अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

द्वन्द्वों से परे होता है ज्ञानी

अष्टावक्र गीता-77

 

ज्ञानी के लक्षण बताते हुए अष्टावक्र जी कहते हैं ज्ञानी की स्थिति द्वन्द्वों से पार की होती है। वह समत्व-बुद्धि वाला होता है। वह सदा एकरस रहता है। घड़ी के पेन्डुलम की भाँति एक अति से दूसरी अति को नहीं छूता।

अष्टावक्र गीता-77

न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।
न मुमुक्षुर्न वा मुक्तो न किंचिन चऽकिंचन ।। 96।।
अर्थात: ज्ञानी न सुखी है, न दुःखी, न विरक्त है न संगयुक्त है, न मुमुक्षु है न मुक्त है, न किंचन है (कुछ है) न अकिंचन (कुछ नहीं)
व्याख्या: ज्ञानी की स्थिति द्वन्द्वों से पार की होती है। वह समत्व-बुद्धि वाला होता है। वह सदा एकरस रहता है। घड़ी के पेन्डुलम की भाँति एक अति से दूसरी अति को नहीं छूता। बुद्ध ने भी यही कहा कि वीणा के तार न अधिक ढीले हों, न अधिक कसे हों तभी संगीत निकलता है। अज्ञानी ही इन अतियों में भटकते हैं। ज्ञान अति में नहीं समत्व में है, एकरसता में है। अहंकारी अतियों में आनन्द लेता है। ज्ञानी उस नट की भाँति है जो अतियों के बीच सन्तुलन रखता हुआ एक ही रस्सी पर ध्यान टिकाये हुए चलता है। इसलिए कहा है कि धर्म कृपाण की धार पर चलने के समान है। थोड़ा सा भी झुकाव एक ओर हुआ कि सारी साधना व्यर्थ हो जाती है। इसलिए अष्टावक्र कहते हैं कि ज्ञानी न सुखी है न दुःखी, न संगमयुक्त है, न विरक्त है, न मुमुक्षु है न मुक्त है, वह ऐसा भी नहीं मानता कि मैं कुछ हूँ, नगण्य हूँ, श्रेष्ठ हूँ, अन्य से ऊँचा हूँ। वह सदा समस्थिति में रहता है। जो उसी में सन्तुष्ट है।

विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान्।
जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः।। 97।।
अर्थात: धन्य पुरुष विक्षेप में भी विक्षिप्त नहीं है, समाधि में भी समाधि वाला नहीं है, जड़ता में भी जड़ नहीं है, पाण्डित्य में भी पण्डित नहीं है।
व्याख्या: जो ज्ञानी आत्मज्ञान के कारण समस्थिति को उपलब्ध हो गया, वह विक्षेपों को भी सहन कर लेता है, उनसे विक्षिप्त नहीं होता। वह समाधि में रहने वाला है किन्तु समाधि वाला नहीं है जो समाधि का निरन्तर अभ्यास करता है। वह नेताओं, उद्यमियों जैसी भाग-दौड़ नहीं करता इसलिए जड़वत् ज्ञान होता है किन्तु वह जड़ नहीं पूर्ण चैतन्य है, जागरूक है। उसमें पाण्डित्य तो है, पूर्ण ज्ञान है किन्तु अन्य पण्डितों जैसा न उसमें अहंकार है न पाण्डित्य-प्रदर्शन की भावना ही। वह तर्क-वितर्क में विश्वास न करके ज्ञान को सहज एवं स्वाभाविक रूप से जैसा है, जैसा उसने जाना है प्रस्तुत कर देता है।

मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकत्र्तव्यनिर्वृतः।
समः सर्वत्र वैतृष्णान्न स्मरत्यकृतं कृतम्।। 98।।
अर्थात: मुक्त पुरुष सब स्थितियों में स्वस्थ है, किये हुये और करने योग्य कर्म में तृप्त है, सर्वत्र समान है, तृष्णा के अभाव में किये और अनकिये कर्म को स्मरण नहीं करता है।
व्याख्या: जिसे ज्ञान हो गया वही मुक्त है। अज्ञानी बन्धन ग्रस्त है, वह रुग्ण है, कामना, वासना, अहंकार से पीड़ित है। जो इन बन्धनों को तोड़ चुका है, ऐसा मुक्त पुरुष ही स्वस्थ है। वह किये तथा करने योग्य कर्म दोनों से तृप्त है। किये पर न चिन्ता करता है, न शोक करता है, न प्रसन्न होता है तथा करने योग्य कर्म के प्रति उसकी वासना नहीं होती, फलाकांक्षा नहीं होती। कर्मों को सहज भाव से कर लेता है। दोनों में समान रूप से व्यवहार करता है। किये और अनकिये कर्मों का स्मरण नहीं करता है जिसमें तृष्णा होती है। लाभ-हानि का हिसाब वही रखता है जिसे कुछ पाना है। ज्ञानी को न कुछ पाना है, न छोड़ना है। इसलिए न वह पश्चाताप करता है, न प्रसन्ता एवं गर्व का अनुभव करता है। ज्ञानी की ऐसी स्थिति ही परमस्थिति है।

न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यामानो न कुप्यति।
नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति।। 99।।
अर्थात: मुक्त पुरुष न स्तुति किये जाने पर प्रसन्न होता है न निन्दित होने पर कुद्ध होता है। न मृत्यु में उद्विग्न होता है, न जीवन में हर्षित होता है।
व्याख्या: प्रशंसा एवं निन्दा से जो प्रभावित होता है वह ज्ञानी नहीं हो सकता। उसके भीतर अहंकार है जिस पर निन्दा की चोट लगने पर वह क्रुद्ध हो जाता है एवं उसे प्रशंसा द्वारा फुसलाये जाने पर वह प्रसन्न होता है। अज्ञानी इनसे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। मुक्त पुरुष न तो मृत्यु के समय उद्विग्न होता है क्योंकि वह उसे स्वाभाविक मानता है, सृष्टि का नियम मानता है, न वह जीवन से हर्षित ही होता है। ये सब चित्त की तरंगें हैं, विक्षेप हैं, जिनसे वह अप्रभावित रहता है। ऐसा ज्ञानी ही मुक्त है। ज्ञानी आत्मा में जीता है, जो नित्य है, अमृत है। उसकी मृत्यु होती ही नहीं है। शरीर में जीने वाले अज्ञानी की ही मृत्यु होती है इसलिए वही मृत्यु से भयभीत होता है।

न धावति जनाकीर्ण नारण्यमुपशान्तधीः।
यथा तथा यत्र तत्र सम एवावतिष्ठते।। 100।।
अर्थात: शान्त बुद्धि वाला पुरुष न लोगों से भरे नगर की ओर भागता है, न वन की ओर ही। वह सभी स्थिति और सभी स्थान में समभाव से ही स्थित रहता है।
व्याख्या: भाग-दौड़ वही करता है जिसे कुछ पाना है, जिसमें वासना एवं तृष्णा है। यह वासना चाहे संसार की हो या मोक्ष की, वासना ही है। जिस ज्ञानी ने उस परम-तत्व को जान लिया जिये आत्मानुभव हो गया, जिसे परम मिल गया, जो मुक्त हो गया उसकी सारी भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है, उसकी सारी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ समाप्त हो जाती हैं, उसे सृष्टि में एकत्व का अनुभव हो जाता है जिससे उसमें समभाव पैदा हो जाता है। ऐसा ज्ञानी शान्त बुद्धि वाला हो जाता है। वह सभी स्थानों पर तथा सभी स्थितियों में समान भाव से अवस्थित रहता है, चाहे वह नगर हो या वन, भीड़भाड़ वाला स्थान हो या सुनसान स्थान, महल में रहे या झोपड़ी में, कोई अन्तर नहीं आता। अज्ञानी चुनाव करता है कि ऐसे स्थान पर ही रहूँगा, ऐसा ही खाना खाऊँगा, भिक्षा माँगकर ही खाऊँगा, ऐसे वस्त्र ही पहनूँगा या नग्न ही रहूँगा आदि, किन्तु ज्ञानी चुनाव रहित हो जाता है। जो है उसी में संतुष्ट है। वह उपकरण मात्र हो जाता है। यही जीवन्मुक्त की परम स्थिति है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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