अर्जुन को व्यथित देख विष्णु रूप में हुए कृष्ण
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-18)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘रूपम्’ के साथ ‘इदम’, ‘परम्’, ‘तेजोमयम्’, ‘आद्यम्’, ‘अनन्तम्’ और ‘विश्वम्’ विशेषण देने का क्या भाव है?
उत्तर-इन विशेषणों के प्रयोग से भगवान् अपने अलौकिक और अद्भुत विराट् स्वरूप का महत्व अर्जुन को समझा रहे हैं। वे कहते हैं कि मेरा यह रूप अत्यन्त उत्कृष्ट और दिव्य है, असीम और दिव्य प्रकाश का पुंज है, सबको उत्पन्न करने वाला सबका आदि है, असीम रूप से विस्तृत है, किसी ओर से भी इसका कहीं ओर-छोर नहीं मिलता। तुम जो कुछ देख रहे हो, यह पूर्ण नहीं है। यह तो मेरे उस महान् रूप का अंशमात्र है।
प्रश्न-मेरा यह रूप ‘तेरे सिवा दूसरे के द्वारा पहले नहीं देखा गया’ भगवान् ने इस प्रकार कैसे कहा, जबकि वे इससे पहले यशोदा माता को अपने मुख में और भीष्मादि वीरों को कौरवों की सभा में अपने विराट् स्वरूप के दर्शन करा चुके हैं?
उत्तर-यशोदा माता को अपने मुख में और भीष्मादि वीरों को कौरवों की सभा में जिन विराट् रूपों के दर्शन कराये थे, उनमें और अर्जुन को दीखने वाले इस विराट् रूप में बहुत अन्तर है। तीनों के भिन्न-भिन्न वर्णन हैं। अर्जुुन को भगवान् ने जिस रूप के दर्शन कराये, उसमें भीष्म और द्रोण आदि शूरवीर भगवान् के प्रज्वलित मुखों में प्रवेश करते दीख पड़ते थे। ऐसा विराट रूप भगवान् ने पहले कभी किसी को नहीं दिखलाया था। अतएव भगवान् के कथन में किसी प्रकार की भी असंगति नहीं है।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।। 48।।
प्रश्न-वेदयज्ञाध्ययनैः’, दानैः’, क्रियाभिः;’ और ‘उग्रैः तपोभिः’-इन पदों का एवं इनसे भगवान् के विराट् रूप का देखा जाना शक्य नहीं है-इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-वेद वेत्ता को पढ़कर उन्हें भलीभाँति समझ लेने का नाम
‘वेदाध्ययन’ है। यज्ञ क्रिया में सुनिगुण याज्ञिक पुरुषों की सेवा में रहकर उनके द्वारा यज्ञविधियों को पढ़ना और उन्हीं की अध्यक्षता में विधिवत् किये जाने वाले यज्ञों को प्रत्यक्ष देखकर यज्ञ सम्बन्धी समस्त क्रियाओं को भलीभाँति जान लेना ‘यज्ञ का अध्ययन’ है।
धन, सम्पति, अन्न, जल, विद्या, गौ, पृथ्वी आदि किसी भी अपने स्वत्व की वस्तु का दूसरों के सुख और हित के लिए प्रसन्न हृदय से जो उन्हें यथायोग्य दे देना है-इसका नाम ‘दान’ है।
श्रौत-स्मार्त यज्ञादि का अनुष्ठान और अपने वर्णाश्रम धर्म का पालन करने के लिये किये जाने वाले समस्त शाó विहित कर्मों को ‘क्रिया’ कहते हैं।
कृच्छ-चान्द्रयणादि व्रत, विभिन्न प्रकार के कठोर नियमों का पालन, मन और इन्द्रियों का विवेक और बल पूर्वक दमन तथा धर्म के लिये शारीरिक व मानसिक कठिन क्लेशों का सहन, अथवा शाó विधि के अनुसार की जाने वाली अन्य विभिन्न प्रकार की तपस्याएँ-इन्हीं सबका नाम ‘उग्र तप’ है
इन सब साधनों के द्वारा भी अपने विराट स्वरूप के दर्शन को असम्भव बतलाकर भगवान! उस रूप की महत्ता प्रयत्नों से भी जिसके भी दर्शन नहीं हो सकते उसी रूप को तुम मेरी प्रसन्नता और कृपा प्रसाद से प्रत्यक्ष देख रहे हो-यह तुम्हारा महान! सौभाग्य है। इस समय तुम्हें जो भयः, दुख और मोह हो रहा है-यह उचित नहीं है।
प्रश्न-विराट् रूप के दर्शन को अर्जुन के अतिरिक्त दूसरों के लिये अशक्य बतलाते समय ‘नृलोके’ पद का प्रयोग करने का क्या भाव है? क्या दूसरे लोकों में इसके दर्शन अशक्य नहीं हैं?
उत्तर-वेद-यज्ञादि के अध्ययन, दान, तप, तथा अन्यान्य विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का अधिकार मनुष्य लोक में ही है। और मनुष्य शरीर में ही जीव भिन्न-भिन्न प्रकार के नवीन कर्म करके भाँति-भाँति के अधिकार प्राप्त करता है। मनुष्य लोक के इसी महत्त्व को समझाने के लिये यहाँ ‘नृलोके’ पद का प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि जब मनुष्य लोक में भी उपर्युक्त साधनों द्वारा दूसरा कोई मेरे इस रूप को नहीं देख सकता, तब अन्यान्य लोकों में और बिना किसी साधन के कोई नहीं देख सकता-इसमें तो कहना ही क्या है?
प्रश्न-‘कुरुप्रवीर’ सम्बोधन का क्या भाव है?
उत्तर-इसका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि तुम कौरवों में श्रेष्ठ वीर पुरुष हो, तुम्हारे जैसे वीर पुरुष के लिये इस प्रकार भयभीत होना शोभा नहीं दे सकता, इसलिये भी तुम्हें भय नहीं करना चाहिये।
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्टा रूपं घोरमीदृडंमेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव में रूपमिदं प्रपश्य।। 49।।
प्रश्न-मेरे इस विकराल रूप को देखकर तुझको व्याकुलता और मूढभाव नहीं होना चाहिये, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इस कथन से भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि मैंने जो प्रसन्न होकर तुम्हें इस परम दुर्लभ विराट स्वरूप के दर्शन कराये हैं, इससे तुम्हारे अंदर व्याकुलता और मूढ़भाव का होना कदापि उचित न था। तथापि जब इसे देखकर तुम्हें व्यथा तथा मोह हो रहा है और तुम चाहते हो कि मैं अब इस स्वरूप को संवरण कर लूँ तब तुम्हारे इच्छानुसार तुम्हें सुखी करने के लिये अब मैं इस रूप को तुम्हारे सामने से छिपा लेता हूँ तुम मोहित और डरके मारे व्यथित न होओ।
प्रश्न-‘स्वम्’ के साथ ‘व्यपेतभीः’ और प्रीतमनाः विशेषण देने का क्या अभ्रिपाय है?
उत्तर-‘त्वम्’ के साथ ‘व्यपेतभीः’ और ‘प्रीतमनाः’ विशेषण देकर भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस रूप से तुम्हें भय और व्याकुलता हो रही थी, उसको संवरण करके अब मैं तुम्हारे इच्छित चतुर्भुज रूप में प्रकट होता हूँ इसलिये तुम भय रहित और प्रसन्न मन हो जाओ।
प्रश्न-‘रूपम्’ के साथ ‘तत्’ और ‘इदम्’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है? तथा ‘पुनः’ पद का प्रयोग करके उस रूप को देखने के लिये कहने का क्या भाव है?
उत्तर-‘तत्’ और ‘इदम’ विशेषण देकर यह भाव दिखलाया है कि जिस चतुर्भुज देवरूप के दर्शन मैंने तुमको पहले कराये थे एवं अभी जिसके दर्शन के लिये तुम प्रार्थना कर रहे हो, अब तुम उसी रूप को देखो यह वही रूप अब तुम्हारे सामने है। अभिप्राय यह है कि अब तुम्हारे सामने से वह विश्व रूप हट गया है और उसके बदले चतुर्भुज रूप प्रकट हो गया है, अतएव अब तुम निर्भय होकर प्रसन्न मन से मेरे इस चतुर्भुज रूप के दर्शन करो।
पुनः पद से प्रयोग से यहाँ यह प्रतीत होता है कि भगवान् ने अर्जुन को अपने चतुर्भुज रूप के दर्शन पहले भी कराये थे, पैंतालीसवें और छियालीसवें श्लोकों में की हुई अर्जुन की प्रार्थना में ‘तत् एव’ और ‘तेन एव’ पदों के प्रयोग से भी यही भाव स्पष्ट होता है।-क्रमशः (हिफी)