अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम के दूत के रूप में अंगद महाभिमानी रावण को समझा रहा है लेकिन रावण अपने अहंकार का बखान करता है। वह कहता हे कि राम की सेना में ऐसा कौन है जो मुझसे लड़ सकेगा। यह सुनकर अंगद को क्रोध आता है और वह रावण से इस प्रकार की व्यंग्यात्मक बातें करता है जिससे रावण तिलमिला जाता है। अंगद ने वक्रोक्ति रूपी धनुष से बचन रूपी बाण मारकर रावण के हृदय को घायल कर दिया है। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो अंगद के समझाने पर रावण अपने बल का बखान कर रहा है-
जनि जल्पसि जड़ जंतु कपि, सठ बिलोकि मम बाहु।
लोकपाल बल विपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु।
पुनि नभ सर ममकर निकर कमलन्हि पर कर बास।
सोभत भयउ मराल इव संभु सहित कैलास।
तुम्हरे कटक माझ सुनु अंगद, मोसन भिरिहि कवन
जोधावद।
तव प्रभु नारि विरहं बलहीना, अनुज तासु दुख दुखी मलीना।
तुम्ह सुग्रीव कूल द्रुम दोऊ, अनुज हमार भीरु अति सोऊ।
जामवंत मंत्री अति बूढ़ा, सोकि होइ अब समरारूढ़ा।
सिल्पि कर्म जानहिं नलनीला, है कपि एक महा बलसीला।
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा, सुनत बचन कह बालि कुमारा।
रावण कहता है कि अरे जड़ जंतु बानर, व्यर्थ ही बक-बक न कर, अरे मूर्ख मेरी भुजाएं तो देख। ये सब लोकपालों के विशाल बलरूपी चंद्रमा को ग्रसने के लिए राहु के समान है फिर तूने सुना ही होगा कि आकाश रूपी तालाब में मेरी भुजाओं रूपी कमलों पर बसकर शिव जी समेत कैलाश पर्वत उसी तरह शोभायमान हुआ था, जैसे सरोवर में हंस। ऐसा माना जाता है कि रावण ने भगवान शंकर की आराधना करते-करते एक बार कैलाश पर्वत को ही उठा लिया था। शिव जी को अपने भक्त का यह सेवा भाव अच्छा लगा था, हालांकि शिवजी को रावण उठा ले, ऐसा असंभव है। शिव जी की मर्जी से यह हुआ था और रावण इसे भी अपनी ताकत बता रहा है। रावण कहता है कि अरे अंगद सुन, तेरी सेना में कौन सा योद्धा है जो मुझसे भिड़ सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री की बिरह में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुख से दुखी और उदास है। तुम और सुग्रीव दोनों नदी के किनारे के वृक्ष हो, रहा मेरा छोटा भाई विभीषण, सो वह भी बड़ा डरपोक है। मंत्री जाम्बवान बहुत बूढ़ा है, वह अब लड़ाई में क्या बढ़-चढ़कर भाग लेगा। नल-नील
तो शिल्प कर्म जानते हैं अर्थात
वे भी लड़ना क्या जानें। हां, एक वानर जरूर महान बलवान है जो पहले आया था और जिसने लंका जलायी थी। यह बात सुनकर अंगद ने जवाब दिया।
सत्य बचन कहु निसिचर नाहा, सांचेहुं कीस कीन्ह पुर दाहा।
रावन नगर अल्प कपि दहई, सुनि अस बचन सत्य को कहई।
जो अति सुभट सराहेहु रावन, सो सुग्रीव केर लघु धावन।
चलइ बहुत सो वीर न होई, पठवा खबरि लेन हम सोई।
सत्य नगर कपि जारेउ, बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं, तेहिं भय रहा लुकाइ।
सत्य कहहिं दसकंठ सब, मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमरे कटक अस, तो सन लरत जो सोह।
प्रीति विरोध समान सन, करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि, भलकि कहइ कोउ ताहि।
जद्यपि लघुता राम कहुं, तोहि बधें बड़ दोष।
तदपि कठिन दसकंठ सुनु, छत्र जाति कर रोष।
बक्र उक्ति धनु बचन सर, हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रति उत्तर सड़सिन्ह मनहुं, काढ़त भट दससीस।
अंगद ने कहा हे निशाचरों के स्वामी, सच-सच बताओ, क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया था। रावण जैसे जगत विजयी योद्धा का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया ऐसे बचन सुनकर कौन इसे सत्य कहेगा। हे रावण, जिसको तुमने बहुत बड़ा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौड़कर चलने वाला हरकारा (खबर देने वाला) है। जो बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने केवल खबर लेने के लिए भेजा था। क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है कि इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप गया। हे रावण, तुमने अभी जो कहा, वह सब सत्य है, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है जो तुमसे लड़ने में शोभा पाए। अंगद ने कहा कि प्रीति और बैर बराबरी वालों से ही करना चाहिए, नीति ऐसा ही कहती है। शेर यदि मेढ़कों को मार दे तो उसे कोई भी भला नहीं कहेगा। इसलिए तुमको मारने में श्रीराम जी का भी छोटापन (लघुता) होगा, फिर भी हे रावण सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बड़ा कठिन होता है। इस प्रकार अंगद ने तीखी कहावतों (वक्रोक्ति) से वचन रूपी वाण मारकर शत्रु रावण का हृदय जला दिया। वीर रावण मानो प्रति उत्तर देकर (संड़सी से) उन वाणों को निकाल बाहर कर रहा है।
हंसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक।
जो प्रति पालइ तासु हित करइ उपाय अनेक।
धन्य कीस जो निज प्रभु काजा, जहं तहं नाचइ परिहरि लाजा।
नाचि कूदि करि लोग रिझाई, पति हित करइ धर्म निपुनाई।
अंगद स्वामिभक्त तव जाती, प्रभु गुन कस न कहसि एहि भांती।
मैं गुन गाहक परम सुजाना, तव कटु रटनि करउं नहिं काना।
अंगद के तीखे बचनों को सुनकर रावण ने हंसते हुए कहा-बंदर में एक बड़ा गुण होता है कि जो उसे पालता है उसका वह अनेक तरह से भला करने की कोशिश करता है। बंदर सचमुच धन्य है जो अपने मालिक के लिए लाज छोड़कर जहां-तहां
नाचता है। नाच-कूदकर लोगों को रिझाकर मालिक का हित करता है। यह उसके धर्म की निपुणता है।
हे अंगद तेरी जाति स्वामिभक्त है,
फिर भला तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे नहीं बखानेंगा? अंगद सुन मैं गुणों का आदर करने वाला हूं और परम सुजान अर्थात समझदार
भी हूं इसीलिए तेरी कटु वाणी, जो किसी ने सिखाई है उस पर ध्यान नहीं दे रहा।
कह कपि तव गुन गाहकताई, सत्य पवनसुत मोहि सुनाई।
वन विधंसि सुत वधि पुरजारा, तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा।
सोइ विचारि तव प्रकृति सुहाई, दसकंधर मैं कीन्हि ढिठाई। देखेउं आइ जो कछु कपि भाषा, तुम्हरे लाज न रोष न माखा।
अंगद ने कहा कि तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान ने सुनाई थी उसने अशोक वन को विध्वंस कर, तुम्हारे पुत्र को मारकर, नगर जला डाला तब भी तुमने अपनी गुण ग्राहकता के चलते यही समझा कि हनुमान ने तुम्हारा कोई अपकार (बुरा व्यवहार) नहीं किया। तुम्हारा वही सुंदर स्वभाव विचार कर हे दशग्रीव, मैंने भी कुछ
धृष्टता की है। हनुमान जी ने जो
कुछ कहा था उसे मैंने प्रत्यक्ष देख लिया है। सचमुच तुम्हारे अंदर न तो लज्जा है न तो क्रोध है और न तुम चिढ़ते हो। -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button