अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सबरी के आश्रम पगु धारा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

गीधराज जटायु को अपना परम
धाम देकर प्रभु श्रीराम भाई लक्ष्मण के साथ आगे बढ़े तो दुर्बासा ऋषि से श्राप से कवंध नाम से राक्षस बना गंधर्ब मिला। प्रभु के हाथों मारे जाने पर उसे भी मुक्ति मिली। इसके बाद प्रभु श्रीराम महान भक्तिनी शबरी के आश्रम में पहुंचते हैं। नीच जाति की शबरी को प्रभु नौ प्रकार की भक्ति बताते हैं। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो
परमधाम जाते हुए गीधराज जटायु प्रभु की वंदना कर रहा है-
जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म व्यापक विरज अजकहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान विराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं।
सो प्रगट करूनावंद सोभा वृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई।
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा।
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसइ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी।
अविरल भगति मागि वर गीध गयउ हरि धाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निजकर कीन्ही राम।
जटायु कह रहा है कि जिनकी श्रुतियां निरंजन अर्थात माया से परे हैं ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्म रहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें
ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं वे ही करूणा के कंद, शोभा के समूह स्वयं श्री भगवान प्रकट होकर जड़-चेतन समस्त जगत को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय-कमल के भ्रमर रूप उनके अंग-अंग में बहुत से काम देवों की छवि की शोभा पा रहे हैं। वह कहता है कि जो अगम और सुगम दोनों हैं निर्मल स्वभाव है, विषम और सम हैं और सदा शीतल अर्थात शांत हैं। मन और इन्द्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं वे तीनों लोकों के स्वामी, रमा निवास श्रीराम जी निरंतर अपने दासों (सेवकों) के वश में रहते हैं। वे ही मेरे हृदय में निवास करें जिनकी पवित्र कीर्ति जन्म-मृत्यु के आवागमन को मिटाने वाली है। इस प्रकार स्तुति कर और अखण्ड भक्ति का वरदान मांग कर
गीधराज जटायु श्री हरि के परम धाम को चला गया। श्रीराम ने उसका
दाह संस्कार यथायोग्य अपने हाथों से किया।
कोमल चित अति दीन दयाला, कारन बिनु रघुनाथ कृपाला।
गीध अधम खग आमिष भोगी, गति दीन्हीं जो जाचत जोगी।
सुनहु उमा ते लोग अभागी, हरि तजि होहिं विषय अनुरागी।
पुनि सीतहिं खोजत द्वौ भाई, चले विलोकत वन बहुताई।
संकुल लता विटप धन कानन, बहु खग मृग तहं गज पंचानन।
आवत पंथ कबंध निपाता, तेहिं सब कही साप कै बाता।
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा, प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा।
सुनु गंधर्ब कहंउ मैं तोही, मोहि न सोहाइ ब्रह्म कुल द्रोही।
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकंे सब देव।
भगवान शंकर पार्वती जी को प्रभु श्रीराम की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे र्पावती श्री रघुनाथ जी अत्यंत कोमल स्वभाव वाले हैं दीनों पर दया करने वाले और बिना ही कारण कृपा करते हैं। पक्षियों में अधम गीध, जो मांसाहारी हैं उसको भी वह दुर्लभ गति दे दी जो योगीजन मांगते रहते हैं। इसलिए हे पार्वता सुनो, वे लोग अभागे हैं जो भगवान को छोड़कर विषय-वासना में अनुराग (प्रेम) करते हैं।
गीधराज का अंतिम संस्कार करके प्रभु श्रीराम वन में आगे बढ़ गये। वे वन की सघनता देखते जाते हैं। वह सघन वन लताओं और वृक्षों से भरा है उसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और शेर रहते हैं। रास्ते में ही कवंध नामक राक्षस मिला जिसे प्रभु श्रीराम ने मार डाला। उस राक्षस ने अपने श्राप की सारी बात बतायी। वह बोला, दुर्बासा ऋषि ने मुझे श्राप दिया था। अब प्रभु के चरणों को देखने से मेरा वह श्राप मिट गया है। श्रीराम ने कहा हे गंधर्व, सुनो। मैं तुम्हें कहता हूं, ब्राह्मण कुल से द्रोह करने वाला मुझे अच्छा नहीं लगता। मन, बचन और कर्म से कपट छोड़कर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश में हो जाते हैं।
सापत ताड़त परूष कहंता, विप्र पूज्य अस गावहिं संता।
पूजिअ विप्र सील गुन हीना, सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।
कहि निज धर्म ताहि समुझावा, निज पद प्रीति देखि मन भावा।
रघुपति चरन कमल सिरूनाई, गयउ गगन आपनि गति पाई।
ताहि देइ गति राम उदारा, सबरी के आश्रम पगु धारा।
सबरी देखि राम गृह आए, मुनि के बचन समुझि जियं भाए।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला, जटा मुकुट सिर उर बन माला।
स्याम गोर सुंदर दोउ भाई, सबरी परी चरन लपटाई।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा, पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।
सादर जल लै चरन पखारे, पुनि सुंदर आसन बैठारे।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुं आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।
प्रभु श्रीराम गंधर्व को समझाते हुए कहते हैं कि श्राप देता हुआ मारता-पीटता हुआ और कठोर बचन कहता हुआ भी ब्राह्मण पूज्यनीय है ऐसा संत कहते हैं। यहां पर कुछ लोग विवाद भी कर सकते हैं कि ऐसे ब्राह्मण क्यांे पूज्यनीय होंगे तो गोस्वामी तुलसीदास ने कहा कि ऐसा संतों का मत है और इसका तात्पर्य कि ब्राह्मण ऐसा कभी कर ही नहीं सकता, वह स्वभाव से ही दयालु होता है। श्रीराम कहते हैं कि शील और गुण से हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है और गुणों से युक्त और ज्ञान में निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है। इस प्रकार श्रीराम ने भागवत धर्म (निज धर्म) कह कर गंधर्व को समझाया। उसका अपने चरणों में प्रेम देखकर प्रभु के मन को वह अच्छा लगा। गंधर्व तब श्री रघुनाथ जी के चरणों में सिर नवाकर और अपना स्वरूप पाकर आकाश में चला गया।
उदार श्री रामजी गंधर्व को सुगति देकर शबरी के आश्रम में पहुंचे। शबरी ने श्रीराम को अपने आश्रम में देखकर मुनि मतंग के बचनों को याद किया। मुनि मतंग ने कहा था कि प्रभु का भजन करो तो प्रभु स्वयं चलकर तुम्हारे पास आएंगे। उसका मन प्रसन्न हो गया। कमल के समान नेत्र और विशाल भुजा वाले सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वन माला धारण किये हुए सुंदर सांवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरी लिपट गयी। वह प्रेम में मग्न हो गयी उसके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे। बार-बार प्रभु के चरण-कमलों में सिर नवा रही है। इसके बाद उसने पानी लाकर दोनों भाइयों के पैर धोए और सुंदर आसनों पर बैठाया। शबरी ने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीराम जी को दिये। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन फलों को खाया।
पानि जोरि आगे भइ ठाढ़ी, प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी।
केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी, अधम जाति मैं जड़मति भारी।
शबरी हाथ जोड़कर प्रभु के सामने खड़ी हो गयी। प्रभु को देखकर उसका प्रेम अत्यधिक बढ़ गया। उसने कहा हे प्रभु, मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूं। मैं नीच जाति की और अत्यंत मूर्ख बुद्धि वाली स्त्री हूं। -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button