हैं। हाथी जैसे शत्रु के लिए यह कर्ण, सिंह की तरह शक्तिशाली है। इनमें से केवल एक ही अपने संकल्प से विश्व का संहार करने में सक्षम हे। इतना ही क्यों, अकेले कृपाचार्य ही विश्व का संहार करने के लिए पर्याप्त हैं। इधर यह विकर्ण है तो
उधर उस अश्वत्थामा को देखिए जिससे साक्षात् काल भी डरता है। और यह सोमदŸा है जो युद्ध में सदा विजय प्राप्त करता रहा है।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।9।।
उसी प्रकार जिनकी वीरता की थाह ब्रह्मा भी नहीं पा सकते ऐसे अनेक वीर यहाँ उपस्थित हैं। ऐसे वीर जो शस्त्र विद्या में निपुण होने के साथ-साथ अस्त्र विद्या के तो साक्षात् अवतार हैं। इनके ही कारण अस्त्र विद्या का विश्व में इतना नाम हुआ। ये जी-जान से मेरे ही अनुयायी है। वे इस सीमा तक स्वामीभक्त हैं कि मेरे काम के आगे अपने प्राणों को भी तुच्छ समझते हैं। वे युद्ध कला में तो निपुण हैं ही, इन्होंनें अपने चातुर्य से युद्ध कला में कीर्ति संपादित की है। अधिक क्या कहें, क्षात्रधर्म की प्रसिद्धि इनके ही कारण हुई। इस प्रकार हमारी सेना में ऐसे सर्वोपरि वीर हैं जिनकी कोई गिनती नहीं है।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्।।10।।
इसके अतिरिक्त सभी क्षत्रियों में श्रेष्ठ तथा विश्व के समस्त योद्धाओं में जो महाप्रतापी भीष्म हैं, उन्हें इस सेना का आधिपत्य सोंपा गया है। उन्होंने इस सेना को नियन्त्रित कर उसकी संरचना इस प्रकार की है कि लगता है, मानों सेना न हो बल्कि किले हों। उनकी वीरता के आगे त्रिभुवन भी तुच्छ है। हमारी सेना को भीष्म पितामह जैसे सेनापति मिल गए हैं इसलिए हमारी इस सेना के साथ कौन युद्ध कर सकता है? पाण्डवों की सेना तो हमारी सेना की तुलना में बहुत ही थोड़ी है परन्तु उसकी रचना महान् है। इसके अलावा उसका सेनापति प्रबल एवं उद्दण्ड भीम है। इतना कहकर दुर्योधन शान्त हो गया।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि।।11।
फिर अपने सेनापतियों से कहा-अब तुमलोग अपने-अपने सैन्य दस्तों को सुव्यवस्थित करो। जिनके जिम्में सेना की जो-जो अक्षौहिणियाँ सोंपी गई हैं उनके श्रेष्ठ महारथी अपनी-अपनी अक्षौहिणियाँ के सामने खड़े हो जाएँ और उन्हें संभालते हुए भीष्म की आज्ञा का पालन करें। फिर उसने द्रोणाचार्यजी से कहा-आप समस्त सेना पर ध्यान रखें और मेरी ही तरह आप भी भीष्म का वैसा ही सम्मान करें क्योंकि हमारी सेना की शक्ति उन पर ही निर्भर है।- क्रमशः (हिफी)