मेधा ऋषि ने महामाया का बताया स्वरूप
नवरात्र के पावन पर्व पर माँ दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की आराधना की जाती है। माँ के नौ स्वरूपों के अलावा गुण धर्म के आधार पर भी कई स्वरूप हैं। संसार में माया-मोह को फैलाने वाली महामाया भी दुर्गा जी का ही अंश मानी जाती हैं। दुर्गा सप्तशती में राजा सुरथ और वैश्य कर समाधि की जो कथा बतायी गयी है, उसमें राजा और वैश्य दोनों ही उसी महामाया से भ्रमित हैं। मेघा ऋषि ने राजा और वैश्य को महामाया की कथा सुनाई थी। महामाया भगवान विष्णु के नेत्रों में निवास करती हैं। एक बार भगवान विष्णु के कर्ण से निकले मल से मधु और कैटभ नामक दो महान बलशाली असुर पैदा हुए थे जो ब्रह्मा जी की हत्या करना चाहते थे। उस समय ब्रह्मा जी ने इन्हींे महामाया की आराधना की थी और महामाया जब भगवान विष्णु के नेत्रों से अलग हुईं तो भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ से युद्ध किया। मधु कैटभ बहुत पराक्रमी थी और महामाया ने उन दोनों असुरों की मति इस तरह फेरी कि उन्हेंने भगवान विष्णु को अपनी मृत्यु का ही वरदान दिया अर्थात् जब भगवान विष्णु से असुरों ने वर मांगने को कहा तब भगवान विष्णु ने उनसे पूछा कि आप लोगों की मृत्यु कैसे होगी? इसके बाद ही भगवान विष्णु ने मधु कैटभ का वध किया। इस प्रकार महामाया लोगों की मति को भ्रष्ट करती हैं लेकिन दुर्गा माँ की आराधना करने पर वे बुद्धि को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देती हैं। माँ दुर्गा की उपासना करते हुए हम माँ से यही याचना करें कि हमारी बुद्धि को माँ महामाया सही रास्ता दिखाएं।
महामाया की कथा मेधा ऋषि ने इस प्रकार सुनाई थी-
राजा सरथ बोले- हे मुनिवर जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कौन हैं? उसका जन्म कैसे हुआ, उसके चरित्र के बारे में आप हमें बताएं तो आपकी कृपा होगी।
हे राजन! वास्तव में तो वे देवी नित्य स्वरूपा ही हैं, सारा संसार उसी का रूप है। यह सब विश्व उन्हीं की माया है। वह देवताओं के कार्य सिद्धि करने के लिए प्रकट होते हैं।
कल्प के अन्त में जब सारा संसार एक ही महासागर में निमग्न हो रहा था और सबके प्रभु भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योग निद्रा का सहारा ले रहे थे, उस समय उनके कानों की मैल से दो असुर पैदा हुए, जो मधु और कैटभ के नाम से प्रसिद्ध है। उन दोनों ने ब्रह्माजी को जान से मार देने की योजना बनाई।
भगवान विष्णु की नाभि के कमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्मा जी ने जैसे ही उन दोनों असुरों को अपनी ओर आता और भगवान विष्णु को सोया हुआ देखा तो उन्होंने विष्णु जी को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन आरंभ किया।
इसके लिए, अधीश्वरी जगत को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज रूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति है, उन्हीं भगवती निद्रा देवी की ब्रह्मा जी उपासना करने लगे।
देवी, तुम्हीं स्वाहा तुम्हीं स्वधा और तुम ही वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम ही जीवन देने वाली हो, नित्य अक्षर प्रणव में आकार, उकार, मकार इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्ध मात्रा है। जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता वह भी तुम ही हो।
तुम ही श्री, तुम ही ईश्वरी, तुम ही बोध स्वरूप बुद्धि हो। पर और अपर, सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम ही हो सर्व रूप देवी! कहीं भी सत्य-असत्य रूप जो कुछ भी वस्तुएं हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम ही हो। जो इस संसार के स्वामी, सृष्टि के पालन करता विष्णु भगवान जी हैं, उनको भी तुमने नींद के अधीन कर दिया है। अब तुम्हारी स्तुति करने में यहां कौन समर्थ है। मुझे भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को तुमने ही शरीर धारण करवाया है।
हे महाशक्ति देवी! यह जो दोनों दुर्धर्ष असुर, मधु और कैटभ हैं, उनको माया जाल में फंसा दो और प्रभु को जगा दो और उनके मन में इन दोनों असुरों को जान से मारने का विचार पैदा कर दो – बस महाशक्ति मैं तुमसे यही प्रार्थना करता हूं।
ऋषि जी ने कहा – हे राजन! जब ब्रह्मा जी ने वहां मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान विष्णु को जगाने के लिए तमो गुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार से उपासना की तब वे भगवान के नेत्र, मुंह, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकल कर ब्रह्मा जी के सामने आकर खड़ी हो गई।
उसी समय योगनिद्रा से मुक्त होकर भगवान विष्णु भी जाग उठे, उन्होंने आंख खुलते ही उन दोनों असुरों को देखा। वे दोनों ही बड़े बहादुर और पराक्रमी थे और क्रोध से लाल आंखें किए ब्रह्मा जी को खा जाना चाहते थे।
भगवान विष्णु समझ गए कि उन दोनों के मन में खोट है। तब प्रभु ने उठकर उन दोनों के साथ युद्ध आरम्भ किया जो पांच हजार साल तक चलता रहा। वे दोनों भी विष्णु जी की शक्ति से जिए हुए थे, इसलिए पांच हजार वर्ष तक युद्ध करने के पश्चात भी भगवान विष्णु उन्हें हरा नहीं पाए। उन दोनों को देवी ने मोह में डाल रखा था, इसलिए वे दोनों भगवान विष्णु की ओर देखकर बोले – ‘हे वीर विष्णु हम तुम्हारी वीरता पर बहुत खुश हैं। तुम चाहो तो कोई वर मांग सकते हो।
तभी भगवान विष्णु हंसकर बोले- ‘यदि तुम दोनों मुझ पर खुश हो और मुझे वर देना चाहते हो तो फिर मैं तुमसे यही वर मांगता हूं कि तुम दोनों मेंरे हाथ से मारे जाओ। बस मुझे तुमसे इतना ही वर चाहिए।’
वे दोनो असुर भी कम नहीं थे, वे समझ गए थे कि हम भगवान विष्णु के जाल में फंस गए हैं। उन्होंने अपनी तेज बुद्धि का प्रयोग करते हुए नीचे की ओर देखा, जहां पर चारों ओर जल ही जल था। तब वे दोनों बोले- हे विष्णु आप हमें केवल वहीं पर मार सकते हो, जहां पर धरती जल से डूबी हुई न हो जहां पर स्थान सूखा हो, बस वहीं पर आप हमारा वध कर सकते हो। ‘तथास्तु’ कहते हुए भगवान विष्णु ने उन दोनों के सिर अपनी जांधों पर रखते हुए कहा- क्यों? इससे सूखा स्थान तुम्हें और कहां मिलेगा। आओं मैं तुम्हारा कल्याण करता हूं। इसके पश्चात भगवान विष्णु ने उन दोनों असुरों के सिर चक्र से काट डाले। ब्रह्मा जी ने उन दोनों असुरों की हत्या होते देखी तो खुशी से झूम उठे। इस तरह से देवी, महाशक्ति ब्रह्मा जी की उपासना से स्वयं प्रकट हुई थीं। (हिफी)