सम-सामयिक

चिंतनीय है मुकदमों का बोझ

 

भारत में अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है। नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक, देशभर की अदालतों में पांच करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग हैं। इनमें से लगभग साढ़े चार करोड़ से ज्यादा मामले तो जिला और तालुका अदालतों में ही हैं। वहीं देश के 25 हाई कोर्ट में 59 लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं जबकि, सुप्रीम कोर्ट में लगभग एक लाख केस पेंडिंग हैं।

भारतीय अदालतों की निष्पक्षता और न्यायप्रियता आज चैतरफा हमले की शिकार है। अदालतों की कार्य-प्रणाली में कई अवसर पर आपत्ति अथवा किसी न किसी फैसले को लेकर उंगली उठाई जा रही है। बाकायदा रोस्ट किए जा रहे हैं। अदालत अपने सर्वोच्च होने के गुमान में आत्मगौरव और प्रशंसा से अभिभूत हो रही है। काॅलेजियम के बूते पर विक्रमादित्य के न्याय सिंहासन सरीखे सुप्रीम कोर्ट की न्याय के देवता की कुर्सी पर विराजमान लोग न्यायिक प्रक्रिया से कार्यपालिका विधायिका का नियमन कर रहे हैं। आम लोग न्याय की तलाश में अदालत आते हैं किन्तु इन्हीं अदालतों से उन्हें न्याय नहीं अगली पेशी अगले साल से बाबस्ता होना पड़ता है। ‘तारीख पर तारीख’ पड़ते जाने वाले दशकों पुराने जुमले पर आज तक विराम नहीं लगाया जा सका है। स्थिति यह हो गई है कि अदालतों में लम्बित पड़े मामलों के ढेर का पहाड़ लगातार ऊंचा होता जा रहा है। कई-कई पीढ़ियों को एक ही मामले में न्याय की तलाश में जिंदगी खप जाती है। बहुत से मामले तो साठ सत्तर साल से अदालत में लटके है।

नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक, कलकत्ता हाईकोर्ट में एक मामला 1951 से पेंडिंग है। यानी, कि 72 साल बाद भी उस मामले का निपटारा नहीं हो सका है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार देशभर की 25 हाई कोर्ट में कुल 59.78 लाख से ज्यादा मामले पेंडिंग हैं। इनमें से 42.92 लाख सिविल मामले हैं, जबकि 16.86 लाख क्रिमिनल मामले हैं। आंकड़ों के मुताबिक, 10 लाख से ज्यादा मामले ऐसे हैं जो एक साल में आए हैं। करीब साढ़े 9 लाख मामले एक से तीन साल पुराने हैं। जबकि, 11.24 लाख मामले तीन से पांच साल से अदालतों में पेंडिंग हैं। 73 हजार से ज्यादा मामले तो ऐसे हैं जो 30 साल से भी लंबे समय से हाई कोर्ट में अटके पड़े हैं।

अदालतों में मुकद्दमों के निपटारे के लम्बा खिंचते जाने के अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु इनमें जो प्रमुख रूप से सामने आते हैं, उनमें एक बड़ा कारण वकीलों द्वारा सही समय पर पेशी हेतु उपस्थित न होना, अथवा जानबूझ कर अदालतों से अनुपस्थित रहना भी होता है। इसका परिणाम यह निकला है कि आज देश की तमाम छोटी-बड़ी अदालतों में चिरकाल से लम्बित बड़े मामलों की संख्या 4 करोड़ 40 लाख से ऊपर हो गई है।

इस संबंध में केन्द्र सरकार के न्यायिक प्रक्रिया से सम्बद्ध एक विभाग द्वारा किये गये विश्लेषण के बाद जो रिपोर्ट सामने आई है, उससे खुलासा हुआ है कि मामलों के निरन्तर लम्बे होते जाने के कारणों में, न्याय प्रदान करने वाले कई पक्षों के जिम्मेदारीपूर्ण तरीके से काम न किया जाना भी प्रमुख होता है। अन्य कारणों में रिकार्ड का बार-बार गायब होना, दस्तावेजों का समय पर न पहुंचना, गवाहों की अधिकता, गवाहों को सीमित करने की कोई प्रक्रिया न होना और वकीलों द्वारा बार-बार स्थगन ले लेना आदि हैं। वकीलों का हड़ताल का रवैया भी मामलों को लटकाने का कारण बनता है। कई मामलों में अपराधियों के भगौड़ा हो जाने और पुलिस तंत्र द्वारा भगौड़ों की पुनः गिरफ्तारी हेतु पूरी ईमानदारी के साथ काम न करना भी इस समस्या के लिए उत्तरदायी हो जाता है। फैसला होने की प्रक्रिया लम्बी होते जाने के कारण वादी पक्ष द्वारा आर्थिक तंगी में घिर जाने से भी वादों का पहाड़ ऊंचा होता है। अदालतों में न्यायाधीशों की कमी और अन्य सम्बद्ध अमले की अपूर्णता भी इस समस्या के निरन्तर गम्भीर होते जाने का कारण बनती है। एक अनुमान के अनुसार लगभग 10 लाख वादियों ने अपने मामलों के एक दशक तक लटके रहने के कारण अदालतों में आना ही छोड़ दिया।

अदालतों में पेंडिंग मामलों में लगने वाले समय को लेकर एक स्टडी हुई थी।ये स्टडी कानून पर काम करने वाली संस्था दक्ष ने की थी। इस संस्था ने अलग-अलग अदालतों में लंबित 40 लाख से ज्यादा मामलों के आधार पर रिपोर्ट जारी की थी।

इस आधार पर संस्था ने अनुमान लगाया था कि अगर आपका कोई केस किसी हाई कोर्ट में जाता है तो उसका निपटारा होने में करीब 3 साल और 1 महीने का वक्त लगता है। वहीं, अगर मामला जिला या तालुका अदालत में जाता है तो उसे निपटने में 6 साल लग सकते हैं। और अगर मामला सुप्रीम कोर्ट में जाता है तो 13 साल का समय लग सकता है।

इस सम्पूर्ण स्थिति का एक बेहद चिंताजनक तथ्य यह भी है कि न्यायाधीशों की तमाम ईमानदारी, प्रतिबद्धता और निष्ठा के बावजूद, प्रत्येक स्तर पर लम्बित मामलों की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में निरन्तर बढ़ती जाती है। निःसंदेह यह स्थिति देश की न्याय प्रणाली और न्यायिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है। इस कारण न्यायिक धरातल पर तारीख पर तारीख वाला जुमला निरन्तर भारी होते चला जाता है। अधिकतर मामलों के दशकों तक लम्बा खिंचते जाने से वादी अथवा प्रतिवादी न्याय मिलने से पहले ही दुनिया से विदा हो जाते हैं। इस कारण आम आदमी की आस न्याय मिलने की प्रतीक्षा में टूट जाती है और जहां न्याय न मिलना अन्याय की कक्षा में शुमार होने लगता है, वहीं इस कारण अनेक मामलों में वादी अथवा प्रतिवादी पक्ष अप्राकृतिक न्याय की ओर भी अग्रसर हो जाते हैं जिससे कई बार निजी शत्रुतापूर्ण अपराधों के बढ़ने की आशंका पैदा होने लगती है। हम समझते हैं कि इस समस्या के हल के लिए सर्व प्रथम अदालतों के भीतर जजों और अन्य स्टाफ की कमी को यथा-सम्भव एवं यथा-शीघ्र पूर्ण किया जाना होगा। वकीलों की भारी-भरकम फीस भी आड़े आने लगी है न्याय हासिल करना आम आदमी के लिए निरन्तर महंगा कठिन दिवास्वप्न सरीखा होता जा रहा है। इस कारण आम लोगों के मन में न्यायिक प्रक्रिया के प्रति निराशा पैदा होने लगती है। हम यह भी समझते हैं कि लोक अदालतों की प्रक्रिया को अधिकाधिक अपना कर भी अदालतों के सिर पर भारी होती जाती लम्बित मामलों की गठरी को हल्का किया जा सकता है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता होगी और ऐसे प्रयास तत्काल रूप से किये जाने होंगे।

लॉ कमीशन ने 120वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि हर 10 लाख लोगों पर 50 जज होने चाहिए। लॉ कमीशन की ये रिपोर्ट जुलाई 1987 में आई थी। उस समय हर 10 लाख आबादी पर 11 से भी कम जज थे। विगत वर्ष तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री द्वारा राज्यसभा में बताया गया था कि भारत में हर 10 लाख लोगों पर 21 जज हैं। इसका मतलब हुआ कि लॉ कमिशन की रिपोर्ट के 35 साल बाद भी हर 10 लाख लोगों पर सिर्फ 11 जज ही बढ़े। हालांकि, इस दौरान आबादी कई गुना बढ़ी। देखना है कि ये विसंगतियां दूर करने के लिए सरकार कब धरातल पर प्रयास करती है? (हिफी)

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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