प्रेरणास्पद लघुकथा 

☆ धूल छंट गई ☆

दादा जी! – दादा जी! आपकी छत पर पतंग आई है , दे दो ना !
दादा जी छत पर ही टहल रहे थे उन्होंने जल्दी से पतंग उठाई और रख ली ।
हाँ यही है मेरी पतंग , दादा जी! दे दो ना प्लीज– वह मानों मिन्नतें करता हुआ बोला । लडके की तेज नजर चारों तरफ मुआयना भी करती जा रही थी कि कहीं कोई और दावेदार ना आ जाए इस पतंग का ।
वे गुस्से से बोले — संक्रांति आते ही तुम लोग चैन नहीं लेने देते हो । अभी और कोई आकर कहेगा कि यह मेरी पतंग है , फिर वही झगडा । यही काम बचा है क्या मेरे पास ? पतंग उठा – उठाकर देता रहूँ तुम्हें ? नहीं दूंगा पतंग ,जाओ यहाँ से । बोलते – बोलते ध्यान आया कि अकेले घर में और काम हैं भी कहाँ उनके पास ? जब तक बच्चे थे घर में खूब रौनक रहा करती थी संक्रांति के दिन । सब मिलकर पतंग उडाते थे , खूब मस्ती होती थी । बच्चे विदेश चले गए और —
दादा जी फिर पतंग नहीं देंगे आप – उसने मायूसी से पूछा । कुछ उत्तर ना पाकर वह बडबडाता हुआ वापस जाने लगा – पता नहीं क्या करेंगे पतंग का , कभी किसी की पतंग नहीं देते , आज क्यों देंगे —
तभी उनका ध्यान टूटा — अरे बच्चे ! सुन ना ,इधर आ दादा जी ने आवाज लगाई — मेरे पास और बहुत सी पतंगें हैं , तुझे चाहिए ?
हाँ आँ — वह अचकचाते हुए बोला ।
तिल के लड्डू भी मिलेंगे पर मेरे साथ यहीं छ्त पर आकर पतंग उडानी पडेंगी – दादा जी ने हँसते हुए कहा ।
लडके की आँखें चमक उठीं , जल्दी से बोला — दादा जी! मैं अपने दोस्तों को भी लेकर आता हूँ , बस्स – यूँ गया, यूँ आया । वह दौड पडा ।
दादा जी मन ही मन मुस्कुराते हुए बरसों से इकठ्ठी की हुई ढेरों पतंग और लटाई पर से धूल साफ कर रहे थे ।

 

डॉ,ऋचा शर्मा

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