अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-9

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है।

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-9 के श्लोक 9 से 16 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

न च मां तानि कर्माणि-निबध्रन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9।।
इसलिए प्रकृति के कर्म से मुझे कोई बाधा नहीं उपस्थित होती। वैसे प्रकृति के इस कार्य के लिए मैं ही कारण हूँ ऐसा समझ लो लेकिन किसी उदासीन की तरह मैं कुछ करता नहीं हूँ और न करवाता हूँ।

मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।10।।
हे अर्जुन! समस्त सृष्टि के लोगों के व्यवहार के लिए जिस प्रकार सूर्य निमित्तमात्र कारणीभूत है, उसी प्रकार विश्व की उत्पत्ति के लिए मैं कारण हूँ, यह जान लो। क्योंकि जिस समय मैं माया को अंगीकार करता हूँ, उस समय उसके संयोग से प्राणिमात्र की उत्पत्ति होती है इसलिए इस विश्व की उत्पत्ति का कारण मैं हूँ, ऐसा लोगों का विचार है इसलिए मेरे अद्भुत कार्य ज्ञान के इस प्रकाश में ध्यान से देखो। अथवा प्राणी मुझमें नहीं और मैं प्राणियों में नहीं यह मुख्य बात तुम कभी भी मत भूलना। पार्थ! वेदान्त सिद्धान्त का यह रहस्य जब तक हाथ नहीं लगेगा, तब तक मेरा सच्चा स्वरूप कभी मालूम नहीं होगा। जिस प्रकार भूसे में खोजने से अनाज का एक दाना भी नहीं मिलता, उसी प्रकार अनुमान के आधार पर जीवों को परमात्म ज्ञान हुआ है, ऐसा लगता अवश्य है, लेकिन वह सब व्यर्थ है। अनुभव प्राप्त हो गया, ऐसा कहकर शब्दों तथा वाणी के माध्यम से कितने ही लोग ऊपरी तौर पर बड़प्पन दिखाते हैं किन्तु जब सच्चे बोध की परीक्षा आती है तो उनका वाचाल ज्ञान निरर्थक सिद्ध होता है।

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम्।।11।।
जिस प्रकार पीलिया के कारण दृष्टि दूषित हो जाने पर मनुष्य चाँदनी को भी पीला कहता है, उसी प्रकार मेरा जो निर्दोष रूप है, उसमें उसे दोष दिखाई देने लगते हैं। अथवा बुखार के कारण मुँह कडुवा हो जाने पर दूध भी विष के समान कडुवा लगने लगता है, उसी प्रकार मैं मनुष्य न होते हुए भी वे मुझे मनुष्य मानते हैं। जिस प्रकार स्वप्न में पिए हुए अमृत से कोई अमर नहीं हो जाता, उसी प्रकार जो मुझे स्थूल दृष्टि से देखते हैं, वे वास्तव में मुझे नहीं देखते।
साधारणतया अज्ञानी लोग स्थूल दृष्टि से देखकर मुझे जान लेने की बात कहते हैं किन्तु उनका स्थूल दृष्टि से जानना ही यथार्थ ज्ञान के आड़े में आ जाता है। कल्प वृक्ष समझ कर बबूल के पेड़ में हाथ लगाने से क्या लाभ होगा, सफेद पत्थर को रत्न समझ कर हाथ में ले लें उसी प्रकार संसार के प्रपंच में मैं जैसा साकार दिखाई देता हूँ, वैसा ही हूँ, यह सोचकर जो निश्चिन्त होकर व्यवहार करते हैं, वे चन्द्रमा समझ कर, पानी में उसके प्रतिबिम्ब को पकड़ने का प्रयास करते हैं। यदि भूसे को कितना ही कूटा जाए तो क्या उससे अनाज प्राप्त होगा? फेन पीने से क्या पानी पीने का सन्तोष प्राप्त होगा? इसलिए मुझे नाम रहित, क्रियारहित तथा देह रहित होते हुए भी भ्रमवश मुझे नामधारी, कर्मकारी, तथा देह धर्मों से युक्त समझते हैं। निराकार होते हुए भी मुझ पर आकार का आरोप लगाते हैं, निष्क्रिय होते हुए भी मुझ पर व्यवहार का आरोप लगाते हैं। वर्णहीन, जातिहीन, गुणातीत होते हुए भी मुझे इन सबसे युक्त होने का आरोप लगाते हैं। यद्यपि मुझमें कर्ण, नेत्र, गोत्र, रूप, आकार, वस्त्र, भूषण आदि कुछ भी नहीं है, फिर भी मुझमें इन सब की कल्पना करते हैं। मैं स्वयंभू हूँ, फिर भी मेरी मूर्ति तैयार करते हैं। मैं स्वतःसिद्ध हूँ फिर भी मेरी प्राणप्रतिष्ठा करते हैं। मेरे नित्य, सर्वत्र होते हुए भी मेरा आवाह्न तथा विसर्जन करते है। मैं अद्वैत हूँ, फिर भी मुझे द्वैत मानते है। अपने विपरीत ज्ञान के कारण वे सभी प्रकार के मानवधर्म मुझ पर आरोपित करते है।

मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।12।।
मूर्ख मनुष्य का जीवन व्यर्थ ही होता है। उन मूर्खों ने जो ज्ञान प्राप्त किया होता है वह अन्धे को मिले मोती के समान निष्फल होता है। उसी प्रकार जिसका चित्त उसके वश में नहीं है उसका सारा ज्ञान तथा आचरण व्यर्थ है।

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।13।।
जिन साधुओं के निर्मल अन्तःकरण में मैं क्षेत्र सन्यासी बन कर वास करता हूँ उनके अधिकार का क्या वर्णन किया जाए? उनको स्वप्न में भी विषय वासना नहीं होती। जिन्हें भक्ति की इतनी अधिक प्राप्ति हो गई है कि वे मोक्ष को भी पीछे छोड़ देते हैं। ऐसे जो महात्मा हैं, वे भगवद्भक्ति के लिए अनुकूल रहने वाले सात्विक प्रकृति का सौभाग्य ही है। उनके मनोधर्म में द्वैत का स्पर्श भी नहीं किया रहता। हे अर्जुन! जो मद्रूप होकर इस प्रकार मेरी सेवा करते हैं, उस सेवा की आश्चर्यजनक बात सुनो।

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।14।।
फिर भी हरिकीर्तन के प्रेम से वे सजते सँवरते है तथा नाचते हैं। वे यम-दम को भी निस्तेज कर देते हैं, तीर्थ क्षेत्रों का अस्तित्व तक मिटा देते हैं और यमलोक के मार्ग का भी अन्त कर देते है। वे राजा और रंक का अन्तर नहीं मानते और छोटा और बड़ा नहीं जानते। उन साधुओं का तेज सूर्य के समान निर्मल है। हे पाण्डव! मैं कहीं नहीं मिलता किन्तु जहाँ वे सदा मेरे नाम का घोष करते रहते हैं, वहाँ मैं अवश्य मिल जाता हूँ। वे हमेशा अहंकार रहित रहते हैं तथा नम्रता ही उनकी सम्पत्ति होती है। वे सारे कर्म मुझे अर्पण कर देते हैं।

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।15।।
हे अर्जुन! ज्ञानयोगी को यह संसार एकरूप मालूम होता है। वह मानता है कि ब्रह्मदेव से लेकर क्षुद्र तृण तक में आत्मा ही भरी हुई है। इससे उसका जीवभाव नष्ट हो जाता है। इस प्रकार ज्ञानयज्ञ से एकता प्राप्त कर कितने ही लोग मुझे भजते हैं। वे जहाँ भी कहीं, जो भी चीज देखते हैं, उनमें मेरे सिवा दूसरा कुछ नहीं है, ऐसा उनके मन का निश्चय रहता है। हे अर्जुन! उनके ज्ञान में भीतर और बाहर का भेदभाव नहीं है। वैसे मैं सर्वत्र भरा हुआ हूँ। मेरी उपासना कौन नहीं करता? लेकिन यह बात मूर्खों को समझ में न आने से मैं उन्हें प्राप्त नहीं होता।

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमन्गिरहं हुतम्।।16।।
उसी ज्ञान का उदय होते ही मुख्य वेद मैं ही हूँ, उसमें जो विधि अनुष्ठान बतलाया गया है वह ऋतु मैं ही हूँ। उस कर्म से प्रकट होने वाला जो
यथाविधि यज्ञ है वह भी मैं ही हूँ। देवताओं को हवि देने वाला मन्त्र मै ही हूँ, धृत मैं हूँ, समिध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, होम-द्रव्य मैं हूँ, ऋत्विज मैं हूँ, जिसमें
हवन करना है, वह अग्नि भी मेरा ही स्वरूप है और अग्नि में हवन करने की जो-जो चीजें हैं, वह भी मैं ही हूँ। – क्रमशः (हिफी)

 

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