अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-9

ऋक, यजु, साम वेद भी मै ही हूँ।

 

पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंङार ऋक्साम यजुरेव च।।17।।
देखो! जिसके सहवास से अष्टांग प्रकृति इस संसार को उत्पन्न करती है, वह जगत्पिता मैं हूँ। इस स्थावर जंगम की माँ भी मैं ही हूँ। ऋक, यजु, साम वेद भी मै ही हूँ। इस प्रकार वेदों की वंश परम्परा मैं ही हूँ

गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।18।।
यह सारा स्थावर जंगम विश्व प्रलय के समय जिस प्रकृति के अन्दर भरा रहता है, वह प्रकृति थक जाने पर जिस स्थान पर विश्राम करती है, वह उत्तम स्थान मैं हूँ और जिसके कारण यह प्रकृति जीवित रहती है, जिसके सहारे यह विश्व उत्पन्न करती है, और जो प्रकृति के अधीन होकर सत्व, रज, तम इन गुणों का समावेश करता है, वह विश्व लक्षमी का पति मैं ही हूँ। समस्त त्रैलोक्य का स्वामी भी मैं ही हूँ। मेरे कहने से ही वेद बोलते हैं, मेरे कहने से सूर्य चलता है। मेरे ही गति देने से प्राण चलता है और मेरी ही आज्ञा से भूतों को काल ग्रसता है। जिस प्रकार लहरें पानी में ही उत्पन्न होती हैं और लहरों में भी पानी ही रहता है, उसी प्रकार संसार मुझमें तथा मैं संसार में रहता हूँ। जो एकनिष्ठ होकर मेरी शरण में आता है, उसे मैं जन्म-मृत्यु के बखेड़े से मुक्त करता हूँ। इसलिए शरणागत की रक्षा करने वाला मैं ही हूँ।

तपाम्यहमहं वर्षं निगृण्हाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।19।।
मैं जब सूर्य के रूप में ताप उत्पन्न करता हूँ तो जल सूख जाता है और पुनः इन्द्र के रूप में वर्षा करता हूँ जिससे पुनः समृद्धि होती है। जिस प्रकार अग्नि लकड़ी को जलाती है तो लकड़ी भी अग्निरूप हो जाती है, उसी प्रकार मरने वाला और मारने वाला ये दोनों मेरे ही रूप हैं। सत् और असत् भी मैं ही हूँ। क्या ऐसा भी कोई स्थान है जहाँ मैं नहीं हूँ? किन्तु प्राणियों का भाग्य कितना विचित्र है कि वे मुझे नहीं देख पाते। हे अर्जुन! जिस प्रकार कोई अन्धा एक कौर अन्न के लिए दौड़ता फिरता है और अपने
अन्धेपन के कारण पैर में लगने वाले चिन्तामणि को ठुकरा देता है, उसी प्रकार उन जीवों की अवस्था होती है जिनके पास यथार्थ ज्ञान नहीं होता। इसलिए ज्ञान के बिना किए गए कर्म न करने जैसे हैं। अन्धे गरूड़ के पंख किस काम के? उसी प्रकार यथार्थ ज्ञान के बिना सत्कर्मों का परिश्रम व्यर्थ जाता है।

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपाप यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्रन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।20।।
हे अर्जुन! वर्णविहित धर्म का आचरण कर जो स्वयं ही विधि मार्ग की कसौटी बनते है, वे जब यज्ञ करने लगते हैं तो तीनों वेद सन्तुष्ट होकर गर्दन हिलाने लगते हैं और उनके सामने क्रिया भी फल प्राप्ति के साथ खड़ी हो जाती है। इस प्रकार यज्ञ में भी सोमपान करने वाले दीक्षित ने जो स्वयं ही यज्ञस्वरूप हो जाते है, उन्होंने पुण्य के नाम पर पाप ही इकट्ठा किया है। वे तीनों वेदों को जानकर सैकड़ों यज्ञों से मेरा भजन करते हैं, किन्तु मुझे प्राप्त करने की इच्छा न कर क्षुद्र स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा करते हैं, वही वह पाप है। अर्जुन! जिस प्रकार अभागा व्यक्ति कल्पतरू के नीचे बैठकर भी अपनी झोली बन्द कर लेता है और बाद में उठकर भीख माँगने के लिए निकल पड़ता है, उसी प्रकार सैंकड़ों यज्ञों से मेरा भजन कर वे स्वर्ग सुख की इच्छा करते हैं। इसलिए मेरी प्राप्ति की इच्छा छोड़ जो स्वर्ग जाते हैं, उन्हें अज्ञानी लोग भले ही पुण्य मार्ग कहें, किन्तु जो ज्ञानी है वे इसे कल्याण की हानि ही
कहते हैं। नरक के दुःख की तुलना में स्वर्ग प्राप्ति को सुख कहा जा सकता है, किन्तु इन दोनों के अतिरिक्त जो अखण्ड, आनन्ददायक तथा निर्दोष सुख है, वह मेरा ही स्वरूप है। ये दोनों ही रास्ते चोरों के रास्ते हैं।

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते।।21।।
फिर उनके पुण्य की पूँजी समाप्त होने पर वे पुनः मृत्यु लोक में आते हैं। जिस प्रकार वैश्या के पीछे अपना सर्वस्व लुटाने के बाद वैश्यागामी को उसके घर के दरवाजे को छूने का भी अधिकार नहीं रह जाता, उसी प्रकार उन यज्ञकर्ताओं की स्थिति भी अत्यन्त लज्जाजनक हो जाती है। उनका अमरत्व व्यर्थ होकर वे अन्ततः मृत्यु लोक मंे वापस आ जाते हैं। जिस प्रकार स्वप्न में प्राप्त होने वाला खजाना जागने पर नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार यज्ञ कर्ताओं के सुख की स्थिति हैं। इसलिए मुझे ही जानो, दूसरा कुछ भी मन में न लाओ। इससे सुखी रहोगे।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।22।।
देखो! जिन्होंने अपना चित्त पूरी तरह मुझे अर्पित कर दिया है, जिन्हें मेरे सिवा कुछ भी अच्छा नहीं लगता और जिन्होंने मेरे लिए अपने प्राण भी अर्पित कर दिए हैं और जो मेरी सेवा करते हैं, उनकी सेवा मैं ही करता हूँ। जिन्हांेने अब से सारा भार मुझ पर सोंपा है, उनके मन की सारी इच्छाएँ मैं ही पूर्ण करता हूँ और उन्हें जो भी दिया गया है उसकी रक्षा भी मैं ही करता हूँ। उसका योगक्षेम भी मुझ पर ही रहता है।

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।23।।
अब और भी सम्प्रदाय हैं, लेकिन वे सब मुझे व्यापक रूप से नहीं जानते, इसलिए वे अग्नि, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र इन्हें भजते हैं। उनका वह पूजन वास्तव में मेरा ही पूजन है क्योंकि इस सारे विश्व में इन सारे गुणों से मैं ही भरा हुआ हूँ। लेकिन इनका यह
पूजन नियमपूर्वक न होकर गलत किया जाता है। देखो! वृक्षों की शाखाएँ, पत्ते आदि एक ही बीज से उत्पन्न हुए रहते हैं लेकिन पानी तो जड़ में ही देना पड़ता है। उसी प्रकार मेरी पूजा करनी है तो मन में मेरी भावना रखकर ही करनी चाहिए अन्यथा वह भजन व्यर्थ है। इसलिए कर्म का आचरण करने के लिए ज्ञान दृष्टि है और वह ज्ञान निर्दोष होना चाहिए।

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्त च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।24।।
अर्जुन! वैसे देखो कि इन सारे यज्ञविचारों का मेरे अतिरिक्त दूसरा कौन भोक्ता है? मैं ही सभी यज्ञों का आदि हूँ और यजन का अन्त भी मैं ही हूँ किन्तु जो दुर्बुद्धि होते हैं, वे मुझे छोड़कर इन्द्रादि देवताओं को भजते हैं। वे कभी भी मुझे प्राप्त नहीं करते और मन में जिसकी इच्छा धारण करते हैं, वही प्राप्त करते हैं। – क्रमशः (हिफी)

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