अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

चले राम त्यागा वन सोऊ

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम शबरी के आश्रम में मीठे-मीठे फल खाते हैं। इस संबंध में एक कहानी है कि शबरी अतिशय प्रेम के कारण बेर खिला रही है। सभी बेर मीठे-मीठे खिलाना चाहती है, इसलिए खिलाने से पहले उन्हें चख लेती है। प्रभु श्रीराम तो सिर्फ प्रेम देखते हैं और वे उन बेरों को खाते रहते हैं लेकिन लक्ष्मण जी जूठे बेर नहीं खाते और शबरी की नजर बचाकर फेंक देते हैं। जनश्रुति है कि वही बेर संजीवनी बूटी बन गये थे और जब मेघनाद ने लक्ष्मण को वीर घातिनी नामक शक्ति बाण से मरणासन्न कर दिया, तब उसी संजीवनी बूटी को लेने हनुमान जी गये थे और लक्ष्मण के प्राण बचाये थे। श्रीराम पम्पा नामक सरोवर के पास पहुंचते हैं। यह सरोवर दूसरे वन में था जहां सुग्रीव रहता था। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो श्रीराम और शबरी के बीच प्रेम और भक्ति का आदान-प्रदान हो रहा है-
अधम ते अधम अधम अति नारी, तिन्ह महं मैं मति मंद अधारी।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता, मानउं एक भगति कर नाता।
जाति पांति कुल धर्म बड़ाई, धन बल परिजन गुन चतुराई।
भगति हीन नर सोहइ कैसा, बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।
नवधा भगति कहउं तोहि पाहीं, सावधान सुनु धरू मनमाहीं।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा, दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चैथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा, पंचम भजन सो बेद प्रकासा।
छठ दम सील विरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धरमा।
सातवं सम मोहि मय जग देखा, मोतंे संत अधिक करि लेखा।
आठवं जथा लाभ संतोषा, सपनेहुं नहिं देखइ पर दोषा।
नवम सरल सब सन छील हीना, मम भरोस हिंय हरष न दीना।
नव महंु एकउ जिन्ह कें होई, नारि पुरुष सचराचर कोई।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें, सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।
जोगि वृंद दुरलभ गति जोई, तो कहुं आजु सुलभ भइ सोई।
मम दरसन फल परम अनूपा, जीव पाव निज सहज सरूपा।
शबरी कह रही है कि जो अधम से भी अधिक अधम है, स्त्रियां उनमें भी अत्यंत अधम है और उनमें भी हे पापनाशन, मैं तो मंद बुद्धि हूं। श्री रघुनाथ जी ने कहा कि हे भामिनि (सुन्दर स्त्री) मेरी बात सुन, मैं तो एक भक्ति का ही संबंध रखता हूं। जाति-पांति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुंब गुण और चतुरता-इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे पानी रहित बादल शोभाहीन दिखाई पड़ता है। मैं तुझसे अब अपनी नव प्रकार (नवधा) की भक्ति कह रहा हूं, तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर ले। पहली भक्ति है संतों का सत्संग, दूसरी भक्ति है मेरे कथा-प्रसंग से प्रेम। तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चैथी भक्ति है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करे। मेरा अर्थात् राम मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास-यह पांचवीं भक्ति है, जो वेदों में भी प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियों को वश में रखना, अच्छा स्वभाव और चरित्र, बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म आचरण में लगे रहना, सातवीं भक्ति है संसार को समभाव से और राम मय देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है, जो कुछ मिल जाए, उसी मंे संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। नौवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपट रहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में न ज्यादा सुखी होना और न दुखी होना। इन नौ में से जिनमें एक भी प्रकार की भक्ति होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन, कोई भी हो, हे भामिनि मुझे वही अत्यन्त प्रिय है, फिर तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। इसीलिए जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गयी है। मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
जनकसुता कइ सुधि भामिनी, जानहि कहु करिवर गामिनी।
पंपा सरहिं जाहु रघुराई, तहं होइहि सुग्रीव मिताई।
सो सब कहिहि देव रघुबीरा, जानतहुं, पूछहु मति धीरा।
बार-बार प्रभु पद सिरु नाई, प्रेम सहित सब कथा सुनाई।
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहं नहिं फिरे।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहुमत सोक प्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू।
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहिं बिसारि।
शबरी को नवधा भक्ति बताने के बाद श्री राम कहते हैं कि हे भामिनि, अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता। शबरी ने कहा हे रघुनाथ जी, आप पंपा नामक सरोवर पर जाइए, वहां आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव, हे रघुवीर, वह सब हाल बतावेगा। हे धीर बुद्धि आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं। यह कहते हुए बारबार उसने प्रभु के चरणों में सिर नवाया और प्रेम सहित सब कथा सुनाई कि मतंग मुनि ने किसलिए यहां तपस्या करने को कहा था। सब कथा कहकर भगवान के मुख के दर्शन कर, हृदय में उनके चरण कमलों को धारण कर लिया और योग की आग से अपने शरीर को जलाकर, वह उस दुर्लभ हरिपद में
लीन हो गयी, जहां से लौटना नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि अनेक प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत, ये सब शोक देने वाले हैं, हे मनुष्यों इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्रीराम के चरणों में प्रेम करो। जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होंने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को बिसार (भूल) कर सुख चाहता है।
चले राम त्यागा बन सोऊ, अतुलितबल नर केहरि दोऊ।
बिरही इव प्रभु करत विषादा, कहत कथा अनेक संवादा।
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा, देखत केहि कर मन नहिं छोभा।
नारि सहित सब खगमृग वृंदा, मानहु मोरि करत हहिं निंदा।
हमहि देखि मृग निकर पराहीं, मृगी कहहिं तुम्ह कहं भय नाहीं।
तुम्ह आनंद करहु मृग जाए, कंचन मृग खोजन ए आए।
संग लाइ करिनीं करि लेहीं, मानहुं मोहि सिखावन देहीं।
सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ, भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ।
श्री रामचन्द्र जी ने उस वन को भी छोड़ दिया और वे आगे चल पड़े। दोनों भाई अतुलनीय बलवान और मनुष्यांें में सिंह के समान हैं। प्रभु बिरही के समान बिषाद करते हुए अनेक कथाएं और संवाद करते हैं। लक्ष्मण से कहते हैं, जरा वन की शोभा तो देखो, इसे
देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा। पक्षी और पशु सभी स्त्री सहित (दंपति) हैं, मानो वे मेरी निंदा कर रहे हैं। हमें देख कर जब डर के मारे हिरनों के झुंड भागने लगते हैं, तब हिरनियां उनसे कहती हैं तुम को भय नहीं है, तुम तो साधारण हिरणों से पैदा हुए हो, अतः तुम आनंद करो। ये तो सोने का हिरन खोजने आये हैं। हाथी हथिनियों को
साथ लगा लेते हैं। वे मानों मुझे शिक्षा
देते हैं कि स्त्री को कभी अकेले नहीं छोड़ना चाहिए। भलीभांति चिंतन
किये हुए शास्त्र को भी बार-बार पढ़ना चाहिए और अच्छी तरह सेवा किये हुए राजा को भी अपने वश में नहीं समझना चाहिए। -क्रमशः (हिफी)

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