धर्म-अध्यात्म

भविष्य पुराण सौर-प्रथम ग्रन्थ है। इसके अधिष्ठातृदेव भगवान् सूर्य हैं

सूर्य की महिमा दर्शाता भविष्य पुराण

                                                              सूर्य की महिमा दर्शाता भविष्य पुराण
‘भविष्य पुराण’ अठारह महापुराणों के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण सात्त्विक पुराण है, इसमें इतने महत्त्व के विषय भी हैं, जिन्हें पढ़-सुनकर चमत्कृत होना पड़ता है। यद्यपि श्लोक-संख्या में न्यूनाधिकता प्रतीत होती है। भविष्य पुराण के अनुसार इसमें पचास हजार श्लोक होने चाहिये जबकि वर्तमान में अट्ठाइस सहó श्लोक ही इस पुराण में उपलब्ध हैं। कुछ अन्य पुराणों के अनुसार इसकी श्लोक संख्या साढ़े चैदह सहó होनी चाहिये। इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे विष्णु पुराण की श्लोक संख्या विष्णु धर्मोत्तर पुराण को सम्मिलित करने से पूर्ण होती है, वैसे भविष्य पुराण में भविष्ययोत्तरपुराण कर लिया गया है, जो वर्तमान में भविष्य पुराण का उत्तर पर्व है। इस पर्व में मुख्य रूप से व्रत, दान एवं उत्सवों का ही वर्णन है।
वस्तुतः भविष्य पुराण सौर-प्रथम ग्रन्थ है। इसके अधिष्ठातृदेव भगवान् सूर्य हैं, वैसे भी सूर्य नारायण प्रत्यक्ष देवता हैं जो पंच देवों में परिगणित हैं और अपने शास्त्रों के अनुसार पूर्ण बह्म के रूप में प्रतिष्ठित हैं। द्विज मात्र के लिये प्रातः मध्यान्ह एवं सायंकाल की संध्या में सूर्य देव को अध्र्य प्रदान करना अनिवार्य है इसके अतिरिक्त स्त्री तथा अन्य आश्रमों के लिये भी नियमित
सूर्याध्र्य देने की विधि बतलायी गयी है। आधि भौतिक आधि दैविक रोग-शोक, संताप आदि सांसारिक दुःखों की निवृत्ति भी सूर्योपासना से सद्यः होती है। प्रायः पुराणों में शैव और वैष्णव पुराण ही अधिक प्राप्त होते हैं जिनमें शिव और विष्णु की महिमा का विशेष वर्णन मिलता है, परंतु भगवान् सूर्य देव की महिमा का विस्तृत वर्णन इसी पुराण में उपलब्ध है। यहाँ भगवान् सूर्य नारायण को जगत्óष्टा, जगत्पालक एवं जगत्संहारक पूर्ण ब्रह्म परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। सूर्य के महनीय स्वरूप के साथ-साथ उनके परिवार, उनकी अद्भुत कथाओं तथा उनकी उपासना पद्धति का वर्णन भी यहां उपलब्ध है। उनका प्रिय पुष्प क्या है, उनकी पूजा विधि क्या है, उनके आयुध-व्योम के लक्षण तथा उनका माहात्म्य, सूर्य-नमस्कार और सूर्य-प्रदक्षिणा की विधि और उसके फल, सूर्य को दीप-दान की विधि और महिमा, इसके साथ ही सौर धर्म एवं दीक्षा की विधि और महिमा, इसके साथ ही सौर धर्म एवं दीक्षा की विधि आदि का महत्वपूर्ण वर्णन हुआ है। इसके साथ ही सूर्य के विराट् स्वरूप का वर्णन, द्वादश मूर्तियों का वर्णन, सूर्यावतार तथा भगवान् सूर्य की रथ यात्रा आदि का विशिष्ट प्रतिपादन हुआ है। सूर्य की उपासना में व्रतों की विस्तृत चर्चा मिलती है। सूर्य देव की प्रिय तिथि है ‘सप्तमी’। अतः विभिन्न फल श्रुतियों के साथ सप्तमी तिथि अनेक व्रतों का और उनके उद्यापनों का यहां विस्तार से वर्णन हुआ है। अनेक सौर तीर्थों के भी वर्णन मिलते हैं। सूर्योपासना में भाव शुद्धि की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है। यह इसकी मुख्य बात है।
इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, गणेश, कार्तिकेय तथा अग्नि आदि देवों का भी वर्णन आया है। विभिन्न तिथियों और नक्षत्रों के अधिष्ठात-देवताओं तथा उनकी पूजा के फल का भी वर्णन मिलता है। इसके साथ ही ब्राह्म पर्व में ब्रह्मचारि
धर्म का निरूपण, गृहस्थ धर्म का निरूपण, माता-पिता तथा अन्य गुरुजनों की महिमा का वर्णन, उनको अभिवादन करने की विधि, उपनयन, विवाह आदि संस्कारों का वर्णन, स्त्री-पुरुषों के सामुद्रिक शुभाशुभ-लक्षण, स्त्रियों के पारस्परिक व्यवहार, पंच महायज्ञों का वर्णन, बलिवैश्व देव, अतिथि-सत्कार, श्राद्धों के विविध भेद, मातृ-पितृ श्राद्ध आदि उपादेय विषयों पर विशेष रूप से विवेचन हुआ है। इस पर्व में नागपंचमी-व्रत की कथा का भी उल्लेख मिलता है, जिसके साथ नागों की उत्पत्ति, सर्पों के लक्षण, स्वरूप और उसकी चिकित्सा आदि का विशिष्ट वर्णन यहाँ उपलब्ध है। इस पर्व की विशेषता यह है कि इसमें व्यक्ति के उत्तम आचरण को ही विशेष प्रमुखता दी गयी है। कोई भी व्यक्ति कितना भी विद्वान, वेदाध्यायी, संस्कारी तथा उत्तम जाति का क्यों न हो, यदि उसके आचरण श्रेष्ठ, उत्तम नहीं है तो वह श्रेष्ठ पुरुष नहीं कहा जा सकता। लोकों में श्रेष्ठ और उत्तम पुरुष वे ही है जो सदाचारी और सत्पथगामी है।
भविष्य पुराण में ब्राह्म पर्व के बाद मध्यम पर्व का प्रारंभ होता है जिसमें सृष्टि तथा सात ऊध्र्व एवं सात पाताल लोकांे का वर्णन हुआ है। ज्योतिश्चक्र तथा भूगोल के वर्णन भी मिलते हैं। इस पर्व में नरकगामी मनुष्यों के 26 दोष बताये गये हैं, जिन्हें त्याग कर शुद्धतापूर्वक मनुष्य को इस संसार में रहना चाहिये। पुराणों के श्रवण की विधि तथा पुराण-वाचक की महिमा का वर्णन भी यहां प्राप्त होता है। पुराणों को श्रद्धा भक्तिपूर्वक सुनने से ब्रह्म हत्या आदि अनेक पापों से मुक्ति मिलती है। जो प्रातः रात्रि तथा सायं पवित्र होकर पुराणों का श्रवण करता है, उस पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रसन्न हो जाते हैं। इस पर्व में इष्टापूर्त कर्म का निरूपण अत्यन्त समारोह के साथ किया गया है। जो कर्म ज्ञान साध्य है तथा निष्कामभाव पूर्वक किये गये कर्म और स्वाभाविक रूप से अनुरागा भक्ति के रूप में किये गये हरिस्मरण आदि श्रेष्ठ कर्म अन्तर्वेदी कर्मों के अन्तर्गत आते हैं, देवता की स्थापना और उनकी पूजा, कुआँ, पोखरा, तालाब, बावली आदि खुदवाना, वृक्षारोपण, देवालय, धर्मशाला, उद्यान आदि लगवाना तथा गुरुजनों की सेवा और उनको संतुष्ट करना-ये सब बहिर्वेदी (पूर्त) कर्म हैं। देवालयों के निर्माण की विधि, देवताओं की प्रतिमाओं के लक्षण और उनकी स्थापना, प्रतिष्ठा की कर्तव्य-विधि, देवताओं की पूजा पद्धति, उनके ध्यान और मंत्र उनके मंत्रों के ऋषि और छन्द-इन सर्वोपरि पर्याप्त विवेचन किया गया है। पाषाण, काष्ठ, मुक्ति का ताम्र, रत्न एवं अन्य श्रेष्ठ
धातुओं से बनी उत्तम लक्षणों से युक्त प्रतिमा का पूजन करना चाहिये। घर में प्रायः आठ अंगुल तक ऊंची मूर्ति का पूजन करना श्रेयस्कर माना गया है। इसके साथ ही तालाब, पुष्पकारिणी, वापी तथा भवन आदि की निर्माण-पद्धति, गृह वास्तु, प्रतिष्ठा की विधि, गृह वास्तु में किन देवताओं की पूजा की जाय, इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
वृक्षारोपण, विभिन्न प्रकार के वृक्षों की प्रतिष्ठा का विधान तथा गोचर भूमि की प्रतिष्ठा-सम्बन्धी चर्चाएं मिलती हैं जो व्यक्ति छाया, फूल तथा फल देने वाले वृक्षों का रोपण करता है या मार्ग में तथा देवालय में वृक्षों को लगाता है, वह अपने पितरों को बड़े से बड़े पापों सत तारता है और रोपण कर्ता इस मनुष्य लोक में महती कीर्ति तथा शुभ परिणाम को प्राप्त करता है। जिसे पुत्र नहीं हैं उसके लिये वृक्ष ही पुत्र हैं। वृक्षारोपण कर्ता के लौकिक-पारलौकिक कर्म वृक्ष ही करते रहते हैं तथा उसे उत्तम लोक प्रदान करते हैं। यदि कोई अश्वत्थ वृक्ष का आरोपण करता है तो वही उसके लिये एक लाख पुत्रों से भी बढ़कर है। अशोक वृक्ष लगाने से कभी शोक नहीं होतां बिल्व-वृक्ष दीर्घ आयुष्य प्रदान करता है। इसी प्रकार अन्य वृक्षों के रोपण की विभिन्न फल श्रुतियां आयी हैं। सभी मांगलिक कार्य निर्विघन्तापूर्वक सम्पन्न हो जायें तथा शान्ति भंग न हो इसके लिये ग्रह-शान्ति और शान्ति प्रद अनुष्ठानों का भी इसमें वर्णन मिलता है। (हिफी)

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