लेखक की कलम

‘राइट’ दांव मंे फंसा ‘लेफ्ट’

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के महासचिव सीताराम येचुरी को इस बात का गुमान भी नहीं होगा कि एक दिन दक्षिणपंथी (भाजपा) के दांव मंे उनका वामपंथ अर्थात् लेफ्ट उलझ जाएगा। अयोध्या मंे मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का मंदिर तैयार हो गया है और अगले साल अर्थात् 2024 की 22 जनवरी को मंदिर मंे प्राण-प्रतिष्ठा समारोह होना है। यह अतिविशिष्ट अवसर बताया जा रहा है क्योंकि इस दिन देश की जनता को भी अयोध्या पहुंचने का अवसर सीमित रूप से ही मिलेगा। विदेश से भी मेहमान आ रहे हैं। अतिविशिष्ट लोगों का आगमन होगा। चप्पे-चप्पे पर सुरक्षा बल तैनात हैं। ऐसे मंे जिनको 22 जनवरी के दिन अयोध्या जाने का निमंत्रण मिल रहा है, वे बहुत ही सौभाग्यशाली बताये जा रहे हैं। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी को भी निमंत्रण भेजा गया है। मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारेाह मंे वामपंथियों के जाने से उनका वोट बैंक नाराज होगा और उनका धार्मिक कार्यक्रमों मंे शामिल होने का सिद्धांत भी आहत होगा। इसलिए सीताराम येचुरी ने इस कार्यक्रम मंे नहीं जाने का फैसला किया है। उनकी पार्टी राजनीति को धर्म से जोड़ने के खिलाफ है हालांकि धुर वामपंथी ममता बनर्जी दुर्गा पूजा पंडाल मंे उद्घाटन करने जाती हैं। सीताराम येचुरी के परिवार की महिलाएं भी दुर्गा पूजा करती होंगी लेकिन अयोध्या में राम मंदिर को लेकर राजनीति हो रही है। सीपीएम महासचिव को अगर निमंत्रण न भेजा जाता तब भी वह शिकायत करते कि उनकी पार्टी की उपेक्षा की गयी और निमंत्रण भेजा गया तब धर्म को राजनीति से जोड़ा जा रहा है।
अयोध्या में चिर प्रतीक्षित राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर विभिन्न दलों के नेताओं को भी निमंत्रण भेजा गया है। वामपंथी नेताओं ने कहा है कि वो इसमें शामिल नहीं हांेगे। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी को न्योता गया है, लेकिन वो इसमें नहीं जाएंगे। सीपीएम नेता बृंदा करात का कहना है कि उनकी पार्टी धर्म को राजनीति से जोड़ने में भरोसा नहीं करती। इसलिए उनकी पार्टी ने इस कार्यक्रम में नहीं जाने का फैसला किया है। मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा समारोह 22 जनवरी होगा। अयोध्या में अगले महीने राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा सियासी मुद्दा बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा का जिक्र कई मंचों से कर चुके हैं। इस दौरान विपक्षियों पर तंज भी कसते रहे हैं। ऐसे में चार महीने से भी कम समय में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले यह एक राजनीतिक मुद्दा बन गया और 22 जनवरी के कार्यक्रम के लिए निमंत्रण धार्मिक नेताओं और राजनेताओं को भेजा गया। अब विपक्षी नेताओं को भेजे गए निमंत्रण भी बहस के मुद्दे बन गये हैं।
इसी संदर्भ में गत दिनों सीपीआई (एम) नेता बृंदा करात ने एक कार्यक्रम से निकलने से पहले अपनी पार्टी के फैसले को जाहिर किया। बृंदा करात ने कहा, हमारी पार्टी अयोध्या में होने वाले प्राण प्रतिष्ठा समारोह में नहीं जाएगी, हम धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हैं, लेकिन हम समारोह में शामिल नहीं होंगे। हमारे पास मौलिक और मूलभूत मूल्य हैं और हम एक विकल्प के रूप में जाने पर विचार नहीं करेंगे। राजनीति और धर्म के मिश्रण का जिक्र करते हुए बृंदा करात ने कहा, हम धर्म और राजनीति को अलग-अलग रखना चाहते हैं। धर्म पर सियासत ठीक नहीं है। धर्म को राजनीति के रूप में प्रयोग करना गलत है। देश में सम्प्रदाय से जुड़ा कोई भी नहीं होना चाहिए।
बृंदा करात ने कहा, हम धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करते हैं, लेकिन वे एक धार्मिक कार्यक्रम को राजनीति से जोड़ रहे लोगों का विरोध करेंगे। यह एक धार्मिक कार्यक्रम का राजनीतिकरण है। यह सही नहीं है।
उल्लेखनीय है कि राम मंदिर का निर्माण भाजपा के लिए एक प्रमुख मुद्दा रहा है। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा इस मुद्दे को उठा सकती है। केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने कहा, निमंत्रण तो सभी के लिए भेजे गए हैं, लेकिन केवल वे ही पहुंचेंगे जिन्हें भगवान राम ने बुलाया है। वामपंथी नेता अकेले विपक्षी राजनेता नहीं हैं, जिन्होंने राम मंदिर के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया है। पूर्व कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि भगवान राम मेरे दिल में हैं। इसलिए, प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने की जरूरत नहीं है, संभवतः चुनाव से पहले भाजपा द्वारा शक्ति प्रदर्शन हो रहा है। सिब्बल ने कहा, मैं जो भी कहता हूं वह आत्मा की आवाज है। मुझे इन चीजों की परवाह नहीं है। अगर राम मेरे दिल में हैं, और राम ने मेरी यात्रा में मेरा मार्गदर्शन किया है, तो इसका मतलब है कि मैंने कुछ सही किया है। एक अन्य वामपंथी पार्टी, सीपीआई के भी राम मंदिर कार्यक्रम में शामिल न होने की आशंका है। सभी की निगाहें कांग्रेस और उसके वरिष्ठ नेताओं पर हैं, जिनमें पार्टी प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और सोनिया गांधी भी शामिल हैं। निवर्तमान लोकसभा में पार्टी के नेता अधीर रंजन चौधरी और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी निमंत्रण दिया गया है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि राहुल गांधी को भी क्या आमंत्रित किया गया है।
माना जाता है कि भाजपा के एकमात्र वास्तविक राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी अगर निमंत्रण स्वीकार करते हैं, तो उसे संभावित रूप से अल्पसंख्यक वोटों का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उत्तर प्रदेश राज्य महत्वपूर्ण हैं, जहां 80 लोकसभा सांसद हैं और मुसलमानों की आबादी 20 प्रतिशत है। ऐसे में कांग्रेस अपनी प्रतिक्रिया देते समय झिझक रही है। महासचिव केसी वेणुगोपाल ने निमंत्रण की पुष्टि की और मीडिया से कहा, आपको पार्टी के रुख के बारे में बताया जाएगा। आपको 22 जनवरी को पता चल जाएगा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने उन्हें आमंत्रित नहीं करने पर भाजपा पर कटाक्ष करते हुए पूछा, इसमें क्या आपत्ति हो सकती है और कहा, या तो वह (श्रीमती गांधी) जाएंगी या एक प्रतिनिधिमंडल जाएगा।
भारत में हिंदुओं की चिंता करने वाले को आमतौर पर ‘दक्षिणपंथी’ कहा जाता है लेकिन यहां की हिंदू-चिंताएं अमेरिका या अफ्रीका के मूल निवासियों की चिंताओं से अलग नहीं हैं। पश्चिमी सांस्कृतिक, व्यापारिक, धार्मिक दबावों के खिलाफ हिंदुओं का विरोध उसी तरह का है, जो अमेरिका में रेड-इंडियन या ऑस्ट्रेलिया में एबोरिजनल समुदायों का है। अजीब बात यह है कि पश्चिमी वामपंथी अमेरिकी या अफ्रीकी मूल के निवासियों की चिंताओं के समर्थक हैं लेकिन भारत में वैसी ही हिंदू-चिंताओं को ‘सांप्रदायिक’ और ‘दक्षिणपंथी’ कह कर खारिज किया जाता है। अमेरिका में मूल निवासियों की अपने पवित्र श्रद्धास्थल वापस करने की मांग से वहां वामपंथियों की सहानुभूति है लेकिन हिंदुओं की काशी, मथुरा, जैसे महान श्रद्धास्थलों की वापसी की मांग को वामपंथी ‘असहिष्णुता’ बताते हैं।
हिन्दुओं की विचारधारा शाकाहार और जीव-रक्षा को प्रोत्साहन देने की हैं। हिंदू धर्म पशु-पक्षी-वन-नदी में भी जीवात्मा की मौजूदगी और नदियों, वनों को देवताओं का निवास मानता है। धरती माता है, उसे पूजता है। वन, पर्यावरण, पशुओं की रक्षा से हिंदुओं की सहानुभूति है। वे मांसाहार आधारित विदेशी फास्ट-फूड ब्रैंडों के प्रति उत्साही नहीं हैं। पर्यावरण और आहार संबंधी यह रुख भी पश्चिमी देशों में वामपंथियों के समान है। पश्चिमी देशों में दक्षिणपंथ बीफ-उद्योग के साथ जुड़ा रहा है। जिन दलाई लामा और तिब्बतियों को दुनिया भर के वामपंथी प्रेम से आदर-समर्थन देते हैं, वही भारत में वामपंथियों की आलोचना के शिकार होते हैं। भारतीय वामपंथी दलाई लामा को ‘दक्षिणपंथी, प्रतिक्रियावादी’ कहते हैं, जबकि अमेरिकी वामपंथी उनका सम्मान करते हैं। इन उदाहरणों से भी भारत में वामपंथ और दक्षिणपंथ विशेषणों की उलटबांसी समझी जा सकती है। (हिफी)

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