अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-8

अर्जुन उवाच

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-8 के श्लोक 1 से 9 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

अर्जुन उवाच
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।1।।
अर्जुन ने कहा- हे भगवान्! यह ब्रह्म क्या है, कर्म किसका नाम है, तथा अध्यात्म किसे कहते हैं? अधिभूत क्या है और इस संसार में अधिदैवत कौन है? यह मेरी समझ में आ सके, ऐसे सरल ढंग से बताइए।

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।2।।
भगवान्! अधियज्ञ क्या है, और वह इस देह में कौन है, यह बात अनुमान से समझ में नहीं आती। जिन्हांेने अन्तःकरण को वश में कर लिया है, वे अन्त काल में आपको किस प्रकार पहचान पाते हैं, यह मुझे अच्छी प्रकार समझाइए।

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोभ्दवकरो विसर्गः कर्मस´्ज्ञितः।।3।।
फिर सर्वेश्वर श्री कृष्ण ने कहा-जो इन छिद्रों से भरे शरीर में भरा हुआ है, और कभी नहीं गिरता। वह इतना सूक्ष्म है कि बिल्कुल शून्य लगता है, उसे ‘परब्रह्म’ कहते हैं। शरीर का नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता। जो ब्रह्म अपनी ही स्थिति में बना रहता है उसी का नाम ‘अध्यात्म’ है। अव्यक्त में कर्ता के सिवाय आकार उत्पन्न करने का जो व्यवसाय है, उसे ‘कर्म’ कहते हैं।

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।4।।
जिस प्रकार मेघ उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं, उसी प्रकार जिसका अस्तित्व झूठा और दिखावटी है और वास्तव में जो नहीं होता और जिसे पंचमहाभूत एकत्र होकर उसे रूप प्रदान करते हैं, जो केवल पंचमहाभूतों के आश्रय में रहता है, उनके ही संयोग से दिखाई देता है, तथा विनाशकाल में लुप्त हो जाता है, उसे ‘अधिभूत’ कहते हैं। तो ‘अधिदैवत’ को (पुरुष) जीव समझा जाए। वह प्रकृति द्वारा उत्पन्न किए हुए भोगों का उपभोग करता है। जो बुद्धि का दृष्टा, इन्द्रियरूपी देश का अधिपति तथा शरीर के अन्तकाल में मनोरथरूपी पक्षियों के लिए विश्राम करने का वृक्ष है, जो वास्तव में दूसरा परमात्मा ही है, किन्तु अहंकार रूपी निद्रा में होने के कारण जिसे स्वप्न के मायारूपी झगड़े में सन्तोष और थकावट दोनों का ही अनुभव होता है, उसे सहज ही ‘जीव’ कहा जाता है। और जो पंचभूतात्मक शरीर का मुख्य देवता है उसे ‘अधिदैवत’ कहते हैं। इसी शरीररूपी गाँव में जो देहतादात्म्य का लोप करता है, वह उस शरीर का ‘अधियज्ञ’ मैं ही हूँ। अहंभाव नष्ट हो जाने पर जो मूलभूत एकता है वह दिखाई देती है। वह ‘अधियज्ञ’ मैं ही हूँ। उसी को ‘ब्रह्म’ कहा जाता है। जब माया जल जाती है तो फिर इसे जलाने वाला ज्ञान भी जल जाता है।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मभ्दावं याति नास्त्यत्र संशयः।।5।।
जिसे मैंने अधियज्ञ कहा उसे अर्थात् मुझे पहले तथा प्राणान्त के साथ भी जानते हैं, वे शरीर को मिथ्या मानकर अपने ही में ब्रह्मरूप हो जाते हैं। वहाँ पर उन्हें ब्रह्म के सिवाय बाहर की किसी वस्तु का स्मरण नहीं रहता। जिस शरीर के जीवित रहने पर भी वह उसकी चिन्ता नहीं करता, उसके नष्ट होने पर उसे दुःख क्यों होगा? ऊपर-ऊपर से दिखने वाला मायारूपी शरीर यदि नष्ट भी हो जाता है तो भी ब्रह्म तो सर्वत्र भरा ही हुआ है। इस प्रकार अन्तकाल में मेरा स्मरण कर जो देह त्याग करते हैं वे तद्रूप हो जाते हैं। वैसे साधारण नियम यह है कि मृत्यु के समय अन्तःकरण में जिसका स्मरण होता है, उसे ही वह प्राप्त
करता है।

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तभ्दावभावितः।।6।।
उसी प्रकार जीवित अवस्था में अन्तःकरण
में जिस वस्तु की लालसा रहती है, वह अन्त समय में बढ़ जाती है और मृत्यु के समय जिस बात का स्मरण रहता है, वही गति वह प्राप्त करता है।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्।।7।।
इसलिए तुम मेरा ही स्मरण किया करो। फिर यह सब कुछ मैं हूँ, यह तुम्हें दिखाई देगा। सारी वस्तुएँ मेरा ही रूप हैं, ऐसा तुम्हारे मन में निश्चित हो जाने पर, शरीर नष्ट होने पर भी तुम नहीं मरोगे। फिर युद्ध करने में तुम्हें भय किस बात का है?

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।8।।
जिस प्रकार समुद्र में मिलने पर वह नदी समुद्र ही बन जाती है, उसी प्रकार जब चित्त आत्मरूप हो जाता है, तब जन्म-मरण की यातानाएँ समाप्त हो जाती हैं, क्योंकि वहाँ परमानन्द ही भरा हुआ है।

कविं पुराणममनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।।9।।
अगर पूछोगे कि परमानन्द कैसा है, तो जिसका निराकार असितत्व, जिसे जन्म-मरण नहीं तथा जो सबको व्यापक दृष्टि से देखता है, जो आकाश से भी प्राचीन है, जो परमाणु से भी सूक्ष्म है, जिसके कारण विश्व के समस्त व्यापार चलते हैं, जिससे इन सब की उत्पत्ति होती है, पूरा विश्व जीवित रहता है और जिसका अनुमान करना कठिन है क्योंकि वह अचिन्त्य है। वह सदा ज्ञान का प्रकाश करने वाला है और जिसमें अस्त का नाम भी नहीं है। – क्रमशः (हिफी)

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