स्मृति विशेष

स्वामी जी ने गढ़े थे पत्रकारिता के नये कीर्तिमान

 

आज इलेक्ट्रानिक मीडिया का बोलबाला है लेकिन 90 के दशक मंे प्रिंट मीडिया का ही बोलबाला था। बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक समाचार पत्रों को ध्यान से पढ़ा जाता था और शासन-प्रशासन भी उन पर संज्ञान लेता था। ऐसे मंे पत्रकारिता के दुरुपयोग की संभावना भी बढ़ जाती है। पत्रकार और स्वाधीनता सेनानी मोहन स्वामी के बेटे अरविन्द ने जब 1990 में गाजियाबाद से लखनऊ आकर पत्रकारिता के नये प्रतिमान स्थापित करने का प्रयास किया तो उनके सामने ढेरों चुनौतियां थीं। सबसे पहली चुनौती तो बड़े समाचार पत्रों से प्रतिस्पद्र्धा की थी। जाहिर है कि छोटे और मंझोले समाचार पत्र अपने को बचाने के लिए गुणवत्ता से समझौता कर रहे थे। यह देखकर अरविन्द मोहन स्वामी ने समाचार एजेंसी के माध्यम से छोटे और मझोले समाचार पत्रों के लिए ज्ञानवर्द्धक, समाज के कल्याण से जुड़े और भारतीय संस्कृति का स्मरण कराने वाले आलेख और समाचार विश्लेषण आसान कीमत पर उन समाचार पत्रों को उपलब्ध कराए जो बड़ी न्यूज एजेंसी के सदस्य नहीं बन सकते थे और बड़े-बड़े लेखकों को उनका पारिश्रमिक नहीं दे सकते थे।
उत्तर प्रदेश के औद्योगिक नगर गाजियाबाद के दिल्ली गेट मोहल्ला की पावन धरती पर 30 अगस्त, 1948 के दिन जन्म लेने वाले अरविन्द मोहन स्वामी को उद्देश्यपरक पत्रकारिता के बीच ही पलने-बढ़ने का अवसर मिला। आजादी से पहले पत्रकारिता ने जो तेवर अपनाये थे और देश की जनता को जागरूक बनाने का काम किया था, वह आजादी के दशकों बाद भी जारी रहा। उस समय के अखबार और पत्रिकाएं व्यावसायिक नहीं बल्कि ‘मिशन’ के रूप में काम करते थे। सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने देश को आजाद कराने के लिए महात्मा गांधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धांत को अपनाया था और अंग्रेजों को अंततः गांधी जी के इसी शस्त्र के सामने झुकना पड़ा। देश आजाद हुआ लेकिन गांधी जी ने किसी भी पद को लेने से इंकार कर दिया। राजनीतिक त्याग की यह मिसाल उन्होंने भावी नेताओं के लिए पेश की थी जो आज उसे पूरी तरह से भुला चुके हैं। वर्तमान में कुर्सी के लिये राजनीतिक दलों में घमासान मचा हुआ है। यहां तक कि अपनी ही पार्टी के नेताओं को वे षड़यंत्रों में फंसाने लगे हैं।
बहरहाल, उस समय ऐसा माहौल नहीं था जब अरविन्द मोहन स्वामी ने जन्म लिया। उनके परिवार में संस्कारों को प्रधानता दी जाती थी और धार्मिक आयोजनों से बच्चे भी उसी राह पर चलने की प्रेरणा लेते थे। अरविन्द मोहन स्वामी के पिता जी गाजियाबाद के जाने-माने वैद्य हुआ करते थे। यह उनका व्यवसाय कम जनसेवा ज्यादा थी। इसके अलावा वे एक हिन्दी साप्ताहिक ‘गाजियाबाद समाचार’ का प्रकाशन भी किया करते थे। उनका अखबार स्थानीय स्तर पर लोगों की समस्याएं उठाता था और जनप्रतिनिधियों के गलत कामों का सशक्त विरोध तथा अच्छे काम की सराहना भी करता था। आजादी के शुरू में देश की अर्थव्यवस्था बहुत जर्जर थी। कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना की जिद के चलते देश के दो टुकड़े कर दिये गये थे और पाकिस्तान का निर्माण ढेर सारी लाशों पर ही नहीं हिन्दुस्तान से ढेर सारा रुपया लेकर हुआ था। कहना न होगा कि तत्कालीन ब्रिटिश शासकों ने अपनी फूट डालो की कूटनीति से भारत की कमर तोड़ दी थी। इस प्रकार पत्रकारिता के सामने कई लक्ष्य थे जिनमें हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द और देश को आत्मनिर्भर बनाना प्रमुख था। ये दोनों बातें जागरूकता के बिना संभव नहीं थीं और ‘गाजियाबाद समाचार’ यही काम कर रहा था। बालक अरविन्द ने पुस्तकीय ज्ञान के साथ पत्रकारिता की इन बातों को भी सीखा जो बाद में उनके पत्रकारिता जीवन में काम आयी। अपने इस ज्ञान और अनुभव का उन्होंने पूर्ण रूप से इस्तेमाल हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा (हिफी) की स्थापना करने के बाद किया।
अरविन्द मोहन स्वामी सन् 1975 में गाजियाबाद छोड़कर लखनऊ आ गये थे क्योंकि यहां उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करने का ज्यादा अवसर दिख रहा था। इस समय तक पत्र-पत्रिकाएं व्यावसायिकता की तरफ मुड़ चुकी थीं लेकिन जन-जागरण का जज्बा भी था। श्रीमती इन्दिरा गाँधी की आपातकालीन व्यवस्था ने पत्र-पत्रिकाओं का गला दबोच लिया तो यह बात श्री अरविन्द मोहन को भी अच्छी नहीं लगी। पत्रकारिता में विशिष्ट स्थान रखने के कारण ही उन्हें हिन्दुस्थान समाचार एजेन्सी में प्रबन्ध निदेशक नियुक्त किया गया था। इस पर सरकारी दबाव पड़ता तो अरविन्द मोहन स्वामी ने अपनी निजी एजेन्सी ‘हिफी’ की शुरुआत की। इस एजेन्सी को शुरू करते समय उन्हें छोटे और मंझोले समाचार पत्रों की कठिनाई का ध्यान आया जो लागत ज्यादा आने के कारण असमय ही दम तोड़ने को विवश हो रहे थे। ऐसे अखबारों को ‘रेडी टू प्रिंट’ देकर काफी राहत पहुंचाई जा सकती थी, साथ ही पत्रकारिता के जिस मिशन भाव को वे आगे बढ़ाना चाहते थे, वह भी पूरा हो रहा था। उन्होंने समाजोपयोगी लेख विभिन्न भाषाओं में तैयार करके छोटे और मझोले अखबारों को भेजने शुरू किये। अखबारों ने स्वामी जी के इस प्रयास का भरपूर स्वागत किया क्योंकि इसी प्रिंट को तैयार करने में उन्हें काफी लागत लगानी पड़ती थी। अरविन्द मोहन स्वामी को इस बात का संतोष था कि वे जिस प्रकार के शिक्षाप्रद लेख भेज रहे हैं, उन्हें जनता का बड़ा समूह पढ़ रहा है। स्वामी जी ने किसी विशेष राजनीतिक दल से कभी लगाव नहीं दिखाया और सरकार तथा उनके प्रतिनिधियों को गलत काम के लिये खरी-खोटी सुनाई राजनीतिक दलों द्वारा बाहुबलियों को बढ़ावा देने का काम उनके जीवन काल में ही शुरू हो गया था, जिसका उन्होंने जमकर विरोध किया।
सवाल आज भी है कि समाज को रास्ता कैसे दिखाया जाए? पत्रकारिता यह काम कर सकती है लेकिन बड़े-बड़े पत्र उद्योगपतियों के हाथों में हैं जो राजनीतिकों के साथ हो गये हैं। बाकी बचे छोटे और मंझोले अखबार तो वे तमाम कठिनाइयों के बावजूद इस उद्देश्य को पूरा कर सकते हैं। अरविन्द मोहन स्वामी की विरासत को संभाले बड़ी सुपुत्री श्रीमती मनीषा स्वामी कपूर ने पत्रकारिता के मिशन को बरकरार रखते हुए आर्थिक आत्मनिर्भरता की तरफ भी कदम बढ़ाया है। देश भर के हजारों समाचार पत्र-पत्रिकाएं हिफी से जुड़ गयी हैं। (हिफी)

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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